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चमत्कारों की उम्मीद पर भारत महान

कविता की एक पंक्ति है- 'आशा पर टिका है आकाश।’ किसी आधार, स्तंभ, जड़ों का कोई निशान नहीं मिलता। दुनिया में महान भारत ही ऐसा राष्ट्र है, जहां करोड़ों लोग युगों-युगों से अच्छे दिन, अच्छे फल, उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ पूरी उम्मीद रखते हैं।
चमत्कारों की उम्मीद पर भारत महान

इसलिए 2017 के लिए ज्योतिष विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और कूटनीति के विशेषज्ञ जो भी आकलन करते हों, लाखों भारतीय जनवरी से चमत्कारिक परिणामों की आस संजोए हुए हैं। इस समय उन्हें किसी मूर्ति, साधु-संन्यासी अथवा परदेसी से नहीं दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणात्मक वायदों से बड़ी उम्मीद है। संपूर्ण देश को हिला देने वाली नोटबंदी के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं जनवरी में और फिर फरवरी के पहले सप्ताह में वित्त मंत्री अरुण जेटली किसी जादुई छड़ी से गरीब जनता को मालामाल कर देने के सपने दिखा चुके हैं। अब हम या कोई अन्य उनके वायदे को कैसे चुनौती दे सकते हैं? आस टूटने पर भी आकाश तो नीचे नहीं गिरने वाला है? सो, घोषणाओं की आस का आनंद लिया जाए।

यह अवश्य माना जाना चाहिए कि 2017 सचमुच ऐतिहासिक अध्याय बनाएगा। सात का अंक तो-1947, 1957, 1967, 1977, 1987, 1997, 2007 के साथ लगा हुआ था। 1947 में आजादी मिली। 1957 में जम्मू-कश्मीर में पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए और कश्मीर की लोकतांत्रिक यात्रा शुरू हुई। 1967 में नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद पहली बार कांगे्रस लोकसभा में थोड़ी कमजोर हुई और जल्द ही बुजुर्ग नेताओं की हठधर्मिता से विभाजन के रास्ते पर चल पड़ी। फिर बड़ी राजनीतिक सफलताओं, पाकिस्तान से युद्ध में 'दुर्गा’ की तरह विजयी एवं एकछत्र राज के बाद 1977 में इमरजेंसी की कालिख से कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई एवं जनता पार्टी का उदय हुआ। यह प्रयोग विफल होने से इंदिरा-राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस 1985 तक फिर शिखर पर पहुंची। लेकिन 1987 में ही अपने अरुण नेहरू और वी.पी. सिंह की बेवफाई एवं बोफोर्स तोप दलाली कांड उछलने से पतन की खिड़कियां खुल गईं। देर-सबेर मंडल-कमंडल राजनीति ने देश के विभिन्न वर्गों, समुदायों को ही बांट दिया। नरसिंह राव के राज में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बदली राजनीति ने पहले 13 दिन और फिर 1997 खत्म होने के तुरंत बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में बैठा दिया। हालांकि उनकी सरकार 13 महीने में ही गिर गई थी। फिर भी अटल जी ने हार नहीं मानी और 1999 में बड़े गठबंधन के साथ पुन: प्रधानमंत्री बनकर पांच साल राज किया। 'शाइनिंग इंडिया’ के नारे के बावजूद 2004 में भाजपा की सत्ता चली गई। इसीलिए 2007 फिर ऐतिहासिक बन गया। देश को श्रीमती प्रतिभा पाटिल के रूप में पहली महिला राष्ट्रपति मिली। तीन सौ वर्षों से लोकतंत्र का बाजा बजा रहे आधुनिकतम संपन्न अमेरिका में तो अब 2016 तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन पाई है। बहरहाल 2007 में ही भारत-अमेरिका के बीच ऐतिहासिक 12 समझौते हुए जिसने कम्युनिस्ट और कांग्रेस के गठबंधन ही नहीं तोड़े, भाजपा गठबंधन ने भी समझौते का विरोध किया। यह बात अलग है कि अब 2017 में वही भाजपा 'ट्रंप’ के अमेरिका से नए सामरिक-आर्थिक समझौते से बड़ी 'विजय’ की आशा कर रही है।

विजय पताका के लिए 2017 की राजनीतिक दौड़ उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभाओं के चुनाव से शुरू हो रही है। नोटबंदी ही नहीं भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की आने वाले वर्षों की राजनीति इस चुनाव परिणाम पर निर्भर होगी। यही नहीं अगले राष्ट्रपति पद पर 'परम’ लोकप्रिय कहे जाने वाले नरेन्द्र मोदी के पसंदीदा संघ के किसी अनुभवी नेता या भाजपा की महिला नेत्री अथवा कलाम की तरह रातोरात राष्ट्रपति बन सकने वाले गैर राजनीतिक व्यक्ति को कमान मिलेगी अथवा पर्याप्त संख्या बल न होने की स्थिति में भाजपा को राजनीतिक बैसाखियों के सहारे राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनने होंगे।

राजनीति में अब तक चमक रहे अखिलेश यादव, राहुल गांधी, सुखबीर सिंह बादल, अरविंद केजरीवाल जैसे युवा कहे जाने वाले नेताओं की भी अगले कुछ वर्षों की भूमिका तय होगी। उत्तर प्रदेश के बाद साल के अंत में गुजरात विधानसभा के चुनाव से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की राजनीतिक शक्ति का आकलन होगा। शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमण सिंह जैसे मुख्यमंत्रियों को अपनी सत्ता के अधिकाधिक लाभ पहुंचाते हुए अपना दामन बचाए रखने की परीक्षा भी होगी। भाजपा एवं अन्य राजनीतिक दलों में प्रभाव रखने वाले सरकार के दूसरे शक्तिसंपन्न वित्त मंत्री अरुण जेटली को नोटबंदी और बजट को लेकर बनी अपार संभावनाओं, अपेक्षाओं एवं आलोचना को संभालना है। नेहरू-इंदिरा राज के 'गरीबी हटाओ’ कार्यक्रमों से अधिक क्रांतिकारी आर्थिक कदमों की प्रधानमंत्री-वित्त मंत्री की दावेदारी के पत्ते 2017 में खुलेंगे। आखिरकार 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन से बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश, नए रोजगार के असाधारण अवसर एवं पूंजीपतियों के साथ दूरस्थ गांवों के भूमिहीन किसानों को बहुत कुछ देने के इरादे क्रांतिकारी ही कहे जा सकते हैं।

भारत ही नहीं 2017 पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। नवाज शरीफ को जनता के समर्थन से अधिक पाक सेना, षडयंत्रकारी गुप्तचर सेवा-आई.एस.आई., भस्मासुर की तरह संपूर्ण पाकिस्तान को जला देने वाले आतंकवादी संगठनों से निपटना है। चीन अपने हितों की दृष्टि से एक हद तक ही पाकिस्तान का साथ दे सकता है। अन्यथा अब 'अंकल ट्रंप’ और 'मास्टर पुतिन’ ही नहीं यूरोपीय नेता भी आतंकवाद से निपटने के लिए भारत का साथ दे सकते हैं। यह बात अलग है कि भारत भी अपने दूरगामी परणाणु हितों और खतरों को ध्यान में रखकर उनके मोहरे की तरह इस्तेमाल नहीं होना चाहेगा। युद्ध को टालते हुए कश्मीर समस्या के निदान का कोई रास्ता निकलने पर इतिहास में नया पन्ना जुड़ जाएगा। ट्रंप की अमेरिकी संरक्षणवाद की आक्रामक आर्थिक नीति से पूरी दुनिया प्रभावित होगी। ब्रिटेन के यूरोपीय समुदाय से अलग होने के निर्णय के क्रियान्वयन के अलावा इटली, फ्रांस, जर्मनी में भी उदारवादियों के बजाय कंजर्वेटिव एवं अति 'राष्ट्रवादियों’ का वर्चस्व होने पर यूरोप के साथ भारत एवं खाड़ी के देश भी प्रभावित होंगे। दुनिया को तबाह करने के घिनौने इरादे वाले आई.एस. से यूरोप, अमेरिका ही नहीं भारत को सुरक्षित रखने की चुनौती 2017 की है।

भारत की भोली-भाली जनता को आज भी मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर की भावनाओं से जोडक़र चलती रही राजनीति के लिए यह निर्णायक वर्ष है। अदालत से बाहर अयोध्या विवाद का हल हो और सहमति-असहमति के बीच समान नागरिक संहिता, हिंदुत्व पोषित राष्ट्रवाद के मुद्दों पर सामाजिक बदलाव के प्रयासों के दूरगामी परिणाम होंगे। दूसरी तरफ भारतीय सेना, गुप्तचर एजेंसियों के नए मुखियाओं की नई कार्यशैली राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेगी। सरकार और न्यायपालिका के बीच बना तनाव-टकराव निर्णायक दौर में पहुंचने वाला है। डिजिटल अर्थव्यवस्था के क्रांतिकारी कदमों की प्रतिक्रियाएं ही नहीं समस्याओं की नई चुनौतियां संभवत: दुनिया को सबक देने वाली हैं। कैशलेस अर्थव्यवस्था जैसा संकल्प दुनिया के किसी देश की सरकार नहीं ले पाई थी। इसी तरह दुनिया की सबसे विशाल रेल व्यवस्था को मुनाफे एवं निजीकरण की ओर ले जाने की पहल सुदूर पर्वतीय एवं आदिवासी अंचल के निर्धनतम परिवारों को नई सुविधा या नई कठिनाई में डालेगी। अमेरिका, यूरोप, जापान में निजी क्षेत्र की रेल व्यवस्था महंगी है क्‍योंकि वहां जन सामान्य का आर्थिक स्तर बेहतर है और उनके यहां सडक़ मार्ग के लिए पेट्रोल-तेल-गैस के मूल्य कई गुना कम हैं। विमान कंपनियों के साथ रेलवे को प्रतियोगी बनाए जाने पर सामान्य जन प्रभावित हुए बिना कैसे रहेगा? बहरहाल, भारतीय परंपरा, संस्कृति और इतिहास को ध्यान में रखकर हम भी चुनौतियों के साथ सफलता उपलद्ब्रिध का सुनहरा सूरज निकलने की उम्मीद ही जगाना चाहेंगे। 1947 से 2016 की संघर्ष यात्रा में बहुत अमृत-जहर निकला है। 2017 के मंथन से बहुत कुछ कड़वा-मीठा भी मिलेगा। आउटलुक परिवार की ओर से प्रिय सम्मानित पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।

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