किसी को बेवकूफ कह दें तो वह तुरंत झगड़ने को तैयार हो जाये। मगर यहां इसका अलग ब्रांड वैल्यू है। जैन धर्मावलंबियों के लिए देश-दुनिया में ख्यात पार्श्वनाथ वाले शहर गिरिडीह के मुख्य चौक में कई होटल हैं जो बेवकूफ के नाम पर हैं। एक होटल चल निकला बस प्रतिस्पर्धा में कई बेवकूफ होटल खुल गये। बिहार-झारखंड में रेल की बोगियों में खराब चाय, सबसे खराब चाय बोलकर चाय बेचने वाले मिल जायेंगे। मगर इन होटलों का बड़ा-बड़ा बोर्ड शहर के चौराहे और दुकान के बाहर दिख जायेंगे।
नाम के बारे में जिज्ञासा है तो पचास साल पीछे लौटना होगा। शहर के मेन रोड पर अंबेदकर चौक के करीब खुले सबसे पहले बेवकूफ होटल के मालिक 70 वर्षीय बीरवल प्रसाद कहते हैं कि तब परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी। घर चलाने के लिए 1971 में उनके चाचा गोपी राम (अब स्वर्गीय) और छोटा भाई प्रदीप राम ने मिलकर एक होटल का संचालन शुरू किया। शुरुआती दिनों की बात है। मैट्रिक की परीक्षा देने आये तीन छात्रों ने खाना खाया और पैसा अदा किये बिना चलते बने। चाचा को उनके जाने के बाद इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने महसूस किया कि वे बेवकूफ बनाकर चले गये। चाचा बिसखोपड़ा आदमी थे। दिमाग लगाया और होटल का नाम ही बेवकूफ होटल रख दिया। लगन और जायकेदार नॉनवेज के कारण होटल चल निकला।
गिरिडीह आने वाले मांसाहार पसंद करने वालों का पसंदीदा ठिकाना बन गया। समझदार लोगों भी यहां के खाने की तारीफ करने से चूकते नहीं। रांची के रानीबगान में रहने वाले फूड पार्क में पूर्व प्रबंधक राकेश सहाय कहते हैं कि जब कभी अपने पैतृक घर गिरिडीह जाता हूं तो मौका मिलने पर बेवकूफ होटल का मटन मिस नहीं करना चाहता। जो कोई इस शहर में नया आता है उसे भी लोग यहां ले जाना नहीं भूलते। मटन, मछली, चिकन, अंडा से लेकर शाकाहारी भोजन तक मौजूद है। मगर असली पहचान मटन को लेकर है। होटल के चल निकलने की वजह दिलचस्प नाम को भी मानते हैं। यह देख दूसरे होटल वालों में भी नाम को लेकर दिलचस्पी जगी।
बीरबल बताते हैं कि 2006 के बाद इसी से मिलते जुलते नाम के और होटल खुल गये। वे चलने लगे तो दूसरे भी इसी नाम पर खुल गये। इनका होटल बेवकूफ होटल है तो अन्य के नाम बेवकूफ नंबर वन होटल, श्री बेवकूफ होटल, महा बेवकूफ होटल, बेवकूफ रेस्टोरेंट और अब बेवकूफ नंबर दो भी खुल गया है।
सबसे पुराने बेवकूफ होटल के मालिक बीरबल प्रसाद।