पार्टी की सेवा के बाद राजभवन की सुख-सुविधा के लिए बुजुर्ग नेता राज्यपाल पद की शोभा बढ़ाते हैं। पिछले 68 वर्षों के दौरान कई अनुभवी, योग्य, ईमानदार और निष्पक्ष नेताओं, अधिकारियों, न्यायविदों या सेनाधिकारियों ने राज्यपाल पद की गरिमा बढ़ाई। लेकिन राजनीतिक पूर्वाग्रह और केंद्र की कठपुतली बनकर अनुचित, असंवैधानिक, अनैतिक काम करने वाले राज्यपाल भी हुए हैं। एक ऐतिहासिक कांड में भ्रष्टाचार के आरोपी कांग्रेसी नेता रामलाल ने राज्यपाल बनकर आंध्र प्रदेश में बहुमत वाले एन.टी. रामराव को मनमाने ढंग से मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था। एन. टी. रामराव ने अपने सभी विधायकों को दिल्ली लाकर राष्ट्रपति के समक्ष परेड करवा दी। देश भर में हंगामा हो गया। तब टी.वी. नहीं होते थे, लेकिन प्रिंट मीडिया में शीर्ष संपादक राजेंद्र माथुर ने अपने संपादकीय में ‘लकड़ी चोर, कुर्सी चोर राज्यपाल’ जैसी तीखी टिप्पणी लिखी थी। इसी तरह चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री को पूर्वाग्रह से हटाने के विवाद उठे हैं। लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा द्वारा राज्य सरकार की सहमति के विरुद्ध विधानसभा सत्र बुलाने एवं कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे को मुख्यमंत्री बना देने के निर्णय के विरुद्ध ऐतिहासिक फैसला देकर भाजपा की केंद्र सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। उत्तराखंड में कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन की स्थिति में हरीश रावत को पुनः मुख्यमंत्री पद संभालने का फैसला दे दिया था। इस बार सुप्रीम कोर्ट एक कदम आगे बढ़ गई है। कोर्ट ने अरुणाचल में भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री पद पर विराजमान कलिखों पुल के रहते कांग्रेसी नबाम तुकी को तत्काल प्रभाव से मुख्यमंत्री बने रहने का फैसला दे दिया। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेसी नेता के पास इस समय बहुमत नहीं है। लेकिन कार्ट ने पुराने बोम्मई फैसले को ही आधार बनाते हुए उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश के मामलों में भी विधानसभा के पटल पर बहुमत के निर्णय को ही माना जाना संवैधानिक बताया। इस दृष्टि से एक बार फिर यह मुद्दा गर्माया है कि राज्यपाल का केंद्र सरकार के राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मोहरे की तरह काम करना कितना अनुचित, असंवैधानिक एवं शर्मनाक है। यहां भी राजखोवा के पूर्वाग्रह का प्रमाण यह है कि उन्होंने राष्ट्रपति शासन हटाकर कलिखों पुल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाकर ऐलान किया कि ‘पुल निर्विवाद नेता’ हैं। राजखोवा राज्यपाल बनने से पहले असम में मुख्य सचिव पद पर रहे थे। यों उनकी छवि नियमानुसार काम करने की थी, लेकिन बांग्लादेश से विस्थापित अल्पसंख्यकों को असम से बाहर निकाल फेंकने जैसे कदम के लिए असम गण परिषद और भाजपा की नीति के प्रबल समर्थक थे। वह यहां तक कहते कि असम के पाकिस्तान बन जाने से पहले बांग्लादेश से आए लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए। इस कट्टरपंथी विचारों के कारण उन्हें भाजपा सरकार ने राज्यपाल पद के लिए चुना। जबकि अरुणाचल प्रदेश जैसे संवेदनशील राज्यों में सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी राज्यपाल रहे हैं। राजखोवा ने भी लेफ्टिनेंट जनरल निर्भय शर्मा का स्थान लिया था। लेकिन राजखोवा के एक कदम से राज्यपाल का पद कलंकित हुआ और शांत सुंदर प्रदेश में गंभीर संवैधानिक संकट उत्पन्न हुआ। सवाल पार्टी विशेष के मुख्यमंत्री का नहीं संविधान के प्रावधान के अनुसार सरकारें बनने और चलने का है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की करारी चपत सत्ताधारियों को भविष्य में याद रहेगी।
जब ‘लाट साहब’ मोहरे हों | आलोक मेहता
महामहिम राज्यपाल वर्तमान से भूतपूर्व हो जाने पर भी अपने पराए उन्हें ‘लाट साहब’ के रूप में पुकारते हैं। सरकारी नौकरी में जीवन पर्यंत बड़े बाबू से बड़े साहब-सचिव-मुख्य सचिव बन जाएं, लेकिन जोड़-तोड़ में माहिर होने पर रिटायर होने के बाद लाट साहब, नेताजी, मंत्रीजी भी बन जाते हैं।
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