लॉकडाउन का तीसरा चरण शुरू हो गया है। लेकिन राहत मिलने की जगह स्थिति और बिगड़ती दिख रही है। इस बात की गवाही मई में आ रहे संक्रमण के मामलों से मिल रही है। असल में पिछले दो दिनों से कोरोने संक्रमण के हर रोज 2,500 से ज्यादा मामले आ रहे हैं। वहीं एक मई को भी 2,300 से ज्यादा मामले सामने आए थे। जबकि अप्रैल के पहले 15 दिन में हर रोज 300 से लेकर 1,000 संक्रमण के ही मामले सामने आए थे। साफ है कि पिछले 15 दिन में हर रोज संक्रमण के मामले दो गुने हो गए हैं। जाहिर 40 दिन के लॉकडाउन के बाद भी स्थिति संतोषजनक नहीं दिख रही है। जबकि सरकार यह दावा कर रही है कि दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत की स्थिति काफी बेहतर दिख है।
टेस्टिंग के तरीके पर सवाल
भारत में शुरू से टेस्टिंग के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल यह है कि 130 करोड़ की आबादी के मुकाबले भारत में काफी कम टेस्टिंग हो रही है। दूसरा टेस्टिंग ज्यादातर उन्हीं लोग की हो रही है, जिनमें कोई लक्षण पाया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद रेड जोन इलाकों में हेल्थ वर्कर जाकर रैपिड टेस्टिंग नहीं कर रहे हैं, वह लोगों से पूछ रहे हैं कि आपके घर में कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं है, जिसे सर्दी-जुखाम के लक्षण है, अगर कोई ऐसा व्यक्ति है तो हमें बताएं, उसकी हम जांच करेंगे। जबकि आईसीएमआर की रिपोर्ट यह दावा करती है कि देश में 80 फीसदी संक्रमित ऐसे हैं, जिनमें कोरोना के कोई लक्षण नहीं पाए गए हैं। साफ है कि ऐसे में बहुत से लोगों की टेस्टिंग नहीं हो पा रही है। जबकि बिना लक्षण वाले मामले बढ़ने पर, खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी चिंता जता चुके हैं।
सर गंगाराम अस्पताल के सीनियर कंसल्टेंट डॉ धीरेन गुप्ता का कहना है कि भारत में टेस्टिंग बहुत कम हो रही है। असल में बिना लक्षण वाले मरीजों की पहचान बहुत जरूरी है। अभी क्या हो रहा है कि किसी गली में एक संक्रमित पाया जा रहा है, तो पूरी गली को सील कर दिया जा रहा है। जरूरत वहां के अधिकतर लोगों की टेस्टिंग करने की है। क्योंकि भारत में घरों में भी जिस तरह लोग रहने को मजबूर हैं, ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग आसान नहीं है।
खतरा नहीं घटा
भारत में 13 मार्च से बड़े पैमाने पर टेस्टिंग होनी शुरू हुई है। कोविड-19 डॉट ओआरजी की रिपोर्ट के अनुसार जब 24 मार्च को लॉकडाउन के पहले चरण का ऐलान किया गया था, उस वक्त 22,694 लोगों को टेस्टिंग हुई थी, उसमें से 2.54 फीसदी यानी 571 लोग संक्रमित पाए गए थे। इसी तरह 15 अप्रैल को जब लॉकडाउन का पहला चरण खत्म हुआ तो उस वक्त 2,44,893 लोगों की टेस्टिंग हुई थी। उसमें से 4.68 फीसदी यानी 22,694 लोग संक्रमित पाए गए। जबकि दूसरा चरण 3 मई को खत्म होने पर 42,546 लोग यानी 4.06 फीसदी लोग संक्रमित पाए गए। साफ है कि 40 दिनों के लॉकडाउन के बावजूद संक्रमण की दर घटी नही है।
प्रति 10 लाख आबादी पर केवल 802 की टेस्टिंग
भारत दुनिया के उन 10 देशों में शामिल हो गया है, जहां पर 10 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की गई है। 4 मई की दोपहर तक वर्ल्डमीटर डॉट ओआरजी के अनुसार भारत में 11 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की जा चुकी है। वहीं अमेरिका में 71 लाख, रूस में 43 लाख, जर्मनी में 25 लाख और इटली में 21 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की गई है। लेकिन चिंता की बात यह है कि प्रति 10 लाख आबादी पर टेस्टिंग की संख्या भारत में पाकिस्तान से भी कम है। भारत में जहां यह 802 है, वहीं पाकिस्तान में 962 है। इस पैमाने पर भारत काफी निचले पायदान पर है। जबकि अमेरिका में प्रति 10 लाख आबादी पर 21,742, स्पेन में 41,332 , इटली में 35,622, जर्मनी में 30,600, ईरान में 6,000 है। इसी डर को प्लमोलॉजिस्ट डॉ प्रशांत गुप्ता भी उठा रहे हैं। उनका कहना है कि कम संख्या में टेस्टिंग का सीधा मतलब है कि संक्रमण के वास्तिवक मामले सामने नहीं आएंगे। उपर से बिना लक्षण वाले मरीजों का अलग खतरा है।
दुनिया में सबसे सख्त लॉकडाउन
विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट कौशिक बसु का भी कहना है कि भारत में इस समय दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन है। ऐसे में, यह स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रखी जा सकती है, क्योंकि इसका अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा असर पड़ रहा है। और भारत भी नहीं चाहेगा कि वह इस स्थिति मे ज्यादा दिन रहे। जाहिर है, जिस नुकसान की बात बसु कर रहे हैं, उससे भारत सरकार भी अनजान नहीं होगी। ऐसे में अगर लॉकडाउन होने के बावजूद संक्रमण के मामलों में कमी नहीं आई, तो भारत को नए रास्ते की तलाश करनी होगी।