“भारत का फोकस पारंपरिक युद्ध की तैयारियों पर, जबकि चीन की तकनीकी युद्ध की तैयारियां बड़ी”
यूं तो पड़ोसी देशों के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लहजा अक्सर धमकी भरा और जोशीला होता है, लेकिन 15 जून की रात लद्दाख की गलवन घाटी में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के हाथों भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद उनका बयान काफी नरम और संयमित था। उन्होंने कहा, “भारत शांति चाहता है, लेकिन अगर हमें उकसाया गया तो हमारे पास माकूल जवाब देने की भी ताकत है।” हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि वे उकसावा किसे मानते हैं।
पीएलए ने सुनियोजित षड्यंत्र करके लोहे की छड़ों, पत्थरों और कील लगे पाइपों से हमला करके निहत्थे भारतीय सैनिकों पर वार किया। भारत जिसे 1993 से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) मानता रहा है, उसे पार करके, बिना किसी विरोध का सामना किए पीएलए ने स्थायी ढांचे बना लिए और कथित तौर पर भारत के 60 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उसने अब तक अविवादित रही गलवन घाटी की सभी महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्जा कर लिया, जहां से भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण 225 किलोमीटर लंबी दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (डीएसडीबीओ) मार्ग पर नजर रखी जा सकती है। सियाचिन में पाकिस्तान और उत्तरी सब-सेक्टर में पीएलए से युद्ध की आशंका वाले दोहरे मोर्चे, उत्तरी लद्दाख में सैन्य साजो-सामान पहुंचाने के लिए भारत के पास यह एकमात्र बारहमासी मार्ग है। चीन ने 7 नवंबर, 1959 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने अपने प्रधानमंत्री चाऊ उन लाई के दावे का हवाला देकर 1993, 1996, 2005, 2012 और 2013 में हुए द्विपक्षीय समझौतों को एकतरफा तौर पर खारिज कर दिया। उसने भारत से डीएसडीबीओ को जोड़ने वाली फीडर रोड का निर्माण रोकने की मांग की। भारत के साथ युद्ध के लिए जिम्मेदार वेस्टर्न थिएटर कमान (डब्ल्यूटीसी) ने भारतीय सेना को चेतावनी देते हुए बयान जारी किए कि वह पीएलए को उकसाना बंद करे। उसने यह सब इसलिए किया क्योंकि उसे वह बात पता है जो भारतीयों को नहीं मालूम कि भारतीय सेना किसी भी संभावित कार्रवाई के लिए तैयार नहीं थी।
तीस साल तक भारत गलत शत्रु (पाकिस्तान) के खिलाफ गलत युद्ध (आतंकवाद विरोधी अभियान) लड़ रहा था। इस दौरान हमारे जनरल वास्तविक खतरों (पीएलए या भारत के खिलाफ पीएलए और पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर लड़ने) से बेखबर रहे। वे वास्तविक युद्ध (पीएलए का एल्गोरिदम युद्ध जिसे लेकर अमेरिका का पेंटागन भी चिंतित है) से भी बेखबर रहे। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत की अगुआई में हमारे जनरलों को लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध की तुलना में विकसित हथियारों के दम पर वे दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ सकते हैं। टैंकों और तोपों के साथ सैनिकों को ऊंचाई वाले इलाकों में तैनात कर पीएलए की कमजोर जगहों पर हमला किया जा सकता है और उनकी आवाजाही अवरुद्ध की जा सकती है। भारतीय जनरलों का दावा है कि 1962 को दोहराया नहीं जा सकता। दुर्भाग्यवश जहां भारतीय जनरल 58 साल पुराने युद्ध को बेहतर तरीके से लड़ने पर फोकस कर रहे हैं, वहीं पीएलए दो कदम आगे बढ़ चुका है। उसने डिसरप्टिव टेक्नोलॉजी के दम पर नेटवर्क पर हमला करने और एल्गोरिदम लड़ाई की क्षमता हासिल कर ली है।
आज पीएलए के पास तीन वर्चुअल युद्ध क्षेत्र- साइबर, अंतरिक्ष और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक में लड़ने की क्षमता है। एक भी गोली चलने से पहले वह युद्ध समाप्त कर सकता है। यह पारंपरिक युद्ध की तरह किसी क्षेत्र-विशेष में सीमित न रह कर पूरे देश को प्रभावित कर सकता है। वह विद्युत, रक्षा और संचार के ज्यादातर ग्रिड को नष्ट करके भारत को घुटनों के बल ला सकता है। वह उपग्रहों को उनकी कक्षा से हटा सकता है और रडार को भी खामोश कर सकता है। पीएलए की रॉकेट फोर्स की मिसाइल की क्षमता के क्या कहने, जिसे लेकर अमेरिका भी चिंतित है। और यह सब वास्तविक है।
भारत युद्ध कौशल या तात्कालिक नतीजों पर ध्यान देता है, जबकि चीन का ध्यान युद्ध या बड़ी योजनाओं पर होता है। वह दीर्घकालिक रुझानों का विश्लेषण करता है और ऑपरेशनल बिंदुओं का अलग परीक्षण करता है। युद्ध कौशल तभी मायने रखता है, जब उससे दीर्घकालिक योजनाओं में मदद मिल रही हो। उदाहरण के लिए, 2017 में डोकलाम संकट के समय भारतीय सेना ने रणनीतिक मैदान तो मार लिया लेकिन युद्ध जीता चीन ने। पीएलए ने उन स्थानों पर टकराव शुरू किया, जहां वह जीत नहीं सकता है। उसने भारत को बड़े पैमाने पर सेना और साजो-सामान लाने के लिए उकसा दिया ताकि उसे तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में बड़ी संख्या में अपनी सेना तैनात करने (उकसावा दिखाए बगैर) का आधार मिल सके। भारत की सेना विजयी के तौर पर वापस लौट आई, जबकि पीएलए ने 2018 के मुकाबले 2020 में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाकर दो लाख कर दी। उसने वहां बेहतरीन सैन्य ठिकाना बना लिया और इकोसिस्टम विकसित कर लिया। उसने ऊंचाई वाले दुर्गम क्षेत्रों में अपने हथियारों की सटीक मारक क्षमता सुनिश्चित करने के लिए असली फायरिंग के साथ युद्ध अभ्यास शुरू कर दिए। भारतीय सेना को इस सीमा पर पहुंचने के लिए 15-20 दिन चाहिए, जबकि चीन की सेना वहां पहले से तैनात है। ब्रह्मपुत्र के दक्षिण में स्थित भारतीय सेना के ठिकाने और सैन्य तंत्र को पीएलए की रॉकेट फोर्स की मिसाइलें आसानी से निशाने पर ले सकती हैं। तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में इसके प्रशिक्षित सैनिक स्थायी रूप से बैठ गए हैं। अप्रैल के मध्य से अब तक उत्तर सिक्किम से लेकर पूर्वी लद्दाख तक 100 किलोमीटर से ज्यादा के क्षेत्र में चीनी सैनिक आसानी से जब-तब घुसपैठ करते रहे। ऐसा वे आगे भी आसानी से कर सकते हैं।
डोकलाम की तरह इस बार भी हमारी सेना ने उचित ठिकानों, युद्ध सामग्री, इकोसिस्टम और प्रशिक्षण के बिना ही सैनिकों को भेज दिया। इन हालात में सैनिक वहां लंबे समय तक नहीं रह सकते। आत्मरक्षा वाले हथियारों के साथ सीमा गश्ती दल को एक कट्टर शत्रु के सामने महज पुलिसिया ड्यूटी में लगा दिया गया, जो चुपचाप बैठे रहने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। अगर भारतीय और चीनी सैनिकों का आमना-सामना जारी रहा तो चीन तीन वजहों से जीत सकता है। पहला, पाकिस्तान भारत के खिलाफ छद्म युद्ध तेज कर सकता है और नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर फायरिंग बढ़ा सकता है। दूसरा, अमेरिका यह सोच सकता है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र की अपनी रणनीति में उसने गलत घोड़े पर तो दांव नहीं लगा दिया। तीसरा, रूस और चीन के समर्थन वाली एशिया-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति तथा अमेरिका के नेतृत्व में भारत-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति के बीच संतुलन रखने के बजाय, मोदी अमेरिकी नेतृत्व वाली रणनीति की तरफ झुक सकते हैं।
सीमा पर भारत अपना जो इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत कर रहा है, क्या वही पीएलए का लक्ष्य था? नहीं। गलवन घाटी की घटना को छोड़ दें, तो ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र हथियाने की चीन की यही रणनीति रही है। अगर जनरल रावत एल्गोरिदम युद्ध की बुनियादी बातें जान लें, तो उन्हें एहसास होगा कि चीन के नए तरह के युद्ध के लिए सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण निरर्थक है। मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत कम ऊंचाई वाले सीमाई क्षेत्र में खतरों से निपटने में पड़ती है, जबकि गलवन में ऐसा नहीं है। आज इन्फ्राट्रक्चर के साथ-साथ बड़ी संख्या में सैनिकों के लिए एक भरोसेमंद ईकोसिस्टम की जरूरत है जो पीएलए के दबाव का सामना कर सके। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जब सिर्फ उकसावे भर से चीन का लक्ष्य हासिल हो रहा है, तो वह युद्ध में नहीं जाएगा। भारतीय सेना को इस बात का अंदाजा नहीं है कि आज से 15 साल बाद पीएलए किस तरह की लड़ाई लड़ेगी- एक जगह बैठे, बिना किसी को छुए और बिना किसी सैनिक के।
चीन को क्या चाहिए? दो बातें, आपसी सहमति और सहयोग। चीन का मानना है कि जो आपसी सहमति 1993 से वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर सभी शांति समझौतों का आधार रही और जो सहयोग वुहान समझौते का आधार था, मोदी सरकार ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया है। बीजिंग को लगता है कि दूसरी बार ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 2020 में उसके प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अख्तियार कर लिया है। भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ सीधे बात करने के बजाय मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप समेत दूसरे वैश्विक नेताओं के साथ चर्चा करना उचित समझा। यही नहीं, मोदी ने क्वाड (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का अनौपचारिक समूह) की सबसे कमजोर कड़ी ऑस्ट्रेलिया के साथ भी भारत के संबंधों को मजबूत बनाने की कोशिश की। अब चीन चाहता है कि रक्षा और विदेश मामलों में मंत्रिस्तरीय ‘टू प्लस टू’ वार्ता के जरिए द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाया जाए। मैं यह बात इसलिए जानता हूं, क्योंकि बीजिंग में सत्ता के करीबी एक जाने-माने विद्वान ने मुझसे यह बात कही।
कहा जा सकता है कि चीन के इस रवैए की एक और वजह जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाना और राज्य को दो हिस्से में बांटकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश में बदलना है। बीजिंग का कहना है कि नए मानचित्र में अक्साई चिन को भारतीय क्षेत्र का हिस्सा दिखा कर यथास्थिति बदलने की कोशिश की गई और यह भारत के विस्तारवादी रवैए को दर्शाता है। आपसी रिश्तों को दोबारा पटरी पर लाने के लिए चीन नए सिरे से और अर्थपूर्ण वार्ता चाहता है। तब तक जमीनी स्तर पर परिस्थितियां ज्यादा बदलने की उम्मीद नहीं है। 2013 में डेपसांग, 2014 में चुमार और 2017 में डोकलाम विवाद निपटाने के लिए जो व्यवस्था अपनाई गई थी, वह इस बार कारगर नहीं होगी। खतरे की गंभीरता को देखते हुए शायद राजनीतिक और सैन्य स्तर पर नए सिरे से बातचीत की जरूरत पड़े।
(लेखक फोर्स पत्रिका के संपादक और ‘ड्रैगन ऑन आवर डोरस्टेप’ किताब के सह-लेखक हैं, लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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भारत के ज्यादातर विद्युत, रक्षा और संचार ग्रिड को चीन नष्ट कर सकता है, उपग्रहों को उनकी कक्षा से हटा सकता है और यहां तक कि रडार को भी खामोश कर सकता है