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पाबंदियों का देश

भारत में भारत की बेटियों (इंडियाज डॉटर्स) पर बनी फिल्म देखना चाहे तो नहीं देख सकते, इस पर प्रतिबंध है। महाराष्ट्र में कोई गौ-मांस से बनी कोई डिश खाना चाहे, वह नहीं खा सकता, उसे बेचना चाहे नहीं बेच सकता-इस पर प्रतिबंध है। केरल या गुजरात में शराब का सेवन करना चाहे नहीं कर सकते, इस पर प्रतिबंध है।
पाबंदियों का देश

वेंडी डोनिगर की किताब द हिंदूजः एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री की किताब पढ़ना चाहते हैं, लेकिन नहीं पढ़ सकते, इस पर रोक ही नहीं लगी, इसे रद्दी में तब्दील कर दिया गया। फिल्म फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे देखना चाहूरी तैयारी ते हैं, लेकिन अफसोस नहीं देख सकते, यह प्रतिबंधित है। अहमदाबाद में फना फिल्म देखना संभव नहीं, यह प्रतिबंधित है। विदेश जाकर लोगों-आदिवासियों के बारे में बात करना चाहते हैं, मुश्किल है। आपको राष्ट्र हितों के खिलाफ बताकर रोका जा सकता है। विदेश से आकर आप भारत में आंदोलनों का जायजा लेना चाहते हैं, आपको हवाई अड्डे से बाहर नहीं आने दिया जाएगा, वापसी फ्लाइट से भेज दिया जाएगा।

प्रतिबंध-प्रतिबंध और प्रतिबंध। हिंदुस्तान नहीं प्रतिबंधस्थान में तब्दील हो रहा है देश। हर तरह रोक लगाने का तैयारी चल रही है। कई प्रतिबंध कानून से लगाए जा रहे हैं और कई सामाजिक दबाव तथा तनाव के जरिए डाले जा रहे हैं। अंतरजातीय शादियों और अंतरधार्मिक शादियों पर पहले से कुफ्र बरपा है। हिंदुत्ववादी ताकतें ऐसी शादियों पर हिंसक हमला करने के लिए तैयार बैठी रहती है। ऐसी शादियों पर जातियों के बीच हिंसक टकराव की घटनाएं देश भर में फैली हुई हैं। अंतर-धार्मिक शादियों के खिलाफ अघोषित प्रतिबंध लगाने की घोषणा करने वाले अनगिनत हिंदुत्ववादी संगठन घूम रहे हैं। प्रेमी युगलों की हत्याएं हो रही हैं और इन हत्याओं के पक्ष में बयान दिए जा रहे हैं।

वरिष्ठ इतिहासकार डी.एन. झा के शब्दों में कहा जाए तो देश एक अंधकारमय दौर से गुजर रहा है। इस दौर में आम जनता के रोज-मर्रा के जीवन के हर पहलू में सरकार का दखल बढ़ता जा रहा है। सरकार यह तय कर रही है कि हम क्या खाएं, क्या पहने, क्या पढ़े, क्या देखें। निर्भया बलात्कार कांड पर बनी लेसली उडविन की फिल्म को प्रतिबंधित करके जहां पितृसत्ता के खिलाफ उठी आवाज को दबाने की कोशिश की गई, वहीं गाय को मारने पर देश में राजनीति फिर गरम हो रही है। भारत दुनिया में ब्राजील के बाद दूसरे नंबर का गौ-मांस का नियार्तक है। फिर भी तमाम राज्यों में इस पर प्रतिबंध लगाने की कवायद तेज हो रही है। महाराष्ट्र में गाय-बैल-सांड को मारने को अपराध बना दिया गया है। इनके मांस को बेचने और रखना सब अपराध बना दिया गया है। इसके लिए पांच साल तक की सजा और 10 हजार रुपये तक का जुर्माना करने का प्रावधान है। हरियाणा में भाजपा ने तो अपने चुनावी घोषणापत्र में ही गाय को मारने को धारा 302 यानी इंसान की हत्या के बराबर करने का अपराध घोषित करने का वादा किया था। अब हरियाणा की भाजपा सरकार इसी वादे को पूरा करने के लिए अपने बजट सत्र में यहा कानून लाने जा रही है। महाराष्ट्र सरकार के बाद अब झारखंड में भाजपा सरकार भी गाय को मारने पर रोक लगाने की तैयारी हो रही है। जबकि झारखंड में आदिवासी समुदायों की संस्कृति का हिस्सा है गाय को खाना। यानी अब तमाम राज्यों में गाय को मारने पर कड़े से कड़ा कानून बनाने की होड़ लग गई है। उधर, पश्चिम बंगाल में भी भाजपा ने गाय को मारने और उसके मांस को बांग्लादेश भेजे जाने को एक बड़ी मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में गाय को मारने पर रोक नहीं है और गाय के मांस को खाया जाता है।

महाराष्ट्र में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार के इस फैसले से करीब दो करोड़ लोगों का रोजगार प्रभावित होगा। महाराष्ट्र सरकार के इस कदम का देश भर में कड़ा विरोध हो रहा है। महाराष्ट्र में मुस्लिम संगठनों के अलावा दलित संगठनों ने सरकार के इस फैसले की कड़ी आलोचना की। विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में सामाजिक कार्यकर्ता कीतन तिरोदकर ने जनहित याचिका दाखिल करके राज्य सरकार द्वारा गौ-मांस पर लगाई रोक को गलत बताया है। उन्होंने कहा कि गौ-मांस को खाना और बेचना अपराध नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे खाने के अधिकार का हनन होता है। कीतन ने अपनी याचिका में कहा कि गौ-मांस खाना किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है, इसे आपराधिक कृत्य बनाना खतरनाक है और गैर-कानूनी है। मुंबई के बीफ डीलर्स वेलफेयर एसोसिएशन के उपाध्‍यक्ष इंतजार कुरैशी का कहना है कि इस प्रतिबंध से लाखों लोगों की जिंदगी पर संकट आ गया है। मुंबई के मीट कारोबारी अकरम कुरैशी का कहना है कि जब गाय की हत्‍या पर पहले ही रोक लगी है तब बैल के मांस पर रोक लगाने का कोई तुक नहीं है। मुंबई में बीफ खरीदारों में अच्‍छी खासी तादाद हिंदुओं की होती है ऐसे में इस मुद्दे को बेवजह धार्मिक और राजनैतिक रंग दिया जा रहा है। 

महाराष्ट्र में लगे प्रतिबंध के खिलाफ देश भर से आवाजें उठ रही हैं। केरल में बीफ फेस्टिवल आयोजित किया गया, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंदुओं और मुस्लिमों ने मौ मांस से बने व्यंजन खाए। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एम.बी. राजेश ने बताया कि गौ मांस खाने वालों की संख्या भी बहुत है और उनके अधिकारों का भी सम्मान होना चाहिए। केरल में मुस्लिम लीग से जुड़े सी.के. सुबैर ने आउटलुक को बताया कि सिर्फ केरल ही नहीं देश के कई राज्यों में गाय का मांस खाया जाता है। इस तरह से उसे अपराध बनाना देश में खाने-पीने की विविधता को नकारना है। यह सांप्रदायिक फासीवाद है, जो एक तरह की सोच, एक तरह का खानपान सारे देश पर लादना चाहता है।

इस मसले पर आउटलुक ने जब पंजाब के लुधियाना शहर में रहने वाले 48 वर्षीय सुभाष देसावर से बात की तो उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र और हरियाणा में जिस तरह से गाय को खाने पर रोक लगाई जा रही है, वह सही नहीं है। यह निजी पंसद-नापसंद का मामला है। खाने में भी सरकारें धर्म को डाल रही है। सुभाष ने बताया कि वह गौ-मांस खा चुके हैं। पंजाब और हरियाणा में इस पर रोक लगने की वजह से उन्हें दिल्ली में आकर अपने दोस्तों के साथ इसे खाया। सुभाष का कहना है कि गौ-मांस खाने या न खाने से कैसे कोई हिंदू हो सकता है। देश में बड़ी संख्या में लोग जिसमें दलित भी शामिल हैं, गौ-मांस खाते हैं और उन्हें यह खाने की आजादी होनी चाहिए।

हरियाणा के पानीपत में रहने वाले राजकुमार ने दो टूक शब्दों में कहा कि उन्हें गौ-मांस खाना पसंद है और इसकी दो वजहें हैं। पहली तो यह कि यह सस्ता होता है और दूसरा स्वादिष्ट भी। उन्होंने बताया कि हरियाणा की दलित और मुस्लिम बस्तियों में यह खूब खाया जाता है। प्रतिबंध लगने की वजह से चोरी-छिपे इसका कारोबार चल रहा है, जिससे खाने वालों को बहुत मुश्किल होती है। राजकुमार ने बताया, -इस मीट की एक प्लेट 20-25 रुपये में मिल जाती है और दस रुपये की रोटी लेकर हमारा पेट भर जाता है।–इससे सस्ता और पोष्टिक खाना और क्या हो सकता है। राजकुमार ने बताया कि वाल्मिकी समुदाय शुरू से गौ-मांस खाता रहा है। उन्होंने बताया कि उनके दादा मरी हुई गाय को साफ करते थे। इसके बाद उसे घर के लोग मिलकर उसके कुछ हिस्से को सुखाते थे और बाकी हिस्सा खाया जाता था। अब ऐसा नहीं रहा क्योंकि  लोगों मरी गाय को गाड़ दिया जाता है। राजकुमार ने जो कहा वही बात इतिहासकार डी.एन. झा ने कही। देश की गरीब जनता के लिए गाय का मीट सबसे सस्ता उच्च कोटि का प्रोटीन होता है। इसके साथ ही जिन राज्यों में यह प्रतिबंधित है, वहां भी गरीब आबादी इस पर आश्रित है।

तमिलनाडू की डॉ. दीप्ति ने आउटलुक को बताया कि गौ-मांस खाना एक सांस्कृतिक चुनाव है। दलितों की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। इसकी वजह यह रही है कि दलितों की बहुत सी जातियां मरे हुए जानवरों को साफ करने का काम करती रही हैं। तमिलनाडू में दलित जातियों में अरुंधतियार, मादिगा, चकलियारस में गो-मांस खाया जाता है। एक बार तमिलनाडू में इसे प्रतिबंधित करने की कोशिश हुई लेकिन राज्य में कड़े विरोध के बाद इसे वापस लेना पड़ा था। हालांकि यहां भी खुलकर लोग यह बताना पसंद नहीं करते कि वह गौ-मांस खाते हैं क्योंकि ब्राहमणवाद का असर यहां पर भी है। दीप्ति का मानना है कि महाराष्ट्र में जिस तरह से यह प्रतिबंध लगाया गया है वह हिंदुत्ववादी संस्कृति को फैलाने की साजिश का हिस्सा है। दीप्ति का कहना है कि एक तरफ सरकार इंडिया डॉटर्स फिल्म को प्रतिबंधित कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ लोगों के खानपान पर रोक लगा रही है। सरकार खाने की मेज पर बैठ गई है और खाने पर नकेल कस रही है। दीप्ति सीधा सा सवाल पूछती हैं, गाय किसके लिए पवित्र है, मेरे लिए तो नहीं है। देश में मुसलमानों के लिए सुअर का मांस हराम है तो क्या उसे प्रतिबंधित किया जाता है, नहीं न। उसी तरह का रवैया गो-मांस के लिए रहना चाहिए।

प्रतिबंध की तलवार सिर्फ खान-पान तक ही सीमित नहीं है। क्या लोग देखें, क्या लोग पढ़े, क्या सुने, क्या बनाएं, सब पर नैतिक पुलिस का पहरा बढ़ता जा रहा है। 2012 में हुए निर्भया बलात्कार कांड पर बीबीसी के लिए लेसली उडविन द्वारा बनाई गई फिल्म इंडियाज डॉटर्स पर जिस तरह से भारत सरकार ने आनन फानन में रोक लगाई, उसकी देश-विदेश में तीखी आलोचना हुई। सरकार का तर्क है कि इस फिल्म से भारत की छवि खराब हो रही है। लेसली उडविन की इस फिल्म को लेकर देश भर में खूब हंगामा रहा। निर्भया बलात्कार कांड की पीड़िता के पिता का कहना है कि इस फिल्म को हर किसी को देखना चाहिए। यह भारत की बेटियों के पक्ष में फिल्म है, देश के खिलाफ नहीं। आप यह सोचिए कि व्यक्ति जेल में ऐसी बातें कह रहा है, वह बाहर कितना जालिम होगा। ऐसे लोगों का पर्दाफाश होना चाहिए। माकपा की सांसद बृंदा कारात ने कहा कि मैंने यह डॉक्यूमेंटरी फिल्म देखी है। यह सशक्त फिल्म है। यह चौथी बार है जब सरकार ने बिना देखे ही किसी फिल्म को प्रतिबंधित किया है। फिल्म से पूरी तरह से सहमत न होने के बावजूद अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की सचिव कविता कृष्णन का कहना है कि फिल्म पर प्रतिबंध लगाना सरासर गलत कदम है। वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर का कहना है कि औरतों की जिंदगी में जरूरत से ज्यादा दखल बढ़ रहा है। औरत से हुए बलात्कार पर फिल्म बनाना राष्ट्रीय गरिमा के खिलाफ, लड़कियां जींस पहने तो यह संस्कृति के खिलाफ, लड़कियां मोबाइल ले तो यह खतरनाक, पसंद से शादी करें तो अपराध। यह मध्ययुगीन दौर की खतरनाक वापसी है।

रोक की संस्कृति और रोक की राजनीति का बोलबाला हर तरफ है। आज के दौर में सरकार की नीतियों-परियोजनाओं के खिलाफ बोलना भी राष्ट्र हित के खिलाफ परिभाषित किया जाने लगा है। स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस की कार्यकर्ता प्रिया पिल्ले को लंदन जाने से रोका जाना, ऐसी ही प्रतिबंधकारी राजनीति का एक कदम था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार के इस कदम के खिलाफ फैसला देते हुए कहा कि प्रिया पिल्लै का यात्रा करने का अधिकार मौलिक अधिकार है और इसे छीना नहीं जा सकता। प्रिया पिल्ले की वकील इंदिरा जयसिंह का कहा कि कितनी हैरानी की बात है कि देश का कोई कानून किसी भी नागरिक को अपने विचार रखने से नहीं रोकता। अभिव्यक्ति की आजादी संविधान की धारा 19 (2) के तहत ही की जा सकती है। प्रिया के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं था। दरअसल सरकार ने जिस तरह से यह तर्क गढ़ा कि प्रिया पिल्ले इस्सार द्वारा चलाई जा रही महान परियोजना का विरोध करने जा रही हैं और इससे भारत में  विदेशी निवेश प्रभावित होगा। सरकार ने प्रिया पिल्ले का लंदन जाना राष्ट्रीय हित के खिलाफ बताया था, जो किसी भी सूरत में न्यायसंगत नहीं था।

एक तरफ भारत के लोगों को विदेश जाने से रोका जा रहा है वही विदेशियों को भारत आने से रोका जा रहा है। बिट्रेन की अकादमिक  पैनी वेरा सांसो को 2014 में हैदराबाद में हवाई अड्डे पर रोक लिया गया और वापसी फ्लाइट से ही वापस भेज दिया गया। वजह वह भारत के वृद्धजनों पर काम कर रही थीं और उनकी तस्वीरों की प्रदर्शनियां लगा रही थीं। इन प्रदर्शनियों में वृद्धों के कठिन जीवन और उनके जीवट की कहानी बयां होती थी। यह प्रदर्शनी केंद्र सरकार को राष्ट्र के खिलाफ लगी। ऐसा ही कुडनकुलन में परमाणु संयत्र विरोधी आंदोलन के दौरान कई विदेशियों को वापस भेजा गया था।

असहमति की तमाम आवाजों को भी दबाने का एक लंबा सिलसिला रहा है, जो अब ज्यादा आक्रामक हो गया है। यह अकारण नहीं है कि केंद्र सरकार ने 69 स्वयंसेवी संस्थाओं पर विदेशी धन लेने पर रोक लगा दी है। इनमें से 30 अल्पसंख्यकों के सवालों पर सक्रिय है। इन संस्थाओं पर आरोप है कि विकास विरोधी आंदोलनों को समर्थन देकर देश की सकल घरेलू उत्पाद में 2 से 3 फीसदी का नुकसान कर रहे हैं।

नौकरशाही पर तो लगाम कसी ही जा रही है। लेखकों पर हमले तेज हुए हैं। तमिल लेखक पुलियूर मुरुगेसन को उनके एक उपन्यास बालाचंद्रन इनरा पेयारम इनाकुंदु के लिए मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। इससे पहले तमिलनाडू के लिए लेखक पेरुमल मुरुगन को ऐसे ही दबाव के चलते अपने लेखक की मौत की घोषणा करनी पड़ी थी। कांग्रेस के शासनकाल में जेवियर मोरो की किताब लाल साड़ी प्रतिबंधित रही। प्रतिबंध झेलने वाले लेखकों की फहरिस्त लंबी है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने ए.के. रामानुजम के थ्री हंडरेड रामायन पर भी उतना ही उपद्व किया था जतना रोहिनटन मिस्त्री की किताब पर शिव सेना ने। मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर तस्लीमा नसरीन से लेकर सलमान रुश्दी रहे। हमारे समय के सबसे बड़े चित्रकारों में से एक एम.एफ हुसैन को उग्र हिंदुत्ववादी ताकतों ने देश में ही प्रतिबंधित कर दिया और बहादुरशाह जफर की तरह उन्हें भारत में दो गज़ जमीन भी न मिली।  

अंतर बस यह आया है कि ये प्रतिबंध अब ज्यादा उग्र हो गए हैं और उन्हें गाहे-बगाहे राजनीतिक सरकारी वरदहस्त प्राप्त है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नारा तो दिया मेक इन इंडिया लेकिन जमीन पर वह दिखाई दे रहा है बेनड इन इंडिया (प्रतिबंध का भारत)।

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गाय पर फिर ध्रुवीकरण

पवित्र गाय का मिथक जैसी विचारोत्तेजक किताब लिखने का जोखिम उठाने वाले अग्रणी इतिहासकार द्विजेंद्रनारायण झा, जिन्हें डी.एन.झा के रूप में ज्यादा जाना जाता है, देश के मौजूदा हालात से बहुत आहत हैं। यह एतिहासिक किताब 2001 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई औऱ इस पर प्रतिबंध लगा, हंगामा हुआ, उन पर हमला हुआ, लेकिन वह डिगे नहीं। यह किताब हिंदी में आई और इसने गाय के इर्द-गिर्द गढ़े गए कई मिथकों को तोड़ने की कोशिश की। उनका मानना है कि इतिहास को नकार कर गलत चीजों के लिए भारत को गर्व करने का जो सिलसिला चल रहा है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। डी.एन.झा का मानना है कि हम एक अंधकार युग में जी रहे हैं, जहां जीवन के हर कोने में राज्य का दखल बढ़ता जा रहा है। आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह ने उनसे देश भर में लगाए जा रहे प्रतिबंधों पर लंबी बात की, पेश हैं उसके अंशः

एक के बाद एक प्रतिबंध लग रहे हैं। गाय से लेकर फिल्में, सब पर रोक। ऐसे एतिहासिक संदर्भ में आप कैसे देखते हैं

अगर सरकार तय करने लगे कि लोगों को क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या देखना है, कितने बच्चे पैदा करने हैं, तो यह लोकतंत्र कहां है। यह तो तानाशाही है। मेरा मानना है कि हम अंधकारमय युग में जी रहे हैं और यह सब उसी की प्रतिध्वनियां हैं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध मामूली नहीं है। इस प्रतिबंध का कोई आधार नहीं है, कोई जरूरत नहीं है। सीधे-सीधे राज्य यह बता रहा है कि नागरिक की थाली में क्या होगा, क्या वह खाएगा यह व्यक्ति नहीं सरकार तय करेगे। यह तो तानाशाही की बात हो गई, है न। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार पर बनी फिल्म पर रोक लगाकर आखिर क्या संदेश दिया सरकार ने। उसने इस मुद्दे को भी झूठे राष्ट्रीय सम्मान से जोड़ दिया। यह सीधे-सीधे पितृसत्ता को पोषण करने वाला कदम है। किताबों पर पहले ही हमला बोला जाता रहा है। दरअसल जो भी विचार हिंदुत्ववादी ताकतों, कट्टरपंथी ताकतों से मेल नहीं खाता, उस विचार को खत्म करने के लिए वे आक्रामक हो रही हैं।

महाराष्ट्र सरकार द्वारा लगाया गया गाय, बैल, सांड को मारने, उसका मीट रखने पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा। देश भर में इस तरह के प्रतिबंधों की क्यों जरूरत पड़ी

यह प्रतिबंध पूरी तरह से सांप्रदायिक है। यह सिर्फ मुसलमान विरोधी ही नहीं, दलित विरोधी, केरल और उत्तर पूर्व विरोधी है। असल में यह गरीब विरोधी है। गरीबों को सबसे सस्ता और पौष्टिक प्रोटीन गाय के मांस से मिलता है। इनसे क्यों वंचित किया जा रहा है, सिर्फ इसलिए कि हिंदू धर्म के कुछ लोगों को लगता है कि गाय पवित्र है।

 

-गाय को पवित्र गाय के रूप में लंबे समय से भारतीय राजनीति में पल्लवित-पोषित किया गया। आपका काम यह बताता है कि गौ मांस पहले हिंदू खाते थे। फिर यह बदला क्यों

गाय का मसला हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए ध्रुवीकरण का औजार लंबे समय से रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस बात के साक्ष्य बहुत मजबूत है कि गाय खाई जाती थी। धर्मशास्त्रों-वैदिक साहित्य में इस बात का प्रचुर उल्लेख है कि यज्ञों में गाय-भैंस चढ़ाई जाती थीं। गौतम बुद्ध ने सुअर और गाय का मांस खाया। यह सब ऐतिहासिक तथ्य हैं, जिन्हें कोई नकारना चाहे तो भी नहीं नकार सकता। ये सब मैंने नहीं लिखा है, वेदों में है, श्लोकों में दर्ज है। यानी यह कहना कि हिंदू गाय का मांस नहीं खाते थे या खाते हैं, गलत है।

 

फिर यह कैसे बदला

कृषि के विकास के साथ इसमें तब्दीली आई। मवेशियों की रक्षा की जरूरत सामने आई। उसे मारने से बचने की बातें आईं। धीरे-धीरे धर्मशास्त्रों में इसका उल्लेख कम होता गया। फिर वैष्णव धर्म का प्रभाव बढ़ने के साथ-साथ शाकाहार का असर बढ़ा। लेकिन खाने वाले तब भी खाते थे। सबसे पहले 19वी सदी में आर्यसमाज के दयानंद सरस्वती ने गौ रक्षा का अभियान चलाया। एक मजेदार तथ्य सामने आया जिसमें 1872 में राजस्थान में सामाजिक समूह यह फैसला लेता है कि वह गाय का मांस नहीं खाएगा। यानी वहां गो मांस खाया जा रहा था, तभी तो वह यह फैसला लिया गया कि अब से नहीं खाएगा।

-उत्तर भारत में गाय की पवित्रता का बोध ज्यादा रहा जबकि दक्षिण भारत में इतना नहीं रहा। वहां अभी भी बड़े पैमाने में खाया जाता है। ऐसा क्यों

देखिए यह देश शुरू से एक राष्ट्र तो था नहीं। हर इलाके की अपनी खासियतें थी, अपना रहन-सहन और खानपान था। यह अपनी जरूरतों और उपलब्ध साधनों के हिसाब से तय होता था। कहां क्या सामाजिक आंदोलन रहा और उसका असर दूसरी जगह पर क्यों नहीं पड़ा यह अलग से शोध का विषय हो सकता है। पर एतिहासिक रूप से यह कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत, उत्तर पूर्व, बंगाल आदि में गाय का मांस खाया जाता रहा।

 

प्रतिबंधों में भारत की विदेशों में छवि खराब

देश भर में मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने वाली शख्सियत हैं कोलिन गोंसालविस। सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन से एक के बाद एक लगाए जा रहे प्रतिबंधों पर भाषा सिंह ने बात की, पेश से संक्षिप्त अंशः

प्रतिबंध का रास्ता क्यों अख्तियार कर रही है सरकार

यह लोकतंत्रातिक परंपराओं का ह्रास है। दरअसल, यह सर्वसत्तावादी शासन की निशानी है। जो भी उसकी इच्छा के अनुरूप न हो, उस पर प्रतिबंधित कर दो। सहिषुणता की समाप्ति हो रही है।

--लेकिन प्रतिबंध तो पिछली सरकारें भी लगाती रही हैं, इस बार नया क्या है

यह बात सही है कि सरकारें प्रतिबंध का रास्ता अख्तियार करती रही हैं। अब सरकार एक स्पष्ट एजेंडे के साथ पूरे आक्रामक अंदाज में विरोधी विचार को प्रतिबंधित करने की ओर बढ़ रही है। सरकार

नागरिकों के जीवन के हर क्षेत्र में घुसपैठ कर रही है। नैतिक पुलिस की भूमिका में यह बता रही है कि हमें क्या किताब पढ़नी चाहिए, क्या शब्द फिल्मों में इस्तेमाल करने चाहिए, क्या फिल्में देखनी चाहिए और हमारी थाली में क्या खाना होना चाहिए। राज्य की यह भूमिका सरासर लोकतंत्र विरोधी है।

 

क्या इन प्रतिबंधों को कानूनी चुनौती दी जा सकती है

हां, बिल्कुल दी जा सकती है। और दी भी जाएगी। जल्द ही ये तथ्य भी सामने आएगा कि लोगों में प्रतिबंधों की इस राजनीति को लेकर कितना आक्रोश है। गौ-हत्या को लेकर जो भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस लोहाटी का फैसला था वह बेहद खराब था। उसकी वजह से भी बहुत दिक्कतें आ रही हैं।

गौ-हत्या को लेकर महाराष्ट्र के अलावा भी कई राज्य कानून बना चुके हैं

लेकिन महाराष्ट्र का कानून सबसे खतरनाक है। यह गौ-मांस को रखने को भी अपराध बनाता है। दलित, मुसलमान, ईसाई आदिवासी गौ-मांस खाते हैं, बहुत से हिंदू खाते हैं। उनसे आप उनके खाने के अधिकार को कैसे छीन सकते हैं।

फिल्म से लेकर गौ-मांस पर प्रतिबंध से क्या भारत की छवि विदेशों में प्रभावित होगी

हो चुकी है। ये तमाम प्रतिबंध वाकई शर्मनाक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहां दावा कर रहे थे कि वह देश को आगे ले जाएंगे, ये सारे कदम देश को पीछे ले जाने वाले हैं। ये कदम शर्मनाक हैं।

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