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मनमोहन सिंह के मौन का अर्थ। आलोक मेहता

मनमोहन सिंह की ईमानदारी और भलमनसाहत पर कोई प्रश्न नहीं उठाया गया। यह तर्क भी दिया जाता है कि वह राजनीतिज्ञ ही नहीं हैं। उनके वित्त मंत्री रहते शेयर घोटाले जैसे आरोप आने पर सारा कीचड़ नरसिंह राव के सिर पर उलट दिया गया। 2004 से 2014 तक दस वर्ष प्रधानमंत्री रहते हुए सरकार पर घोटालों और भ्रष्टाचार के गंभीरतम आरोप लगे एवं कांग्रेस पतन के गर्त तक पहुंच गई।
मनमोहन सिंह के मौन का अर्थ। आलोक मेहता

फिर भी भाजपा या अन्य विरोधी दलों के आरोपों में इसी बात पर जोर दिया गया कि 'बेचारे मनमोहन सिंह तो कठपुतली की तरह काम कर रहे थे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की इच्छा एवं आदेशों का पालन कर रहे थे।’  लेकिन मनमोहन सिंह सचमुच इतने भोले, निरीह और दुनियादारी से अनजान रहे हैं? राजनीतिक दांव-पेच जाने और करे बिना क्या वह 1991 से आज तक राज्यसभा के सदस्य रहते हुए सत्ता का आनंद ले सकते थे? टू जी स्पेक्ट्रम, कोयला खान आवंटन घोटालों, हेलीकॉप्टर खरीदी में भ्रष्टाचार के आरोप आने पर क्या कभी उन्होंने दबावों के विरुद्ध और सामूहिक उत्तरदायित्व के नाते अपनी नाराजगी के साथ इस्तीफा देने की पेशकश की? हर बड़े फैसले के समय मंत्रिमंडल की बैठक में उन्होंने कभी कोई आपत्त‌ि क्यों नहीं व्यक्त की। यदि वह कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं और सलाहकारों से भयभीत थे तो प्रधानमंत्री के शक्तिशाली पद पर रहते हुए उन्होंने कभी कोई असहमति व्यक्त क्यों नहीं की? घोटालों से हटकर क्या उन्होंने पसंदीदा अधिकारियों को नियुक्त करने के अलावा आरोप लगने पर उन्हें संरक्षण नहीं दिया?

उनके सहयोगी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष अथवा पत्रकारों के समक्ष बंद कमरे में यह शिकायत क्यों करते थे कि कॉमनवेल्थ घोटाले में आरोपों से घिरे एक अधिकारी पर कार्रवाई की फाइल पर प्रधानमंत्री स्वीकृति देने को तैयार नहीं होते थे। एक मंत्री ने ऐसे मामले में स्वयं इस्तीफे तक की पेशकश की, लेकिन उनकी नहीं चली। हां, देर-सबेर उनका मंत्रालय ही बदल दिया गया। कोयला खान आवंटन में गड़बड़ी का एक मामला उनके कोयला मंत्री के कार्यकाल का भी है लेकिन इसके लिए वह कुछ अधिकारियों एवं राज्य मंत्री को जिम्मेदार बता रहे हैं। अपने मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के अफसरों और हस्ताक्षर की जाने वाली फाइलों तक की जानकारी क्या उन्हें नहीं रहती थी? यह बात तो किसी के गले नहीं उतर सकेगी।

भारतीय संस्कृति में युधिष्ठिर हों अथवा भीष्म पितामह, धर्मराज और प्रतिज्ञावान के रूप में महान कहलाने के बावजूद जुआ खेलने और महाभारत के युद्ध के लिए उनकी भागीदारी को क्या कम माना जाता है? उनके मौन को क्या कम अपराध माना गया? चौदह वर्षों के वनवास और चरणपादुका के साथ भरत के राजकाज संभालने के बावजूद संपूर्ण रामायण में 'राम राज्य’ का ही वरदान है। धर्म और तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्न कर वरदान के साथ श्रीलंका सहित संपूर्ण भूमंडल पर राज के आकांक्षी रावण राज के अत्याचारों के लिए उसे ही दोषी माना गया। विद्वान और शक्तिशाली होने मात्र से किसी के अपराधों की अनदेखी किसी युग में नहीं हुई।

दिलचस्प बात यह है कि मनमोहन सिंह और उनके समर्थक सलाहकार अपने दस वर्ष के कार्यकाल की आर्थिक सफलताओं को गौरव के साथ गिनाते हैं, लेकिन गड़बडिय़ों और घोटालों की गूंज होने पर मासूमियत से मौन हो जाते हैं? कई कांगे्रसी, समाजवादी और कम्युनिस्ट यह सवाल भी उठाते हैं कि प्रधानमंत्री रहते हुए भाजपा नेताओं के विरुद्ध गंभीर आरोप सामने रखने पर मनमोहन सिंह ने क्या कार्रवाई की? नेताओं के पूर्वाग्रह हो सकते हैं लेकिन एक अनौपचारिक मुलाकात में भाजपा के एक बड़े नेता से जुड़े घोटाले के आरोपों की बात आने पर मनमोहन सिंह ने स्वयं मुझसे कहा कि 'मैं इन लोगों से टकराव नहीं चाहता।’ उनकी उदारता अब रंग ला रही है। भाजपा किसी भी घोटाले में तत्कालीन प्रधानमंत्री का नाम नहीं ले रही। केवल गांधी परिवार पर हमला कर रही है। यों कांग्रेस के प्रवक्ता मनमोहन सिंह और ए.के. एंटनी की ईमानदारी का दावा करते हुए हेलीकॉप्टर घोटाले में अपनी सरकार का दामन बेदाग बता रहे हैं। लेकिन मनमोहन सिंह क्यों मौन हैं? सारे पुण्य के साथ सत्ता के किसी पाप के छींटों को स्वीकारने से उन्हें परहेज क्यों है? यदि वह महानता का चोंगा पहने रहना चाहते हैं तो अपने सत्ता काल में गड़बड़ी करने या जबरन फैसले करवाने वालों का भंडाफोड़ करने का साहस क्यों नहीं जुटा सकते हैं?

 

 

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