रघुवर दास अकेले पड़ गये हैं ? यह सवाल राजनीतिक हलकों में तेजी से पसर रहा है। पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले झारखण्ड के एकलौते मुख्यमंत्री हैं। और प्रदेश के एकमात्र गैर आदिवासी मुख्यमंत्री भी रहे। पांच टर्म विधायक रहे। विधानसभा भवन से लेकर निर्माण के अनेक काम कराये तो धर्म परिवर्तन पर रोक जैसे क्रांतिकारी कानून को अभी आकार दिया। अचानक कमजोर क्यों दिखने लगे। क्या पार्टी में ही विरोधी लोग खामोश रहकर इन्हें घेरने में लगे हैं।
मैनहर्ट घोटाला, राज्यसभा चुनाव में हॉर्स ट्रेडिंग में सहित कुछ अन्य मामलों में हेमन्त सरकार रघुवर दास को घेर रही है। दूसरी तरु रघुवर दास के कैबिनेट में मंत्री रहे निर्दलीय विधायक सरयू राय ने कोई दो दर्जन घोटालों और योजनाओं में अनियमितता का आरोप लगाते हुए रघुवर दास के कार्यकाल की जांच के लिए आयोग गठित करने की मांग की तो झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने भी इसी आरोप के हवाले सरकार से आयोग के गठन की मांग कर दी। हर छोटी बड़ी बात पर सरकार के खिलाफ आक्रमण का मौका न चूकने वाली भाजपा इस प्रकरण पर खामोश सी रही।
अभी एम्स देवघर में ही ओपीडी का वर्चुअल उद्घाटन होना था। वहां के सांसद निशिकांत दुबे को कोरोना के कारण सिर्फ शारीरिक रूप से कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति नहीं मिली तो कार्यक्रम ही रद कर दिया गया। भाजपा इस मुद्दे पर लगातार आक्रामक रही। मगर रघुवर दास के मुद्दे पर पार्टी चुप्पी लगाए हुए है। हालांकि रघुवर दास नहीं मानते कि पार्टी खामोश रही। उन्होंने आउटलुक से कहा कि पार्टी ने भी काउंटर किया कि वह जांच हो तो बालू और खनन सिंडिकेट की भी जांच हो। रघुवर दास कहते हैं कि हेमन्त सरकार के आने के बाद से ही जांच जैसी मांग उठी तो मैंने कहा कि आपकी सरकार है देर कैसी, जिससे चाहें जांच करा लें। सांच को आंच क्या।
हेमन्त सरकार के सत्ता में आने के पूर्व रघुवर दास की तूती बोलती थी, राजनीतिक दबंगई थी। नेतृत्व का भी पूरा भरोसा हासिल था। हैसियत ऐसी कि 2019 के विधानसभा चुनाव में टिकट बांटने के लिए इन्हें फ्री हैंड मिल गया। उन्हीं के कैबिनेट में मंत्री रहे सरयू राय और नगर विकास मंत्री रहे सीपी सिंह के टिकट में विलंब के कारण ये दोनों उनके विरोधी हो गये। ऐसे कुछ और लोग भी हैं। चुनाव का समय था तो पार्टी को आगे करने के बदले घर-घर रघुवर और अबकी बार 65 पार का नारा दिया गया। मगर नतीजों ने बताया कि कहीं चूक रह गई। लक्ष्मण गिलुआ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो लोग यही मानते रहे कि रघुवर दास की हामी के कारण उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया।
लोगों को समझ नहीं आ रहा कि इतना ताकतवर व्यक्ति पार्टी के मोर्चे पर ही बीते डेढ़ साल में इतना कमजोर कैसे हो गया कि पार्टी उनके साथ नहीं दिख रही। पार्टी के ही एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि सत्ता की ताकत के कारण उनकी भाषा में अहंकार भर दिया था यह उनके लिए नुकसानदेह साहिब हो गया। सरकार तो गई ही, अपनी सीट भी नहीं बचा सके। कुर्सी का प्रतिद्वंद्वी मानने की वजह से पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा से इनका फासला रहा। अर्जुन मुंडा की पत्नी टिकट का दावेदार थीं मगर उन्हें मौका नहीं दिया। आरोप यह भी लगा कि अर्जुन मुंडा जब खूंटी से चुनाव लड़ रहे थे तो रघुवर दास का साथ नहीं मिला। रघुवर कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा रखने वाले खूंटी से आने वाले नीलकंठ सिंह मुंडा ने भी रघुवर दास के इशारे पर काम किया। जानकार बताते हैं कि बाबूलाल मरांडी की इंट्री की बात भीतर ही भीतर पहले से चल रही थी मगर रघुवर दास को सूट नहीं कर रहे थे। अंतत: पराजय के बाद बाबूलाल मरांडी की इंट्री हुई।
प्रदेश के दोनों बड़े जनजाति नेता की इनसे बनी नहीं। कुर्सी चली गई तो दिल्ली का भरोसा भी टूट गया। किसी तरह उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर एडजस्ट किया गया। विधानसभा चुनाव में रघुवर दास राज्यसभा से दिल्ली जाना चाहते थे मगर पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश को मौका दिया। मधुपुर उप चुनाव में भी इनकी नहीं चली। इनके कैबिनेट में मंत्री और रघुवर दास के करीबी रहे राज पालिवार का टिकट ही कट गया। जिन लोगों को टिकट दिया था मौजूदा माहौल में ज्यादातर लोगो धारा के अनुकूल बहना चाहते हैं। रघुवर दास का समानांतर वाट्सएप न्यूज ग्रुप भी चलता है। स्थितियां अनुकूल नहीं रहीं तो पार्टी दफ्तर में भी कम ही दिखते हैं। बहरहाल रघुवर दास की सफाई अपनी जगह है मगर पार्टी के इस लड़ाकू सिपाही के पक्ष में पार्टी को जिस तरह खड़ा दिखना चाहिए वैसा दिख नहीं रही।