हम पिछले तीन साल से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और सेल्फी विद डॉटर जैसे कई संदेश समाज को दे रहे हैं ताकि देश में बेटियों को आगे बढ़ने और समाज में बराबरी का हक मिल सके। पितृसत्तामक समाज की धारणा को समाप्त करने के लिए यह जरूरी है। लेकिन पिछले दिनों की कुछ घटनाएं चिंता बढ़ाने वाली हैं। छोटी बच्चियों से लेकर स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय की छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार की घटनाएं जिस तरह से सामने आई हैं, वह बेहद चिंताजनक है। लेकिन उससे भी ज्यादा परेशान करने वाला इन घटनाओं पर सरकार और प्रशासनिक मशीनरी समेत पुलिस का रवैया है।
देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में शुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की हालिया घटना को ही लें। पिछले दिनों एक छात्रा के साथ विश्वविद्यालय परिसर में हुई छेड़छाड़ की घटना ने छात्राओं को आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि ऐसी घटनाओं का सिलसिला वहां लंबे समय से चलता आ रहा था। इन घटनाओं पर विश्वविद्यालय प्रशासन के रवैए से छात्राओं का भरोसा टूट गया था। ताजा घटना के बाद बीएचयू के कुलपति ने जैसे बयान दिये और पूरे प्रकरण को जैसे विश्वविद्यालय को बदनाम करने की सोची-समझी साजिश तक बताने की कोशिश की, वह हैरान करने वाला था। उनके कई बयान इतने बचकाने थे कि यह सवाल भी उठ खड़ा होता है कि ऐसी मानसिकता का व्यक्ति देश के उस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का कुलपति कैसे बन सकता है, जिसे महामना मदनमोहन मालवीय ने भारतीय समाज को आगे बढ़ाने और तरक्कीपसंद युवाओं को तैयार करने के लिए स्थापित किया था।
इसी विश्वविद्यालय में महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद अपना पहला भाषण दिया था जिसमें उन्होंने पूरे शहर को छावनी बनाने वाली अंग्रेजी हुकूमत से कहा था कि आपको क्यों इतना डर लगता है। यहां यह प्रासंगिक इसलिए हो उठता है क्योंकि छात्राओं का प्रदर्शन उस समय हुआ जब प्रधानमंत्री बनारस के दौरे पर थे और कुलपति महोदय ने कहा कि प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान जानबूझकर हंगामा किया गया है। इसके बाद घटनाओं का जो क्रम चला, उसमें छात्राओं पर आधी रात को लाठीचार्ज किया गया, वह भी पुरुष पुलिसकर्मियों द्वारा। यह दर्शाता है कि हमारे समाज में पुरुष सत्ता की मानसिकता मजबूती से जमी हुई है। छात्राओं के कपड़ों और उनके हॉस्टल से बाहर निकलने के समय पर टिप्पणी की गई।
वैसे छात्राओं के हॉस्टलों में एक समयसीमा के बाद कर्फ्यू जैसे हालात पैदा करने के नियम केवल बीएचयू तक ही सीमित नहीं हैं, दूसरे अधिकांश विश्वविद्यालयों में भी यही स्थिति है। यहां बात और गंभीर इसलिए हो जाती है कि उच्च शिक्षा के इन केंद्रों से निकलकर ये छात्राएं समाज, सरकार और विभिन्न क्षेत्रों में अहम भूमिका निभाएंगी। लेकिन, भला डर के साये में जीने वाली ये छात्राएं किसी स्वस्थ समाज के विकास में कैसे योगदान देंगी?
असल में बात केवल किसी एक यूनिवर्सिटी की नहीं है, बाकी जगहों पर भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। पिछले साल हरियाणा के रेवाड़ी जिले के एक गांव के स्कूल की छात्राएं जब अनशन पर बैठीं तो मामला सुर्खियों में आया। इन छात्राओं का कहना था कि उनके गांव का स्कूल दसवीं कक्षा तक है और आगे की पढ़ाई के लिए जब वे दूसरे गांव जाती हैं तो उनके साथ छेड़छाड़ होती है, इसलिए उनके गांव के स्कूल को अपग्रेड किया जाए। मामला बढ़ता देख राज्य सरकार ने स्कूल को अपग्रेड तो कर दिया लेकिन अब उस स्कूल में अधिकांश विषयों के लिए शिक्षक ही नहीं हैं। मतलब समस्या वहीं की वहीं खड़ी है।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में स्कूल जाते समय एक छात्रा की एक लड़के ने हत्या कर दी क्योंकि वह छेड़छाड़ का विरोध कर रही थी। हाल के एक सर्वे में बताया गया कि दिल्ली में 90 फीसदी पिता और पुरुष तब तक चिंतित रहते हैं जब तक बेटी या घर की महिला सदस्य घर नहीं पहुंच जाती है। ऐसी परिस्थिति किसी समाज को कैसे आगे ले जाएगी!
हालांकि हम औपचारिकताएं जरूर पूरी करने की कोशिश करते हैं। जैसे 2012 दिसंबर में दिल्ली में हुए हृदयविदारक निर्भया कांड के बाद कानून में बदलाव से लेकर कई कदम उठाये गये लेकिन इनमें से कई सांकेतिक महत्व के ही बने रहे। एक निर्भया फंड भी बनाया गया लेकिन उसका कहीं भी पूरा उपयोग नहीं हो सका। उस समय एक महिला बैंक तक खोला गया जिसका अब भारतीय स्टेट बैंक में विलय कर दिया गया है। असल में इस तरह के सांकेतिक कदम कोई भी बड़ा बदलाव नहीं ला सकते हैं। बदलाव समाज के अंदर लाना होगा और सरकार को प्रभावी कदम उठाने होंगे।
लेकिन हम विचारधाराओं के बीच बंटकर बड़े बदलावों में बाधक बनते हैं जबकि हर विचारधारा बराबरी पर आधारित स्वस्थ समाज की पक्षधर ही होनी चाहिए। इसी सोच को अगर हम मजबूत करते हैं तभी सही मायने में न्यू इंडिया में बेटियों को असुरक्षा के भाव से बाहर ला सकेंगे।