जिस आसानी से बिना पलक झपकाए ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में चले गए हैं, वह आश्चर्यजनक नहीं है। हां, वह इस बात की गवाही ज़रूर देती है कि भारतीय राजनीति से विचार और विचारधारा बहुत तेज़ी के साथ ग़ायब होते जा रहे हैं और उसकी बुनियाद केवल व्यक्तिगत अथवा पार्टीगत स्वार्थों पर टिकी है। सिंधिया का परिवार तो कांग्रेसी परिवार नहीं था। उसके अधिकांश सदस्य पहले से ही भाजपा में थे। लेकिन जिस आसानी के साथ वे भाजपा में गए हैं, उसी आसानी के साथ 1947 के पहले और बाद में कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे गोविंद वल्लभ पंत और आज़ादी के बाद के नेताओं में अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रसिद्ध हेमवतीनंदन बहुगुणा का पूरा परिवार काफी पहले भाजपा में शामिल हो चुका है। और तो और, मौलाना अबुल कलाम आजाद से अपने पारिवारिक रिश्ते का ढिंढोरा पीटने वाली नजमा हेपतुल्लाह भी बरसों से हिंदुत्ववादी पार्टी की शोभा बढ़ा रही हैं। दशकों तक साम्प्रदायिक सोच के ख़िलाफ़ लिखने और लिखवाने वाले पत्रकार एम. जे. अकबर को भी भाजपा में ही शरण लेना श्रेयस्कर लगा।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह कभी भी एक सुपरिभाषित विचारधारा वाली पार्टी नहीं रही। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू तथा उनके जैसा सोचने वाले पार्टी नेताओं के कारण वह लंबे समय तक कमोबेश धर्मनिरपेक्ष बनी रही लेकिन उसमें हमेशा इस तरह के नेता रहे जिनका वैचारिक झुकाव हिंदुत्व की ओर था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर सबसे पहला अध्ययन एक अमेरिकी युवा शोधकर्ता जे. ए. कर्रन ने किया था और वे उस समय भारत आए थे जब देश एक ओर स्वतंत्र हो रहा था और दूसरी ओर विभाजन और अभूतपूर्व साम्प्रदायिक हिंसा एवं आबादी की अदला-बदली की विभीषिका को झेल रहा था। 1951 में प्रकाशित इस अध्ययन में कर्रन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि कांग्रेस के भीतर अच्छी-खासी संख्या में ऐसे महत्वपूर्ण नेता हैं जिनके विचार दक्षिणपंथ और हिंदुत्व की ओर झुके हुए हैं। सभी जानते हैं कि बाबरी मस्जिद में जब साजिश करके आधी रात को रामलला की मूर्तियां रखी गईं और शोर मचा दिया गया कि रामलला ने स्वयं प्रकट होकर सिद्ध कर दिया है कि यही उनका जन्मस्थान है, तब उस समय के संयुक्त प्रांत, जिसे बाद में उत्तर प्रदेश कहा गया, में गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे और उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पत्रों और निर्देशों को नजरअंदाज कर दिया। मध्य प्रदेश में द्वारिकाप्रसाद मिश्र की गिनती भी ऐसे ही नेताओं में होती थी।
आजादी के बाद कांग्रेस के भीतर से एक-एक करके आचार्य नरेंद्र देव, डॉक्टर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लगभग सभी बड़े समाजवादी नेता निकल गए और इस तरह नेहरू की पार्टी संगठन पर वैचारिक पकड़ और भी कमजोर हो गई। इसका नतीजा उनके विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के रूप में सामने आया। इसी दौर में आंध्र केसरी कहे जाने वाले कांग्रेस नेता टी प्रकाशम ने पाला बदलने की मिसालें पेश करना शुरू कर दिया। वैचारिक मूल्यों की अनदेखी करने और पार्टीगत हितों को प्रमुखता देने का ही नतीजा था कि 1959 में तथाकथित “मुक्ति संघर्ष” छेड़ कर केरल में मुख्यमंत्री ई. एम. एस. नम्बूदिरिपाद की बहुमत वाली उस सरकार को बर्खास्त कर दिया गया जो दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई पहली कम्युनिस्ट सरकार थी और इस बात का ज्वलंत प्रमाण थी कि कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी करने के लिए तैयार हो गए हैं। इस अभियान का नेतृत्व इंदिरा गांधी के हाथ में था जिनके कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय को सबसे शक्तिशाली संस्था का रूप दे दिया गया। उनकी इस राजनीतिक विरासत को उनके अनुयायियों और विरोधियों, सभी ने उत्साह के साथ अपनाया। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में वह संसद से भी अधिक शक्तिशाली संस्था है जो एक तरह से सभी मंत्रालयों के कामकाज को भी निर्देशित करती है।
दलबदल, राजनीति में अपराधियों की बढ़ती भूमिका और सत्ता का निरंकुश इस्तेमाल वैचारिक मूल्यों और आदर्शों के इस क्षरण का ही परिणाम है। कांग्रेस का विरोध करने के क्रम में भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने सार्वजनिक शुचिता की बात की और अपनी पार्टी के ‘चाल-चरित्र-चेहरे’ को दूसरी पार्टियों से भिन्न बताया। इस वजह से लोग भाजपा की ओर आकृष्ट हुए लेकिन आज भाजपा ने उन सभी बातों में कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया है जिनके लिए कभी वह उसकी कड़ी आलोचना करती थी। उसके विधायकों, सांसदों और मंत्रियों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिन पर गंभीर से गंभीर आरोप लगे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो विवेकाधीन विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके अपने ऊपर लगे सभी आपराधिक मामले वापस ले लिए और एक नया ही कीर्तिमान बना डाला।
जहां तक सुपरिभाषित विचारधारा का सवाल है, तो इस समय केवल भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियां ही उससे लैस हैं। लेकिन यदि वैचारिक मूल्यों और जीवनादर्शों की बात करें, तो इस समय किसी भी पार्टी के लिए नहीं कहा जा सकता कि वह उन पर चल रही है। सभी ने तात्कालिक स्वार्थों के लिए मूल्यों और आदर्शों को छोड़ने की आसान राह चुनी है। पहले भाजपा अपने सामूहिक नेतृत्व पर बहुत इठलाती थी, और कांग्रेस पर कटाक्ष करती थी। लेकिन आज उसमें भी व्यक्तिपूजा का बोलबाला है। ऐसे में मुख्यधारा की लोकतांत्रिक और मूल्याधारित राजनीति लगभग असंभव हो चली है। और वैकल्पिक आंदोलनों का विचार के मोर्चे पर क्या हाल होता है, यह आम आदमी पार्टी को देखकर समझा जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)