रक्षा सौदा तय होने के बाद विमान, जहाज या पनडुब्बी या तोप भी एक साथ नहीं मिलती। उत्पादक देश आर्डर मिलने के बाद निर्माण कार्य शुरू करते हैं और समझौते में तय अवधि में पहुंचाते हैं। कुछ मामलों में देरी होने पर खर्च कई गुना बढ़ जाता है। लेकिन असली समस्या हर सौदे के प्रतियोगी देशों की जोड़-तोड़, भ्रष्टाचार के प्रयास और फिर उनके भंडाफोड़ से सौदों को रद्द करवाने की रही है। भारत सरकार ने स्कॉर्पीन पनडुब्बी की फ्रेंच निर्माता कंपनी डीसीएनएस को आस्ट्रेलिया में पनडुब्बी की गोपनीय जानकारियां लीक होने की जांच जल्द कराने का आग्रह किया है। लगभग 22 हजार पन्नों के दस्तावेज लीक होना साधारण चोरी-डकैती और अपराध नहीं है। इन दस्तावेजों से रूसी एंफीबियस शिप और ब्राजीली जहाजी बेड़े की गुप्त जानकारियां लीक हुई हैं। भारत ने फ्रांस से छः स्कार्पीन पनडुब्बी लेने का समझौता किया है, जिसमें से अब तक एक पनडुब्बी हमें मिल पाई है। भारत ने इंदिरा गांधी के सत्ताकाल में सबसे पहले जर्मनी से छः एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी टाइप-209 खरीदने का समझौता किया था। दो पनडुब्बियां जर्मनी में निर्मित होनी थी और उसी टेक्नालॉजी से चार भारत में बननी थी। लेकिन कुछ साल बाद ही नब्बे के दशक में इस सौदे में किसी व्यक्ति द्वारा दलाली लिए जाने का आरोप लगने पर सौदा रद्द कर दिया गया तथा भारत में पनडुब्बियों का निर्माण ही नहीं हुआ। दुर्भाग्य यह भी रहा है कि आजादी के 70 वर्षों बाद भी भारत में आधुनिक रक्षा संसाधन निर्माण की दिशा में प्रगति नहीं हो सकी। दूसरी तरफ चीन 1960 के दशक से पनडुब्बियों का निर्माण करता रहा है और चीनी टेक्नालॉजी और अप्रत्यक्ष रूप से ही सही अमेरिका से रक्षा क्षेत्र के लिए अरबों रुपयों की सहायता से पाकिस्तान 2002 से पनडुब्बियों के निर्माण में सक्षम हो गया है। पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान भारतीय नौ सेना के जहाज या पनडुब्बी में आग लगने की घटनाएं भी हुई हैं। वायु सेना के लिए जगजीवन राम के रक्षा मंत्री काल के मिराज विमान सौदे से लेकर मिग या अन्य लड़ाकू विमानों के समझौतों पर भ्रष्टाचार का जहरीला दंश लगने से देरी होती रही है। बोफोर्स तोपों का सौदा वर्षों की खींचातानी के बाद हुआ था और भ्रष्टाचार का आरोप लगने पर स्वीडिश कंपनी से नए सौदे रुक गए थे। भारत के राजनीतिक दलों को संसद में रक्षा क्षेत्र के समझौतों पर विस्तार से चर्चा कर व्यापक सहमति बनानी होगी। विदेशी ताकतें अपने स्वार्थों के लिए भारत के रक्षा तंत्र को कमजोर रखने का प्रयास करती रहेंगी। ऐसी स्थिति में रक्षा मंत्रालय पर संसद में नियमित चर्चा, एक सीमा तक सौदों पर पारदर्शिता तथा दूरगामी राष्ट्रीय रक्षा हितों को ध्यान में रखकर समझौतों के लिए स्वीकृति दी जानी चाहिए। निश्चित रूप से भ्रष्टाचार और जासूसी पर कड़ी निगरानी एवं कार्रवाई की जाए।
रक्षा तंत्र पर जासूसी दंश
यह पहला अवसर नहीं है। भारत की आधुनिक पनडुब्बियों, वायुसेना के विमानों-हेलीकाप्टर, थल सेना के लिए बोफोर्स जैसी तोपों की खरीदी के सौदों पर अंतरराष्ट्रीय जासूसी दांत गड़ते रहे हैं। वैसे भी भारत के सरकारी-प्रशासनिक तंत्र में रक्षा क्षेत्र की बड़ी खरीदी की प्रक्रिया में दो-चार नहीं दस वर्ष तक लगते रहे हैं।
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