कुमारी प्रेरणा
स्वच्छ भारत अभियान के आज तीन साल पूरे हो गए हैं। इस दौरान देश में कितने नए शौचालयों का निर्माण हुआ, कितने शहर-राज्य खुले में शौच से मुक्त हुए, कौन सा शहर सफाई में सब से शीर्ष पर है, आदि पैमानों पर अभियान की सफलता तय की जाएगी।
प्रधानमंत्री, गांधी के सपनों का स्वच्छ और स्वस्थ भारत बनाने के संकल्प पर अपनी प्रतिबद्धता दिखाएंगे, मंत्रीमंडल के लोग हाथों में झाड़ू लिए सूखे पत्तों को हटाकर सफाई करने की जहमत उठाएंगे, ऐसा करते हुए अभिनेता-नेताओं की तस्वीरें कल के अखबार में प्रकाशित हो जाएंगी। घनघोर विज्ञापन के प्रसारण से टीवी-रेडियो शोर मचाएगा और फिर अगले ही सुबह स्वच्छ भारत बनाने की यह पूरी जिम्मेदारी उस पिछड़े-शोषित वर्ग के कंधों पर दे दी जाएगी, जिसे आम भाषा में हम- भंगी, मेहतर और डोम कहते हैं।
ये वो वर्ग है जो अपने सर पर हमारा मैला ढ़ोते हैं और सीवर, सेप्टिक टैंकों की सफाई करते हैं। भारत में ‘‘मैला ढोने वालों को रोजगार और शुष्क शौचालयों के निर्माण (निषेध) अधिनियम 1993’’ होने के बावजूद देशभर में अब भी तेरह लाख लोग इस काम से जुड़े हैं। 'प्रैक्सिस' (PRAXIS)संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार इन में से 67% लोग वाल्मिकी यानि की दलित समुदाय के हैं।
क्या कहता है कानून?
गौरतलब है कि 1993 में पारित हुए कानून में केवल मैला ढोने वालों को ही शामिल किया गया था, लेकिन 2012 के नए कानून में शुष्क शौचालय, खुली नालियों, रेललाइन से मैला उठाने वालों, सैप्टिक टैंक की सफाई करने वालों को शामिल कर इस कानून को विस्तृत और व्यापक बनाने की कोशिश की गई।
इस गैर जमानती कानून के तहत शुष्क शौचालय के निर्माण करने पर या किसी भी कर्मी से सेप्टिक या सीवर की सफाई करवाने पर 2 साल की सजा या 2 लाख रुपए का जुर्माना या दोनों दिए जाने का प्रावधान है। अगर दोबारा इस कानून का उल्लंघन करता हुआ कोई शख्स पकड़ा जाता है तो उसे 5 साल की सजा या 5 लाख रुपए का जुर्माना भरने या जेल व जुर्माना दोनों ही का भुगतना करना पड़ सकता है।
क्या है जमीनी हकिकत?
इतने सख्त कानून मौजूद होने के बावजूद विडंबना यह है कि पिछले 22 सालों में इस कानून के तहत एक भी केस दर्ज नहीं हुआ, सजा और जुर्माना तो दूर की बात है। सीवर में किसी भी व्यक्ति को उतारना अपराध है, इस बात की जानकारी होने के बाद भी दिल्ली जल बोर्ड सहित अलग-अलग राज्यों में इन कर्मचारियों से सीवर की सफाई कराई जाती है।
इसके इतर सफाईकर्मियों को कॉन्ट्रैक्ट पर भी रखा जाता है। जिससे की ना ही ठेकेदार, ना इंजीनियर और ना ही जल बोर्ड के कंधों पर इनकी जिम्मेदारी होती है।
हाथों से मैला उठाने जैसे अमानवीय कार्य पर जहां एक तरफ हमारी सुप्रीम कोर्ट प्रतिबंध लगा चुकी है वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार 26 लाख घरों में अब भी अस्वास्थ्यकर शौचालय होने का खुलासा हुआ है। 1,74,000 रेलवे
डिब्बों में आज भी शुष्क शौचालय मौजूद हैं। पटरियों पर गिरने वाले मल की सफाई कोई और नहीं- यही कर्मचारी करते हैं। स्वच्छता अभियान पर 2 लाख करोड़ रूपए खर्च करने वाली सरकार सफाई कर्मचारियों के पूनर्वास पर केवल 5 करोड़ रूपए खर्च करती है।
आपको बता दें कि मैला ढोने का रोजगार निवारण और पुनर्वास अधिनियम 2013 के अंतर्गत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सफाईकर्मियों का पुनर्वास करे।
वहीं "सफाई कर्मचारी आंदोलन" नामक संगठन के अध्ययन के मुताबिक पिछले पांच सालों में सीवर की सफाई के दौरान दम घुटने की वजह से तकरीबन 15,000 लोगों की जान जा चुकी है। इसी साल कम से कम 45 सफाई कर्मचारियों की मौत हो गई है। जानलेवा गैसों से भरे सीवर को साफ करने के लिए तकनीक का सहारा नहीं लिया जाता वहीं मॉल-मल्टिप्लेक्स बनाने से लेकर गहरे नाले खोदने के कार्य में अत्याधुनिक मशीनों का इस्तेमल किया जाता है।
दूसरी ओर कानून यह भी कहता है कि अगर किसी कारणवस आपात स्थिती में सफाईकर्मी को सीवर में प्रवेश भी करना पड़े तो उसके साथ 17 सुरक्षा उपकरण होना जरूरी हैं। जिसमें की ऑक्सीजन मास्क, हेलमेट,बॉडी सूट, दस्ताने आदी मौजूद हैं। मगर हकिकत यह है कि इन 17 सुरक्षा उपकरणों में से एक भी उपकरण सफाईकर्मियों को मुहैया नहीं कराई जाती। नंगे बदन बिना किसी सुरक्षा के ये कर्मी अपनी जान का जोखिम उठाए 15-20 फिट गहरे सीवर और टैंकों में हमारा और आपका फैलाया मैला साफ करने घुसते है और फिर किसी दिन उनकी लाश बाहर निकलती है। हर रोज देश की गंदगी साफ करने के लिए इन भारत मां के सपूतों की बलि दे दी जाती है और सरकारी महकमों में कोई हलचल तक नहीं होता।
ऐसे वक्त में जब केंद्र सरकार का सबसे बड़ा अभियान स्वच्छता का है, यह व्यंग्योक्ति ही है कि इस अभियान में कहीं भी शुष्क शौचालय, खुली नालियों, रेललाइन से मैला उठाने वालों, सैप्टिक टैंक की सफाई करने वालों का कोई जिक्र नजर नहीं आता। स्वच्छ भारत के निर्माण हेतु शुरू किया गया यह अभियान केवल सफाई, शौचालय निर्माण और निकासी पर केंद्रित हो कर रह गया। इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि हमारे देश में गंदगी फैलाने वालों के प्रति लोगों की प्रतिष्ठा ज्यादा है,साफ करने वालों की कम।
गांधी का उद्देश्य केवल एक स्वच्छ भारत देखने की नहीं थी बल्कि मानवता पर लगे इस धब्बे को मिटाने की भी थी। गांधी के अनुसार झाड़ू सामाजिक विषमता खत्म करने का प्रतीक था। उनका मानना था कि जब तक उच्चे वर्ग के लोगों के हथ में झाड़ू नहीं आएगा, वो अपने मल- शंडास खुद साफ नहीं करेगा और पिछड़े वर्ग के हाथों में भगवत गीता नहीं जाएगी तबतक इस देश से जात-पात के नाम प होने वाले ये अमानवीय काम बंद नहीं होंगे।
काश! कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने लाल किले से गांधी के इस बात की भी चर्चा की होती, ये प्रण लिया होता कि इस अवैध-अमानवीय प्रथा को जल्द से जल्द खत्म कर दिया जाएगा और इस काम में आसक्त हुए सफाईकर्मचारियों का सम्मानित पूनर्वास होगा।
आपको बता दें कि बीते 31 अगस्त को " एशियन लीगल रिशोर्स सेंटर-इंडिया" नामक संस्था ने अंतर्राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग को भारत में जारी अवैध और अमानवीय मैनुअल स्कैवेंजिंग के प्रथा पर अपनी एक रिपोर्ट भेजी है ।
रिपोर्ट का उद्देश्य आयोग का ध्यान इस ओर खींचना है। रिपोर्ट में सरकार द्वारा जारी की गई 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना का हवाला देते हुए यह बताने की कोशिश की गई है कि आज भी तकरीबन 182505 परिवार अपनी आय के लिए मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसे अमानवीय कामों पर आश्रित हैं। संस्थान ने आयोग से आग्रह किया है कि वह भारत सरकार को जल्द से जल्द इस प्रथा को खत्म करने और साथ ही इससे संबंधित कानून का सख्ती से पालन करने का निर्देश दे।