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कविता - सुशील उपाध्याय

उपाध्याय उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्याल में प्राध्यापक हैं। अध्यापन से पहले वह प्रखर पत्रकार रह चुके हैं। अमर उजाला और हिंदुस्तान अखबार में काम करते हुए उन्होंने रिपोर्टिंग के क्षेत्र में जो भी विविधताएं महसूस कीं उन्हें बाद में कविता में ढाला। उनकी खबरों की समझ और कविता की संवेदना मिल कर जो काव्य पैदा करती है, वह कविता को नई भाषा देती है।
कविता - सुशील उपाध्याय

1. समय के खिलाफ लड़ रहा हूं

शायद तुम्हें पता है,

मैं सपनों के हक में

समय के खिलाफ लड़ रहा हूं।

निहत्था और अकेला।

उन पलों के सपने जो

साझा  वक्त में देखे थे।

भले ही, सपने अलग थे।

यूं भी,

भूख और आजादी का सपना

कभी एक नहीं होता।

फिर भी, मैंने रोटी के सपने को

आजादी के वास्ते सरेंडर किया,

क्योंकि तुमने कहा था,

गुलामी, भूख से ज्यादा मारक होती है।

पर, देह और दिमाग की भूख!

तुम्हारे सपने, तुम्हारी आजादी के हक में

तनी मुट्ठियों और आवेगी आवाजों में

मेरा दमित स्वर भी शामिल है।

इस निवेदन के साथ

कि

भूख, आजादी से बड़ा प्रश्न है?

मैं, वक्त के खिलाफ तुम्हारी आजादी के साथ खड़ा हूं,

यह जानते हुए भी कि

हर लड़ाई सच्ची नहीं होती। 

2. सब्बम दुख्खम!

दुखों से रिश्ते को

क्या कहते हैं?

नहीं पता!

हजारों साल से

मन में बैठा है

दुखों से रिश्ते का दर्द।

जैसे, एक बहाना चाहिए

किसी भी वक्त दुखातुर होने का।

हरे पत्ते, मंद हवा,

रूपाभ चांदनी, गुनगुनी धूप,

गहरा पानी, खिली सुबह,

और भी अनगिनत कारण।

मन कर देता

सबका रूपांतरण

दर्द की अनंत परतों में।

फिर तलाशते रहिए

हजारों परतों तले दबा

खुशी का एक लम्हा।

यही लम्हा बाधा है

दुखों से रिश्ते की राह में,

जो खड़ी करता है द्वंद्व की दीवारें,

दीवारों के पार खड़ी उम्मीदों की रोशनी,

पर,

बहुत बड़ी है दीवार तक जाने की उलझन।

आखिर,

सदियों के रिश्ते को कैसे तोड़ें

एक झटके में!

क्या सोचेगा दर्द,

यही कि

जीवन नहीं सब्बम दुख्खम!

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