“राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के रिश्ते की सीमा को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से याद दिलाया है, लेकिन कम होने का नाम नहीं ले रही बीमारी”
पिछले साल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली महाविकास अघाड़ी सरकार के गिरने में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर 15 मई को आई सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पचहत्तर वर्ष के इस लोकतंत्र के समक्ष मौजूद सबसे गंभीर खतरे को रेखांकित करती है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की अध्यक्षता करते हुए प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने कहा कि एक राज्यपाल ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे निर्वाचित सरकार गिर जाए। उन्होंने कहा, “यह लोकतंत्र के लिए बहुत, बहुत गंभीर बात है।” यह पहली बार नहीं है कि शीर्ष अदालत ने राज्यपालों को उनकी भूमिका याद दिलाई हो। न ही पहली बार किसी राज्यपाल ने किसी चुनी हुई सरकार को गिराने की हरकत की है। आजादी के बाद सूची बनाई जाए तो ऐसे दर्जनों मामले मिलेंगे, जहां राज्यपालों ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है। हर बार अदालतों से उन्हें फटकार झेलनी पड़ी है, उनके फैसले पलटे गए हैं। बाकायदा दो आयोग बनाए जा चुके हैं जिन्होंने इस विषय पर अपनी सिफारिश रखी है। इसके बावजूद यह प्रशासनिक बीमारी कायम है।
संविधान सभा में अपने प्रसिद्ध भाषण में बी.आर. आंबेडकर ने 2 जून 1949 को साफ कहा था कि ‘संविधान के अंतर्गत ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे राज्यपाल खुद अंजाम दे सके’ और ‘उसके कार्यभार सीमित होते हैं’। इसके बावजूद राज्यपालों द्वारा चुनी हुई सरकारों पर अपनी मनमर्जी चलाने के संबंध में प्रावधानों की वैधता का मसला हमेशा कानूनी और राजनीतिक पचड़े में फंसा रहा। इसकी वजह यह थी कि हमारे संविधान निर्माताओं ने दूसरे संवैधानिक पदाधिकारियों की तरह राज्यपाल की शुचिता में भी अपनी आस्था जताई थी। संविधान सभा की बहस के दौरान एच.वी. कामथ ने बहुत मार्के का सवाल पूछा था कि सरकार के राजकाज में राज्यपाल के हस्तक्षेप न करने की क्या गारंटी है। इसके जवाब में पी.एस. देशमुख ने कहा था, ‘गारंटी राज्यपाल का अपना विवेक है और उसे नियुक्त करने वाली इकाई का विवेक।’ इस तरह कुल मिलाकर मामला विवेक या नीयत पर आकर अटक गया।
भारत में आजादी के बाद का अनुभव दिखाता है कि शायद ही कुछ राज्यपालों ने इस विवेक का इस्तेमाल किया वरना केंद्र में सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, सबने अपने राजनीतिक हित में अपने एजेंट के तौर पर अपने द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों का इस्तेमाल किया और राज्यपाल भी बराबर इस्तेमाल होते रहे। इस सिलसिले में सुरजीत सिंह बरनाला का उदाहरण अपवाद है जो किसी भी आयोग या अदालत से कहीं बड़ी नैतिक नजीर हो सकता है।
सन 1990 से 1991 तक महज साल भर के लिए बरनाला तमिलनाडु के राज्यपाल रहे। उस दौरान उन्हें केंद्र से कहा गया कि वे अनुच्छेद 356(1) के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश भेजें। बरनाला ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। केंद्र ने दंड देते हुए उन्हें बिहार भेज दिया। विरोध में बरनाला ने इस्तीफा दे दिया था। नैतिकता और विवेक के ऐसे उदाहरणों का सामान्य तौर से अभाव रहा है।
संविधान सभा में 31 मई 1949 को उसके सदस्य बिस्वनाथ दास ने अपना कड़वा अनुभव सुनाते हुए कहा था कि उनके प्रांत के राज्यपाल कैसे उनकी पार्टी को तोड़ने की साजिश रच रहे थे, जब वे वहां के प्रधानमंत्री थे। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया कानून, 1935 के बाद से औसतन ऐसे ही अनुभव रहे हैं जहां राजभवन निर्दिष्ट भूमिका से आगे बढ़कर काम करता रहा है और मुख्यमंत्रियों की स्वायत्तता में दखल देता रहा है।
कानून भरोसे रिश्ताः दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (बाएं) और एलजी विनय सक्सेना
अनुच्छेद 163(1) स्पष्ट करता है कि राज्यपाल सामान्य तौर से कैबिनेट के फैसलों से बंधा होता है। इस मामले में 1974 में शमशेर सिंह का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपवादी स्थितियों को परिभाषित करता है। 1982 में रामदास नाइक और 2004 में मध्य प्रदेश के फैसलों में सुप्रीम कोर्ट इसे दुहरा चुका है। राज्यपाल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने से संबंधित अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के संबंध में 1994 का ऐतिहासिक फैसला एसआर बोम्मई के मामले में आया था। 2016 में अरुणाचल प्रदेश में सरकार बदले जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नजीर बन चुका है जिसका संदर्भ महाराष्ट्र के ताजा फैसले में भी आया है। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश मदन लोकुर ने इस मामले में स्पष्ट कहा था कि एक संसदीय लोकतंत्र के भीतर राज्यपाल का कार्यपालिका पर प्रभुत्व नहीं हो सकता, ऐसे में विधायिका पर उसके प्रभुत्व की बात ही अकल्पकनीय है। राज्यपालों की भूमिका पर पुंछी और सरकारिया आयोग की सिफारिशें भी नजीर हैं।
राज्यपालों की भूमिका से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों पर इतने फैसलों और सिफारिशों के बावजूद महाराष्ट्र के मामले में आया मौजूदा फैसला इस मायने में अलग माना जाना चाहिए कि जिस गति से 2014 के बाद केंद्र ने राज्यपालों का इस्तेमाल दूसरे दलों की प्रांतीय सरकारों को गिराने या अस्थिर करने में किया है, पहले ऐसा नहीं हुआ था। असहमत राज्य सरकारों में राज्यपाल के माध्यम से दखल देकर संवैधानिक विचारधारा का जिस कदर उल्लंघन 2014 के बाद किया गया है, वह पहले कभी-कभार ही होता था। जाहिर है, इस उल्लंघन की जड़ें लचीले संवैधानिक प्रावधानों में छुपी हैं, लेकिन केंद्र की सरकार का चरित्र और राजनीतिक विचारधारा भी संविधान के आड़े आती है।
भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आस्था हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा में है। यह विचार एकरंगी है और संघीयता के खिलाफ है। यह सत्ता के विकेंद्रीकरण में विश्वास नहीं करता है। न ही केंद्र और राज्यों के बीच समतापूर्ण संबंधों को यह मानता है। यही वजह है कि तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, अरुणाचल, गोवा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि ऐसा कोई राज्य बमुश्किल ही बच रहा है जहां उसने चुनी हुई सरकारों के साथ छेड़खानी न की हो। बीते नौ वर्ष में ऐसे मामले लगातार बढ़े हैं। 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जबरन सरकार गिराए जाने के बाद के घटनाक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री को फांसी लगानी पड़ी हो, जैसा कलिखो पुल के साथ अरुणाचल में हुआ।
इसीलिए महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताजा हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो जाता है। बहुत संभव है कि लोकतंत्र के हक में सुप्रीम कोर्ट की इस सक्रियता को सरकार समझ भी रही हो। इस फैसले के महज चौथे दिन केंद्रीय कानून मंत्री को बदला जाना संयोग नहीं हो सकता। इसके अलावा, केंद्र सरकार संसद में स्पष्ट कह चुकी है कि वह सरकारिया आयोग की सिफारिश के आधार पर अनुच्छेेद 155 में बदलाव करने की कोई मंशा नहीं रखती। यानी संविधान में मौजूद एक उदार प्रावधान का मुसलसल दुरुपयोग नीति का नहीं, नीयत का मसला है। आसन्न लोकसभा चुनावों के मद्देनजर यह भी संयोग नहीं है।
लाइलाज बीमारी का सिलसिला
आजाद भारत में 1957 के दूसरे चुनाव के बाद से ही विपक्षी सरकारों के प्रति- खासकर केरल में- राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठे। 1959 में इंदिरा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ वाम मोर्चे की ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद की सरकार गिर गई। 1969 में पश्चिम बंगाल में राज्यपाल धर्मवीर पर अजय मुखर्जी की बांग्ला कांग्रेस और माकपा की गठजोड़ सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगा। ऐसे मामले हालांकि हाल के दौर में राज्यपालों के रवैये के मुकाबले काफी मर्यादित दिखते हैं। एक नजर:
पहले के चुनिंदा मामले
1984 आंध्र प्रदेश, राज्यपाल: राम लाल
अगस्त-सितंबर 1984 में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रामलाल ने मंत्री नदेंदला भास्कर राव को मुख्यमंत्री बना दिया था, जब मौजूदा मुख्यमंत्री तेलुगुदेशम के एन.टी. रामाराव दिल की सर्जरी के लिए विदेश गए थे। एनटीआर ने राष्ट्रपति के सामने बहुमत विधायकों की परेड कराई और दोबारा मुख्यमंत्री बने।
सिक्किम, राज्यपाल: होमी तालयारखान
सिक्किम के राज्यपाल होमी तालयारखान ने मुख्यमंत्री नर बहादुर भंडारी की सरकार के खिलाफ केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार को 20 पन्ने की गोपनीय रिपोर्ट भेजी। भंडारी ने राज्यपाल को हटाने की मांग की। इंदिरा गांधी की सरकार ने भंडारी की सरकार को बर्खास्त कर दिया।
1988 कर्नाटक, राज्यपाल: पी.वेंकटसुबैया
1988 में कर्नाटक के राज्यपाल पी. वेंकटसुबैया ने एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया। इस मामले को 1994 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक बोम्मई फैसले के साथ सुलझाया गया था। विधायक केआर मोलाकेरी ने 18 विधायकों के समर्थन का दावा किया। बोम्मई को बहुमत साबित करने का अवसर नहीं दिया गया। राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की और राजीव गांधी सरकार ने स्वीकार कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट का बोम्मई फैसला आज भी कायम है कि बहुमत का फैसला सदन में होगा।
1998 उत्तर प्रदेश, राज्यपाल: रोमेश भंडारी
1998 में लोकसभा चुनाव के बीच जगदंबिका पाल के नेतृत्व वाली 22 सदस्यीय लोकतांत्रिक कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की भाजपा सरकार को बर्खास्त कर पाल को बमुश्किल 24 घंटे के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। कोर्ट ने कल्याण सिंह को बहाल कर फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया।
2005 बिहार, राज्यपाल: बूटा सिंह
बिहार में 2005 के विधानसभा चुनावों में कोई भी पार्टी या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। जद(यू) और भाजपा वाले एनडीए ने दो महीने बाद 115 विधायकों के समर्थन का दावा किया, हालांकि राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह को कड़ी फटकार लगाई, जिन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया।
झारखंड, राज्यपाल: सैयद सिब्ते रजी
विधानसभा चुनावों के बाद एनडीए ने दावा किया कि उसके पास पर्याप्त संख्या है, लेकिन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया। सोरेन को नौ दिन बाद विश्वास मत का सामना किए बिना इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री बने।
मौजूदा दशक के मामले
2016 उत्तराखंड, राज्यपाल: केके पॉल
हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार मार्च 2016 में उत्तराखंड में नौ विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद संकट में आ गई। भाजपा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और राज्यपाल केके पॉल ने 28 मार्च तक बहुमत साबित करने को कहा था, लेकिन विश्वास मत से एक दिन पहले कांग्रेस के नौ बागियों को अयोग्य घोषित कर दिया गया। केंद्र की एनडीए सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। कांग्रेस इस मामले को हाइकोर्ट ले गई और कोर्ट ने रावत के पक्ष में फैसला सुनाया।
अरुणाचल प्रदेश, राज्यपाल: ज्योति प्रसाद राजखोवा
सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा का रवैया संविधान के विपरीत पाया और कांग्रेस सरकार को बहाल किया। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था, ‘राज्यपाल को राजनीतिक दलों के भीतर किसी भी असहमति, कलह, वैमनस्य, या असंतोष से व्यक्तिगत रूप से दूर रहना चाहिए।’
दिल्ली, उप-राज्यपाल: नजीब जंग
करीब साढ़े तीन साल तक उपराज्यपाल नजीब जंग का दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार के साथ चला विवाद उनके इस्तीफे के साथ समाप्त हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा था कि दिल्ली सरकार के पास ठीक से काम करने के लिए कुछ शक्तियां होनी चाहिए।
2017 गोवा, राज्यपाल: मृदुला सिन्हा
गोवा में 2017 में 40 सदस्यीय सदन में कांग्रेस 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। भाजपा 13 सीटें पर जीती थी। राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने कुछ क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय के साथ भाजपा के चुनाव के बाद गठबंधन के नेता मनोहर पर्रीकर को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई
मणिपुर, राज्यपाल: नजमा हेपतुल्ला
मणिपुर में 60 सदस्यीय सदन में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने भाजपा को समर्थन देने वाले विधायकों की सूची के साथ उसे आमंत्रित किया।
2018 कर्नाटक, राज्यपाल: वजुभाई वाला
भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। कांग्रेस ने जद (एस) के साथ चुनाव के बाद गठबंधन किया। राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दिया। कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट पहुंची। अदालत ने अगले दिन बहुमत साबित करने को कहा। येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया। एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में जेडी-एस और कांग्रेस की गठजोड़ सरकार बनी।
जम्मू-कश्मीर, राज्यपाल: सत्यपाल मलिक
जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने विपक्षी दलों को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया। कहा कि राजभवन में फैक्स मशीन काम नहीं कर रही थी इसलिए उन्हें पत्र नहीं मिला। पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने कहा था कि उन्होंने ट्विटर और व्हाट्सएप के माध्यम से भी सरकार बनाने के दावे के पत्र भेजे थे।
2019 महाराष्ट्र, राज्यपाल: भगत सिंह कोश्यारी
2019 में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूटा और शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस का महाविकास अघाड़ी बना। राज्य को केंद्रीय शासन के अधीन रखा गया था। इससे पहले कि तीनों दल दावा पेश करते, सुबह पांच बजकर 47 मिनट पर राष्ट्रपति शासन हटा दिया गया और राज्यपाल कोश्यारी ने भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और राकांपा नेता अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। अगले दिन फ्लोर टेस्ट से पहले फडणवीस ने इस्तीफा दिया और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने। कोश्यारी विधानसभा अध्यक्ष और ठाकरे को विधान परिषद से चुनाव के मामले में भी अड़ंगा लगाए रहे। डेढ़ साल बाद शिंदे गुट शिवसेना से टूटा तो ठाकरे को बहुमत साबित करने को कहा, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गैर-कानूनी बताया।
पश्चिम बंगाल, राज्यपाल: जगदीप धनखड़
जगदीप धनखड़ ने विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया और कथित तौर पर भाजपा की मांगों का समर्थन करते रहे। धनखड़ के पूर्ववर्ती केसरीनाथ त्रिपाठी के भी बनर्जी के साथ बड़े मतभेद थे।
2020 राजस्थान, राज्यपाल: कलराज मिश्र
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी में बगावत के बाद बहुमत साबित करने के लिए सत्र बुलाने से राज्यपाल ने इनकार कर दिया। राज्यपाल ने ‘ऊपर से दबाव’ का खंडन किया।
2021 पुदुच्चेरी, उप-राज्यपाल: किरण बेदी
साढ़े चार साल तक मुख्यमंत्री वी नारायणसामी ने उप-राज्यपाल पर आरोप लगाया कि वे सरकार के हर कदम को रोक रही हैं और अंत में चार इस्तीफों के बाद सरकार गिर गई।
2022 केरल, राज्यपाल: आरिफ मोहम्मद खान
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच गंभीर असहमति का मुद्दा हाइकोर्ट में गया, जिसने नौ कुलपतियों के इस्तीफे की मांग करने वाले चांसलर (राज्यपाल) के आदेश को चुनौती देने के लिए सरकार को एक विशेष बैठक की अनुमति दी। राज्य सरकार ने राज्यापाल को चांसलर पद से हटाने के लिए कानून लाने की बात कही थी।
2022 तमिलनाडु, राज्यपाल: आरएन रवि
2022 और 2023 में तमिलनाडु विधानसभा से पारित कई विधेयकों को राज्यपाल आर.एन. रवि ने अत्यधिक देरी के बाद स्वीकार किया या वापस कर दिया। तमिलनाडु की विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें केंद्र सरकार से विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों के लिए समय सीमा निर्दिष्ट करने का आग्रह किया गया।
2023 छत्तीसगढ़, राज्यपाल: अनुसुइया उइके
फिलहाल मणिपुर की राज्यपाल अनुसुइया उइके 23 फरवरी 2023 से पहले तक छत्तीसगढ़ की राज्यपाल थीं। छत्तीसगढ़ सरकार ने आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 76 प्रतिशत कर दिया, तो उन्होंने मंजूरी देनेे से इनकार कर दिया। राज्य सरकार छत्तीसगढ़ के हाइकोर्ट में पहुंची।
दिल्ली, उप-राज्यपाल: विनय सक्सेना
नजीब जंग के बाद उप-राज्यपाल बनाए गए विनय सक्सेना ने शुरुआत से ही दिल्ली सरकार के तमाम फैसलों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। उन्होंने अधिकारियों की तैनाती वगैरह में गहरा हस्तक्षेप शुरू कर दिया और वित्तीय मामलों में पहले अनुमति लेने के कथित प्रावधान के तहत 2023 में सरकार को बजट पेश करने से भी रोक दिया। बाद में अदालती हस्तक्षेप से बजट पेश हो पाया। सुप्रीम कोर्ट का नया आदेश है कि चुनी हुई सरकार के फैसले राज्यपाल मानने को बाध्य हैं।
पंजाब, राज्यपाल: बीएल पुरोहित
आम आदमी पार्टी की सरकार से राज्यपाल पुरोहित का शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा। उन्होंने विधानसभा का बजट सत्र बुलाने की मांग भी ठुकरा दी। बाद में अदालती हस्तक्षेप के बाद बजट सत्र बुलाया जा सका था।