सिद्धू इस समय किसी पार्टी और प्रदेश से चुनकर राज्यसभा के सदस्य नहीं बने थे। सिद्धू को केवल तीन महीने पहले भाजपा सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा में नामजद किया था। उन्होंने बाकायदा सदस्यता की शपथ ली। सिद्धू के इस्तीफे से भाजपा को राजनीतिक हानि अथवा आम आदमी पार्टी को लाभ होना उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना राज्यसभा की नामजदगी की परंपरा में धीरे-धीरे पतन की पराकाष्ठा दर्शाता है। राज्यसभा में 12 सदस्यों की नामजदगी देश के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण श्रेष्ठतम सेवाएं देने के आधार पर होती है। पिछले 50 वर्षों के दौरान अधिकांश सदस्यों का नामांकन इसी आधार पर हुआ और भारतीय संसद गौरवान्वित हुई। एक अपवाद नरसिंह राव सरकार के समय हुआ था, जबकि एक विवादास्पद कांग्रेसी नेता के नाम की सिफारिश की गई। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने पहले इस सिफारिश की फाइल सरकार को लौटा दी। लेकिन राव सरकार ने पुनः यह फाइल राष्ट्रपति के पास भेज दी और संवैधानिक मजबूरियों के कारण उस सिफारिश को स्वीकार करना पड़ा। वह सदस्य 6 वर्ष इस श्रेणी में सांसद रहने के बाद अन्य पार्टियों में शामिल होकर चुनकर आते रहे। मतलब दलबदल का खेल चलता रहा। इसके बाद ऐसे दलबदलू नामजद नहीं हुए। हां, सत्तारूढ़ दलों ने हर बार एक-दो राजनीतिज्ञों को नामजद करना शुरू कर दिया। सिद्धू भाजपा प्रतिनिधि के रूप में दो बार लोकसभा में चुनकर आए थे। 2014 में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। इससे नाराज होकर सिद्धू चुनाव के प्रमुख उम्मीदवार अरुण जेटली के प्रचार अभियान में शामिल नहीं हुए। जेटली पराजित हुए। अब पंजाब विधानसभा के आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर सिद्धू को खुश करने के लिए भाजपा सरकार ने उन्हें राज्यसभा में नामजद कर दिया। सिद्धू को पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन पर लगातार आपत्ति थी। इसलिए तीन महीने पहले भी उन्हें मालूम था कि यह गठबंधन जारी है और रहेगा। यही नहीं नामजद करने वाली केंद्र सरकार में अकाली मंत्री शामिल हैं। वह चाहते तो इस नामजदगी को स्वीकार नहीं करते। लेकिन उन्होंने उचित समय का इंतजार किया। वह नामजदगी से पहले भी पर्दे के पीछे आम आदमी पार्टी के नेताओं के संपर्क में रहकर राजनीतिक तैयारी कर रहे थे। सवाल यह भी है कि सांसद रहते हुए उन्होंने 12 वर्षों के दौरान पंजाब के लिए बहुत बड़े काम नहीं किए। यही नहीं टी.वी. चैनलों पर वह मसखरे और फूहड़ डांसर के रूप में दर्शकों का मनोरंजन करते रहे। चैनल बदलने की तरह उन्होंने राजनीति में पाला बदलने के साथ राज्यसभा की गरिमा को भी चोट पहुंचाई। उम्मीद करना चाहिए कि सत्तारूढ़ सरकारें भविष्य में ऐसी नामजदगी से बचेंगी।
संसदीय गरिमा से खिलवाड़
क्रिकेटर-नेता-मनोरंजन टी.वी. चैनलों के मसखरे नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा से इस्तीफा भाजपा से अधिक भारतीय संसद की गरिमा के साथ खिलवाड़ माना जाना चाहिए।
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