साहित्य अकादेमी द्वारा नई दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय सम्मिलन में मुर्मु ने संताली भाषा के लिए प्रचलित देवनागरी, रोमन, बांग्ला और ओड़िया लिपियों की चर्चा के बीच कहा कि संताली समाज की एकता के लिए पंडित रघुनाथ मुर्मु ने ओलचिकी लिपि का निर्माण किया है, जिसे सभी को अपनाना चाहिए। रविलाल टुडु ने संताल समाज की आदिवासी पहचान, अंधविश्वास, पंचायत व्यवस्था, आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति आदि विषयों को अपने वक्तव्य के केंद्र में रखा, तो गोपाल सोरेन ने कहा कि संताली भाषा पर वैश्वीकरण के प्रभाव के बावजूद हमें अपनी मातृभाषा के गौरव को बनाए रखना है। हेंब्रम ने संताली समाज के इतिहास और सुदृढ़ सांस्कृतिक परंपरा को बचाने के लिए लेखकों की जागरूकता पर बल दिया।
कहानी पाठ सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रतिष्ठित संताली कथाकार श्याम बेसरा ने कहा कि सामाजिक परिवर्तन के प्रति जागरूक रहनेवाला और उसे चित्रित करनेवाला लेखन ही सार्थक हो सकता है।
इससे पूर्व निरंजन हांसदा, रानी मुर्मु और दिलीप हांसदा ने क्रमशः ‘दुलड़ गे दहयाय सागाई’ (प्यार ही संबंध को जिंदा रखता है), ‘मीद एंगात्’ (एक माँ) तथा ‘हिर्ला आतु माझी हिर्ला’ (मुखिया की जय हो) शीर्षक कहानियों का पाठ किया, जिनमें शहरीकरण के प्रभाववश ग्रामीण-जीवन में आ रही जटिलता और विगलित हो रहे सामाजिक संबंधों का मार्मिक चित्रण किया गया था।
‘मेरी दुनिया मेरा लेखन’ सत्र में कवयित्री दमयंती बेसरा ने बताया कि उन्होंने स्कूली जीवन से ही लिखना शुरू कर दिया था। परिवार-समाज में नारी की स्थिति ही उनकी प्रेरणा और उनकी रचनाओं का आधार है। भोगला सोरन ने कहा कि उन्होंने आदिवासी समुदायों के विस्थापन और अन्य समस्याओं से उद्वेलित होकर ही उन्हें अपने नाटकों में प्रस्तुत किया और उनका समाधान देने का प्रयत्न भी किया है। रघुनाथ मरांडी ने संताली रंगमंच से जुड़े अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि सामाजिक संबंधों में समरसता लाने के संदेश को ही उन्होंने अपने नाटकों में पिरोया है।
भोलानाथ मुर्मु की अध्यक्षता वाले सत्र में सरोजिनी बेसरा, काशुनाथ सोरेन, सोमनाथ हांसदा, आदित्य मांडी, मानसिंह माझी एवं धुड़ु मुर्म ने कविताओं का पाठ किया।