- रिषभ
आगे बढ़ने से पहले 'द त्रिपुरा स्टोरी' का 'पहला पार्ट' यहां पढ़ेंः
अकबर के समय का एक विकसित राज्य, कैसे बन गया हिंसा और अलगाववाद का गढ़?
1978 में जब कम्युनिस्ट त्रिपुरा में सत्ता में आये तो उनके राज्य के सबसे बड़े नेता बिरेन दत्ता ने पार्टी आलाकमान से कहा कि ट्राइबल नेता दशरथ देब को मुख्यमंत्री बना दिया जाये क्योंकि ये सही मौका था ट्राइब्स को विश्वास में लेने का। राजाओं, अंग्रेजों और सरकार से ट्राइबल्स इतने त्रस्त थे कि दशरथ को राजा कहा जाता था पर कम्युनिस्ट पार्टी ने नृपेन चक्रवर्ती को मुख्यमंत्री चुना। इनको ट्राइब्स रिफ्यूजी सीएम कहते थे। कहते हैं कि दशरथ को सीएम ना बनाना बहुत बड़ी गलती थी।
नृपेन चक्रवर्ती
पहचान के लिए संघर्ष
यही नहीं बाद में कांग्रेस की जो सरकारें आईं उन्होंने रिफ्यूजी समस्या को रोकने की कोशिश नहीं की बल्कि जो जगहें ट्राइब्स के लिए सुरक्षित रखी गई थीं, उनको भी बांट दिया और उसी दौर में पहली बार 'अमरा बंगाली' यानी कि हम बंगाली हैं का नारा भी त्रिपुरा में गूंजा। अब पहचान के लिए संघर्ष दोनों तरफ से होने लगा था।
इसी बीच कुछ बहके हुए लोगों ने 'त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स' नाम से एक मिलिटैंट ग्रुप बना लिया। ये लोग हिंसा में यकीन रखते थे। वहीं बंगालियों का 'आमरा बंगाली' ग्रुप भी बन गया। दोनों के बीच खूनी संघर्ष होने लगा।
1980 के मांडई नरसंहार के बाद लाखों लोग विस्थापित हुए थे। 1980 के बाद सैकड़ों लोग, फॉरेस्ट अफसर और सैनिक सब मारे गये। कहा जाने लगा कि त्रिपुरा नेशनल वालंटिय़र्स को पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों से मदद मिल रही है। इन लोगों ने पुलिस स्टेशन लूटना भी शुरू कर दिया था। मांग यही थी कि 1949 के बाद आए सारे रिफ्यूजियों को यहां से भगाया जाये।
कांग्रेस की सरकार बनी
नतीजा यही हुआ कि कम्युनिस्ट सरकार 1978 से 1988 तक चल पाई। 1988 में कांग्रेस की सरकार बनी। त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स ने इनके साथ समझौता कर लिया। हिंसा रोक दी और विधान परिषद में ट्राइब्स के लिए सुरक्षित सीटें 17 से बढ़कर 20 हो गईं। पर बाकी मांगें पूरी नहीं हुईं। ना ही किसी को वापस भेजा गया, ना ही ट्राइबल्स का एरिया बढ़ाया गया। इससे निराशा और गुस्सा अंदर ही अंदर पनपता रहा।
मानिक सरकार का सीएम बनना
1990 में एक नया ग्रुप बना। ऑल त्रिपुरा ट्राइबल फोर्स। इन लोगों ने नये सिरे से मांग रखनी शुरू की। नतीजन 1993 में कांग्रेस चुनाव हारी और कम्युनिस्ट फिर सत्ता में वापस आये। इस बार गलती सही करने की कोशिश की गई और दशरथ देब को सीएम बना दिया गया। ऑल इंडिया ट्राइबल फोर्स ने सरेंडर भी कर दिया पर मांगें वही रखीं। इसके साथ ही एक नये ग्रुप ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स का गठन हो गया, जो किसी समझौते से संतुष्ट नहीं थे। इसी बीच और भी संगठन बने। ये स्थिति 2000 तक चलती रही। 1998 में दशरथ देब ने सीएम बनने से इंकार कर दिया और मानिक सरकार त्रिपुरा के सीएम बने। तब से वही हैं। उनकी सादगी के चर्चे होते हैं पर सादगी से समस्यायें हल नहीं हुई हैं।
मानिक सरकार
IPFT और TRUGP
1996 में त्रिपुरा में एक नई पार्टी बनी। Indigenous People’s Front of Tripura (IPFT)। इसको रिबेल ग्रुप नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा का समर्थन था। ये ग्रुप त्रिपुरी नाम का अलग राज्य चाहता था। साल 2000 में त्रिपुरा ट्राइबल एरियाज ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के चुनाव हुए और इसमें IPFT जीत गई। इन लोगों ने TRUGP को हरा दिया। ये काउंसिल उसी छठें शेड्यूल के क्षेत्र थे जिन पर ट्राइब्स के मुताबिक कुछ कानून बनते हैं। इन पर राज्य सरकार का न्यूनतम दखल होता है। अगले साल इन लोगों ने त्रिपुरा की पहली ट्राइबल पार्टी त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति से हाथ मिला लिया।
अलग राज्य की मांग करते IPFT के लोग
पहली बार कांग्रेस के अलावा कोई पार्टी मिली जो कम्युनिस्ट पार्टी को टक्कर दे सकती थी। इनको ट्राइबल नेशनल वालंटियर्स का भी समर्थन मिल गया। इन तीनों ने मिलाकर इंडिजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्विप्रा बना लिया पर ये पार्टी 2003 और 2008 के विधानसभा चुनावों में जीत नहीं पाई। जबकि कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ी थी। इन पर नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा से मिलने का आरोप था, जिससे बंगाली वोट कट गये फिर ये पार्टी दो भागों में टूट गई। दोनों ही भागों का राजनीतिक अस्तित्व कमजोर हो गया।
IPFT का प्रभाव
2018 के चुनावों के लिए IPFT फिर से तैयार हो गई है। नये किस्म का जोश उबल रहा है। विधानसभा की 60 में से 20 सीटें सुरक्षित हैं ही। 30 प्रतिशत की आबादी है ट्राइब्स की। गौर करने लायक बात है कि 1875 में ट्राइब्स यहां पर 63 प्रतिशत और 1951 में 37 प्रतिशत थे।
पिछले दो सालों में भाजपा सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी को टक्कर दे रही है क्योंकि IPFT ट्राइबल क्षेत्रों में TRUGP को टक्कर दे सकती है। कहा जा रहा है कि पिछले काउंसिल चुनावों में भाजपा ने IPFT का समर्थन किया था पर दिक्कत ये है कि कब मांग होने लगे त्विप्रालैंड की जो कि त्रिपुरा का 70 प्रतिशत हिस्सा है। अभी कम्युनिस्ट पार्टी को 60 में से 50 सीटें हासिल हैं। IPFT ही प्रदर्शन कर रही थी जब बुधवार को पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या हो गई। IPFT की झड़प TRUGP से भी होती रहती है, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के नजदीक बतायी जाती है।
पत्रकार शांतनु भौमिक, जिसकी हत्या कर दी गई
त्रिपुरा में भाजपा
1995 में आरएसएस ने त्रिपुरा में 650 शाखायें खोली थीं। अब वो संख्या हजारों में है। संघ अपना एकल विद्यालय तो चलाता ही है। इनकी संख्या भी हजारों में है। 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मात्र 1.54 प्रतिशत वोट मिले थे। 50 सीटों पर भाजपा लड़ी थी पर 49 में जमानत जब्त हो गई थी। हालांकि असम और मणिपुर में अचानक सत्ता में आ जाने से भाजपा का आत्मविश्वास तो बढ़ा ही है। त्रिपुरा बीजेपी के प्रेसिडेंट कह रहे हैं कि कांग्रेस तो साइनबोर्ड की तरह है। वोट नहीं हैं अब उनके पास पर 2013 में कांग्रेस ने 36 प्रतिशत वोट पाए थे। बची 10 सीटें भी उन्हीं की हैं। अमित शाह दो तीन बार त्रिपुरा का चक्कर लगा चुके हैं। अगर हाल के चुनावी नतीजे देखें तो शाह का कहीं जाना खाली हाथ नहीं होता है।