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जनादेश ’24 / विज्ञापन: राजनैतिक विज्ञापनों का अर्थशास्त्र

चुनाव आते ही आरोप लगाने वाले राजनैतिक विज्ञापनों का बाजार गरम हो गया लोकसभा चुनाव से पहले दो सबसे...
जनादेश ’24 / विज्ञापन: राजनैतिक विज्ञापनों का अर्थशास्त्र

चुनाव आते ही आरोप लगाने वाले राजनैतिक विज्ञापनों का बाजार गरम हो गया

लोकसभा चुनाव से पहले दो सबसे चर्चित राजनैतिक विज्ञापनों ने सबका ध्यान खींचा। एक में एक लड़की अपने लिए उपयुक्त दूल्हे‍ का इंतजार कर रही है जबकि कुछ पुरुष उसके लिए आपस में झगड़ रहे हैं। दूसरे में कुछ टी-शर्ट हैं जिन पर ‘घोटाला’, ‘वसूली’, ‘फर्जीवाड़ा’ लिखा हुआ है और उन्हें एक वॉशिंग मशीन में फेंका जाता तो सब साफ होकर बाहर निकल आती हैं और उन पर लिखा होता है ‘बीजेपी मोदी वॉश।’ चुनावी बॉन्डों के सामने आए आंकड़ों से अब साफ हो चुका है कि हमारे चुनावों में बहुत भारी धनबल लगता है और उसका बड़ा हिस्सा विज्ञापनों पर खर्च किया जाता है, चाहे वे बैनर पोस्टर हों, डिजिटल प्रचार हो, अखबार और टीवी हो या रेडियो पर प्रचार। इन्हें विज्ञापन जगत के कुछ सबसे मेधावी लोग बनाते हैं ताकि पार्टी विशेष के वादों और कामों की ओर मतदाताओं का ध्यान खींचा जा सके। कभी-कभार ऐसे विज्ञापन विरोधी दलों को निशाना बनाने के लिए भी तैयार किए जाते हैं।

इस लोकसभा चुनाव में भी हमने देखा कि पहला चरण शुरू होने से पहले ही हमारे टीवी, मोबाइल और सड़कों पर राजनैतिक दलों के ऐसे राजनैतिक विज्ञापनों की भरमार हो गई जिनमें दूसरे दलों पर खुलकर लांछन लगाया जा रहा है।

कैसे बनते हैं राजनैतिक विज्ञापन

किसी भी लोकतंत्र में चर्चा का सबसे दिलचस्प सवाल यह होता है कि किसी पार्टी को पैसा कहां से मिल रहा है और कहां जा रहा है। बीते बरसों के दौरान राजनैतिक दलों के परदे के पीछे के कारोबार बहुत बढ़ गए हैं। लोगों और कंपनियों से राजनैतिक दलों को जो पैसा मिलता है उसे वे ऐसी परामर्शदात्री कंपनियों पर खर्च करती हैं जो पार्टी के संदेशों को प्रसारित कर सकें और डिजिटल, प्रिंट, टीवी, रेडियो आदि माध्यमों के लिए विज्ञापन अभियान तैयार कर सकें। इसमें सड़कों पर दिखने वाले बैनर-पोस्टर भी शामिल होते हैं। 

कांग्रेस का भाजपा पर मखौल

कांग्रेस का भाजपा पर मखौल

इसके लिए राजनैतिक परामर्शदाता नेताओं के साथ बैठ कर उनके नजरिये को समझते हैं और उसके आधार पर उनकी जरूरतों और लक्ष्यों का एक खाका तैयार करते हैं। फिर उसके हिसाब से वे एक समयबद्ध योजना बनाते हैं। मसलन, भाजपा का चर्चित दूल्हे-दुल्हन वाला विज्ञापन वराहे अनालिटिक्स नाम की कंपनी ने बनाया था जबकि मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक कांग्रेस का विज्ञापन डीडीबी मुद्रा नाम की कंपनी ने बनाया था। ऐसे ही राजनीतिक विज्ञापन बनाने वाली अन्य  कंपनियों में आइपैक, एबीएम और इंक्लू्सिव माइंड्स शामिल हैं।

ऑनलाइन विज्ञापनों पर खर्च

मेटा और गूगल के उपलब्ध कराए आंकड़ों की मानें, तो बीते तीन महीनों के दौरान भारत के राजनैतिक दलों ने 100 करोड़ रुपये से ज्यादा विज्ञापन पर फूंका है। यह 2023 में खर्च किए गए 11 करोड़ का करीब नौ गुना है जब चुनाव नहीं हो रहे थे। गूगल ऐड ट्रांसपेरेंसी सेंटर के आंकड़े बताते हैं कि डिजिटल मंचों पर सबसे बड़ी विज्ञापनदाता पार्टी भाजपा है जिसने जनवरी से मार्च 2024 के बीच 38 करोड़ रुपये खर्च किए जबकि कांग्रेस पार्टी ने इसी अवधि में 50 लाख रुपये खर्चे।

बीते 5 अप्रैल तक गुजरे 90 दिनों के दौरान हुए विज्ञापन खर्च पर मेटा की ऐड लाइब्रेरी रिपोर्ट कहती है कि भारत के 20 शीर्ष विज्ञापनदाताओं में भाजपा पहले नंबर पर रही जिसने ऑनलाइन विज्ञापनों पर 6.7 करोड़ रुपये खर्च किए जबकि कांग्रेस ने 1.4 करोड़ खर्च किए। दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के आंकड़े भी इसने बताए हैं- तृणमूल कांग्रेस ने 89 लाख, तेलुगुदेसम पार्टी ने 10 लाख, आम आदमी पार्टी ने 6.9 लाख इसी अवधि में खर्च किए। इसके अलावा भाजपा और कांग्रेस की क्षेत्रीय इकाइयों, विशिष्ट प्रचार अभियान इकाइयों और नेताओं ने भी लाखों विज्ञापन पर खर्च किया है। राजनैतिक दलों से सीधे जारी विज्ञापनों के अलावा गूगल और मेटा का डेटा बताता है कि कई ऐसे अदृश्य और प्रच्छन्न विज्ञापनदाता भी रहे जिन्होंने दलों के विज्ञापन अभियान को आगे बढ़ाने का काम किया। इनमें खासकर सत्ताधारी पार्टी का वर्चस्व रहा।

प्रच्छन्न विज्ञापनों की दुनिया

प्रच्छन्न राजनैतिक विज्ञापन देने वाले जरूरी नहीं कि सीधे राजनैतिक दल से ही संबद्ध हों लेकिन वे सोशल मीडिया और ऑनलाइन मंचों पर अलग-अलग किस्म की सामग्री डालकर लोगों का ध्यान जरूर खींच लेते हैं। इनमें मीम से लेकर वीडियो क्लिप और स्पूफ सब कुछ होता है जो किसी खास पार्टी के पक्ष में सूचनाएं फैलाता है।

तेलुगु देशम

तेलुगु देशम का विज्ञापन

मसलन, इंडियन पॉलिटिकल ऐक्शन कमेटी (आइपैक) चुनाव से पहले जगनमोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस पार्टी और तृणमूल के लिए विज्ञापन बना रही थी। इसने कुल साढ़े छह करोड़ का खर्च किया है जिसमें 4.3 करोड़ आंध्र प्रदेश और 1.5 करोड़ पश्चिम बंगाल में खर्च हुआ है। ऐसे ही एक और कंपनी पॉपुलस एम्पावरमेंट नेटवर्क प्राइवेट लिमिटेड (पेन) ने द्रमुक के पक्ष में विज्ञापन चलाने पर 28 लाख का खर्च किया। पेन के संस्थापक वी. सबरीसन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के दामाद हैं।

प्रच्छन्न विज्ञापनों की सामग्री अकसर विरोधी पार्टी के खिलाफ होती है। ऐसे कुछ विज्ञापन भाजपा के पक्ष में भी बनाए गए हैं जो केंद्र और भाजपा शासित राज्यों में विपक्षी दल पर हमला करते हैं। इनमें ज्यादातर भ्रामक होते हैं, कभी-कभार साम्प्रदायिक स्वर भी लिए होते हैं। मेटा पर आरोप है कि उसने ऐसे कई विज्ञापनों को अपने मंच पर जाने दिया जबकि नीतिगत‍ रूप से सामाजिक मसलों, चुनाव और राजनीति के विषयों पर विज्ञापनदाता का नाम लिख कर स्पष्टीकरण छापना था।

जैसे फेसबुक पर एक पेज है मीमएक्सप्रेस, जो मेटा की सूची में राजनीतिक विज्ञापनों पर खर्च करने वाला सबसे बड़ा पेज है (5 अप्रैल तक बीते 90 दिनों में 1.2 करोड़ रुपये)। इस पेज पर केजरीवाल, ममता और स्टालिन को निशाना बनाने वाले मीम सिलसिलेवार डाले गए जिनमें उन्हें घोटालों का आरोपी बताया गया। ऐसे ही एक विज्ञापन में नेता और बाहुबली गैंगस्टर अतीक अहमद को गोली मारे जाने वाला वीडियो है और उसके बगल में टीएमसी के बाहुबली नेता शाहजहां शेख का वीडियो चल रहा है जिस पर कैप्शन लिखा है: ‘बस एक बुलडोजर चाहिए बंगाल में... सभी अकड़ू शाहजहां सीधे हो जाएंगे।’

ऐसा ही एक और पेज है ‘मुद्दे की बात’, जिसने तीन महीने में ‘पंडित नेहरू की गलतियां’ शीर्षक वाले रील पर 46 लाख रुपये खर्च किए। इन रीलों में भाजपा द्वारा कांग्रेस पर लगाए गए तमाम आरोप हैं। इसी पेज ने एक और रील बनाया था जिसमें राहुल गांधी को कथित रूप से कहते सुना जा सकता है कि ‘इन हिंदुत्ववादियों को बाहर निकालना है’। इस वीडियो के नीचे पाकिस्तान का झंडा लगा है जिस पर कांग्रेस का चुनाव चिह्न बना हुआ है। इसी तरह का एक और फेसबुक पेज है ‘उल्टा चश्मा’ जिसने ऐसे ही प्रायोजित मीमों पर 1.7 करोड़ से ज्यादा खर्च किया है, जबकि एक अन्य पेज ‘भारत तोड़ो गैंग’ ने पिछले तीन महीने में 14 लाख का खर्च किया है।

द्रमुक का विज्ञापन

द्रमुक का विज्ञापन

प्रच्छन्न और अदृश्य रहकर राजनीतिक विज्ञापन चलाने वाले ऐसे फेसबुक पेजों की भी भरमार है जो विपक्षी दलों के हक में काम करते हैं लेकिन खर्च और विविधता के मामले में देखें तो सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में चलने वाले पेज मुकाबले में कहीं ज्यादा हैं। ज्याादातर वक्त ऐसे विज्ञापन बिना किसी स्पष्टीकरण के चलाए जाते हैं। जब तक इन्हें हटाया जाता है, तब तक हजारों लोग देख कर शेयर कर चुके होते हैं। 

गूगल ऐड्स के मुताबिक राजनीतिक विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च उत्तर प्रदेश में हुआ है। उसके बाद ओडिशा, आंध्र, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरात हैं। इसमें वीडियो विज्ञापनों पर 83.8 प्रतिशत पैसा खर्च हुआ है, तस्वीरों पर 16 प्रतिशत और लिखित विज्ञापनों पर 0.2 प्रतिशत। मेटा पर राजनैतिक विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च आंध्र प्रदेश में हुआ, उसके बाद पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु का स्थान आता है।

 

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