भारत में एक राजनीतिक कार्यकर्ता के बयान के बाद जिस तरीके से तमाम मुस्लिम देशों में उसकी प्रतिक्रिया देखी गई वो वाकई आश्यचर्यजनक थी क्यूंकि भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद खाड़ी देशों समेत तमाम मुस्लिम देशों के साथ भारत के ताल्लुकात बेहतर हुए हैँ। जैसे ही खाड़ी देशों ने भारत से माफीनामे की मांग की नीदरलैंड के एक सांसद गीर्ट विल्डर्स ने इन देशों को लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी का पाठ पढ़ा डाला। गीर्ट ने कहा कि पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों के साथ सबसे बुरा बर्ताव इन्हीं खाड़ी देशों में होता है और ये सभी देश लोकतंत्र से कोई वास्ता नहीं रखते। गीर्ट के बयान ने पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों से भेदभाव की बहस को एक नई दिशा दी है। गीर्ट की बातों से जो एक तथ्य उभर कर सामने आया वो ये कि मुद्दा सिर्फ हिन्दू और मुसलमान तक सीमित नहीं है और सेक्यूलर लोकतंत्र भारत में, मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव की भी नहीं है।गीर्ट के इस मामले में आते ही ये मुद्दा एशिया और खाड़ी देशों से निकल कर यूरोप की दहलीज पर जा पहुंचा। सवाल उठा कि क्या पूरी दुनिया में कोई ऐसा देश है जहां अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं किया जाता हो या फिर आज भी कोई ऐसा देश है जो नस्लवाद से अछूता है।
ऐसा पहली बार हुआ कि भारतीय टेलीविजन पर डिबेट के दौरान की गई एक टिप्पणी पर मुस्लिम देशों ने भारत सरकार से माफीनामे की मांग तक कर दी। अभी तक भारत के अंदरूनी मामले में ऐसे किसी भी मौके पर ये तमाम मुस्लिम देश दखलंदाजी नहीं करते थे, हालांकि भारत के कड़े रुख का नतीजा दो दिन बाद ही निकला जब कतर में नुपुर शर्मा के विरोध में किए गए प्रदर्शन पर वहां की सरकार ने प्रदर्शनकारियों को चेतावनी दी कि उनकी शिनाख्त कर उनके मूल देश वापस भेजा जाएगा और ये भी तस्दीक की जाएगी कि वो दोबारा इस देश में कदम न रखें। हम ये चर्चा नहीं करना चाहते कि इस पूरे प्रकरण में कौन गलत है और कौन कितना गलत है लेकिन इस पूरे मामले को यूरोप कैसे देख रहा है इसे भी जानना जरूरी है।
जैसे भारत में बार बार इस्लामोफोबिया की बात होती है इन दिनों स्कॉटलैंड में हिन्दूफोबिया की चर्चा जोरों पर है। कुछ समय पहले हिन्दूफोबिया के मामले अमेरिका में भी देखने को आए थे। ब्रिटेन में एक तरफ जहां पिछले कुछ समय से बार बार ऐसी संभावना बनती दिखती है कि शायद पहली बार कोई हिन्दू यहां प्रधानमंत्री बन सकता है वहीं दूसरी तरफ उसके एक राज्य स्कॉटलैंड में हिन्दुओं के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव भी साफ दिखता है खासतौरपर स्कॉटलैंड के सबसे बड़े और व्यापारिक शहर ग्लासगो में। ये वो हिन्दू नहीं हैं जो भारत के नागरिक हैं बल्कि इसमें तमाम वो लोग शामिल हैं जो भारतीय मूल के हैं लेकिन दो-तीन पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं और पूरी तरह यहीं के नागरिक हैं यानी स्कॉटिश हिन्दू। पिछले दिनों इंडियन काउंसिल ऑफ स्कॉटलैंड ने कई महीनों की रिसर्च के बाद एक चौंकाने वाला डेटा जारी किया। उन डेटा के आधार पर स्पष्ट दिखता है कि पिछले कुछ समय में स्कॉटलैंड में भारतीय या भारतीय मूल के हिन्दुओं के साथ रोजगार और भागीदारी के स्तर पर भेदभाव किया जा रहा है।
इंडियन काउंसिल ऑफ स्कॉटलैंड के चेयरमैन नील लाल जो खुद स्कॉटलैंड में तीसरी पीढ़ी के भारतीय मूल के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, ने जब बातचीत में इन आंकड़ों की गंभीरता बताई तो उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखती हैं।
स्कॉटलैंड समेत पूरे ब्रिटेन में नेशनल हेल्थ सर्विस सबसे बड़ा रोजगार का केंद्र है। ब्रिटेन में भारतीय मूल के 2.3 फीसदी लोग रहते हैं वहीं पाकिस्तानी मूल के 1.9 फीसदी लेकिन जब बात जनसंख्या के आधार पर रोजगार में भागीदारी की आती है और जब ग्लासगो के कामगारों की संख्या देखते हैं तो ये आंकड़ा उलट जाता है। कुल विदेशी मूल के कामगारों में 30 फीसदी भारतीय मूल के और 47 फीसदी पाकिस्तानी मूल के लोग दिखते हैं, ऐसा इसलिए दिखता है कि यहां भी वोट की राजनीति हो रही है और इस इलाके में सत्ता में वो लोग बैठे हैं जो या तो पाकिस्तानी मूल के हैं या फिर पाकिस्तान समर्थक। इस बात का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि वैश्विक स्तर पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन पाकिस्तान और पाकिस्तानी मूल के दूसरे देशों में बसे लोगों के द्वारा साफ दिखता है। ये नकारात्मक स्थिति एबरडीन और एबरडीनशायर काउंसिल और एनएचएस ग्रैम्पियन में नहीं है क्यूंकि वहां सत्ता में वो स्कॉटिश हैं जो संतुलित हैँ। नील लाल भारत में हो रहे मौजूदा विवाद पर सधी हुई प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि दूसरे देशों को भारत की इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
भेदभाव के आरोप पर सफाई में स्काटिश सरकार के नुमाइँदे कहते हैं कि वो मूलत: सबको एशियाई के तौर पर देखते हैं लेकिन इस मामले को समझाते हुए इंडियन काउंसिल ऑफ स्कॉटलैंड के प्रेसीडेंट प्रोफेसर ध्रुव कुमार जो ग्लासगो सिटी यूनिवर्सिटी में मरीन इँजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष हैं बताते हैं कि सभी को एशियाई के तौर पर देखे जाने की बात इसलिए गलत है क्यूंकि सबसे पहले यहां रोजगार के लिए भरे जाने वाले फार्म में पूछा जाता है आप किस महादेश से हैं फिर अगले ही कॉलम में आपसे ये भी पूछा जाता है कि आप भारतीय एशियन हैं, पाकिस्तानी एशियन हैं या बांग्लादेशी एशियन फिर बात यहां भी नहीं रुकती उसके आगे वो ये भी पूछते हैं कि आप भारतीय हिन्दू हैं या भारतीय मुस्लिम । इसलिए उनकी ये दलील कि सबको एशियन के तौर पर देखते हैं गलत है और इस तरह नस्लवाद को बढ़ावा मिलता है। इतना ही नहीं इन दफ्तरों के कामकाज के लिए इस्तेमाल होने वाले कागजात अंग्रेजी और स्कॉटिश के अलावाअरबी, फ़ारसी, उर्दू, रूसी,पोलिश, रोमानियाई, मंदारिन औरपंजाबी में उपलब्ध हैं लेकिन हिन्दी में नहीं। यह भी भेदभाव की तरफ स्पष्ट तौर पर इशारा करता है।स्कॉटिश हिंदू इन आंकड़ों की नकारात्मक प्रकृति पर बिल्कुल चकित हैं, चीनी और यहूदी मूल के लोगों के साथ, यूनाइटेड किंगडम में उनका अकादमिक योगदान सबसे ज्यादा है। ध्रुव बताते हैं कि अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक हिन्दुओं के साथ भेदभाव स्पष्ट होता दिख रहा है वैसे में भारत में हो रही घटनाओं पर दूसरे मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया दरअसल यूरोप और अमेरिका में हो रही घटनाओं से ध्यान हटाकर भारत पर केंद्रित करने की दिखती है।
यहां कई हिंदुओं का मानना है कि भारतीय आर्थिक सफलता और मतदाता तुष्टिकरण के कारण उन्होंने खुद को भेदभाव के केंद्र में पाया है,इन आँकड़ों से यह स्पष्ट है कि बहुसंस्कृतिवाद केवल कुछ समुदायों के निर्धारित एजेंडे का समर्थन करता हैजिसके परिणामस्वरूप तुष्टिकरण छिपे हुए भेदभाव के एक नए रूप को जन्म देता है, जिसे अब एक नया टर्म मिल गया है हिंदूफोबिया। ओएफबीजेपी यूनाइटेड किंगडम के महासचिव सुरेश मंगलगिरी ने कहा कि जबआप इस स्तर पर भारत में हो रही घटनाओं को देखते हैं तो तमाम मुस्लिम देशों और समुदाय की एक टेलीविजन डिबेट पर प्रतिक्रिया बचकानी लगती है।
अगर हम स्कॉटलैंड की बात करें तो “एनएचएस” ग्रेटर ग्लासगो और क्लाइड के पास एक बहुत ही सक्रिय ब्लैक, एशियन, माइनॉरिटी एथनिक (BAME) नेटवर्क है और उनका दावा भी है कि वो सभी के लिए रोजगार के समान अवसर पैदा करने के लिए सभी समुदायों के साथ सकारात्मक रूप से काम करते हैं।
लेकिन सामाजिक प्रगति का एसएनपी का विचार अपने प्रमुख शहर ग्लासगो में विफल होता दिख रहा है। बावजूद इसके यहां सकारात्मक ये है कि यहां अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में भागीदारी देने के लिए चर्चाएं हो रही हैं और आलोचनाओं को सरकार खुले दिल से सुन रही है, बहस उनकी धार्मिक भावनाओं को लेकर नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)