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शिवसेना के 50 साल : स्‍थापना के वो वादे हुए फुर्र, सैनिकों को याद कहां

19 जून 1966 को बाल ठाकरे ने महाराष्‍ट्र में शिवसेना की स्‍थापना की थी। उन्‍होंने उस वक्‍त वादा किया था कि दल का उद़देश्‍य 80 फीसदी सामाजिक कार्य और 20 फीसदी राजनीति करना होगा। लेकिन शिवसेना की उधेड़बुन की राजनीति से यह आभास हो रहा है कि शिवसेना ने स्‍थापना के अपने स्‍लोगन को लगभग भुला दिया है। गठन के बाद से ही शिवसेना ने खुद को 100 फीसदी राजनीतिक पार्टी के तौर पर स्‍थापित किया है।
शिवसेना के 50 साल : स्‍थापना के वो वादे हुए फुर्र, सैनिकों को याद कहां

व़र्तमान में उद्धव ठाकरे के नेतृत्‍व में शिवसेना एक बड़े लक्ष्‍य की ओर बढ़ रही है। अभी दल में 2019 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करनेे की रणनीति बनाई जा रही है। 50वीं सालगिरह के जश्‍न में शिवसेना ने सहयोगी भाजपा को निमंत्रण नहीं भेजा है। ऐसा करके शिवसेना चाैराहे पर आ गई है। वह आने वाले समय में भाजपा का साथ भी छोड़ सकती है। कयास यहीं लगाए जा रहे हैं कि शिवसेना ऐसा इसलिए कर रही है क्‍योंकि वह महाराष्‍ट्र के राजनीतिक मंच में एक सर्वशक्तिमान संगठन के रुप में पेश होना चाहती है। 

बाल ठाकरेे के निधन के बाद शिवसेना अभी तक यह फैसला नहीं कर पा रही कि वो पावर में रहकर सत्‍ता का सुख भोगे कि एक उग्र विरोधी ताकत के तौर पर खुद को मजबूत करे। अभी उसे कई चुनौतियों का सामना करना है।  2017 के नगर निगम चुनावों से पता चल जाएगा कि जनता उसे कितना तवज्‍जो देती है। 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में सेना ने 288 में से 63 सीटें जीती थीं और महाराष्‍ट्र की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। भाजपा 123 सीटों के साथ सबसे आगे थी। महाराष्‍ट्र की राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ, जब शिवसेना का कद गठबंधन सरकार में घटकर नंबर दो का हो गया।

शिवसेना के जनाधार में ऐसी कमी साफ संकेत दे रही है कि अब इस दल को अपने महाराष्‍ट्र में अपना वर्चस्‍व स्‍थापित करने के लिए कई कारगर कदम उठाने होंगे। संगठन की दोबारा तूती तभी बोलेगी जब वह एक राय और एक विचार पर काम करना शुरु कर दे। कभी भाजपा की आलोचना तो कभी उसकी तारीफ शिवसेना को और बुरी स्थिति में ला सकती है। दलगत राजनीति से उठकर जनता के हितों पर ध्‍यान देते हुए शिवसेना अगर महाराष्‍ट्र के विकास को अपना मुख्‍य उद़देश्‍य बनाए रखेगी तो वह दोबारा अपना जनाधार पा सकती है। 

अपने मुखपत्र सामना के जरिए केंद्र की मोदी सरकार पर हमला बोलना और एनडीए सरकार का सक्र‍िय भागीदार बने रहना उसके लिए एक बड़ा विरोधाभास है। आने वाले दिनों में पार्टी को इस रुख में सामंजस्‍य स्‍थापित करने में दिक्‍कत आएगी। हालांकि, लगातार चुनावों में सेना को सबसे बड़ी चुनौती भाजपा की ओर से ही मिली है। इस वजह से सेना खुद को अजीबोगरीब स्थ‍िति में पा रही है, जहां उसे भाजपा का समर्थन करते हुए राजनीतिक दबदबे के लिए उससे लड़ना भी है। इन दोनों के बीच संतुलन की कवायद ही पार्टी के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

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