अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा को एक महीने होने को आए मगर ऐसा लगता है कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत की राह कोई खास आगे नहीं बढ़ सकी है। अब भी दोनों देश सिर्फ बातचीत आगे बढ़ाने की बात ही कर रहे हैं।
आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने विवादित 10 लाख रुपये के सूट को तिलांजलि देनी ही पड़ी। प्रधानमंत्री के नाम की पट्टी वाले इस सूट की नीलामी प्रधानमंत्री मोदी को मिले 455 तोहफों के साथ हो रही है।
चुनिंदा नायकों या खलनायकों की भूमिका पर जरूरत से ज्यादा जोर देने के कारण इतिहास का सम्यक विवेचन नहीं हो पाता। जैसे गांधी, नेहरू, पटेल, जिन्ना और माउंटबेटन पर ज्यादा जोर देने से हमें भारत विभाजन के बारे में कई जरूरी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। मसलन, देसी मुहावरे में आम जनता को अपनी बात समझाने में माहिर और उनमें आजादी के लिए माद्दा जगाने वाले गांधी अपने तमाम सद्प्रयासों के बावजूद नाजुक ऐतिहासिक मौके पर आम हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के प्रति सांप्रदायिक दरार से बचने की बात समझाने में क्यों विफल रहे, नोआखली जैसी अपनी साक्षात उपस्थिति वाली जगह को छोडक़र? जिन्ना की महत्वकांक्षा और जिद को कितना भी दोष दें, कलकत्ता और अन्य जगहों का आम मुसलमान क्यों उनके उकसावे पर पाकिस्तान हासिल करने के लिए खून-खराबे पर उतारू हो गया?
राष्ट्र¬भाषा होने का दावा करने वाली हिंदी के मीडिया से तो इसी राष्ट्र का हिस्सा माना जाने वाला मणिपुर अमूमन गायब ही होता है और उत्तर पूर्व में असम अगर यदा-कदा चर्चा में आता भी है तो बिहारियों, झारखंडियों पर उग्रवादी हमले के कारण या अरूणाचल प्रदेश की चर्चा होती है तो चीनी दावेदारी के हंगामें के कारण। हिंदी के एक्टिविस्ट संपादक प्रभाष जोशी के निधन के बाद की चर्चा में यह प्रसंग जरूर आया कि वह 5 नवंबर को नागरिकों की एक टीम के साथ मणिपुर जाना चाहते थे लेकिन यह टीम मणिपुर की जिन उपरोक्त परिस्थितियों के बारे में एक तथ्यान्वेषण मिशन पर वहां जा रही थी उसका जिक्र ओझल ही रहा। और जिस ऐतिहासिक अवसर पर यह टीम मणिपुर जा रही थी उसका जिक्र तो भला कितना होता? यह ऐतिहासिक अवसर था 37 वर्षीय इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के दसवें वर्ष में प्रवेश का। गांधी और नेल्सन मंडेला की जीवनी सिरहाने रखे बंदी परिस्थितियों में इंफाल के एक अस्पताल में अनशनरत अहिंसक वीरांगना के नाक में टयूब के जरिये जबरन तरल भोजन देकर सरकार जिंदा रखे हुए है। अपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पिता और अपढ़ माता की नौवीं संतान शर्मिला सन 2000 में असम राइफल्स के जवानों पर बागियों की बमबारी के जवाब में सशस्त्र बलों द्वारा एक बस स्टैंड पर 10 निर्दोष नागरिकों को भूने जाने की खबरें अखबारों में पढक़र और तस्वीरें देखकर तथा उन सुरक्षाकर्मियों को सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के कारण सजा की कोई संभावना न जानकर इतना विचलित हुई कि उन्होंने इस तानाशाही कानून के खिलाफ आमरण अनशन का फैसला ले लिया।