क्या हम हल्दीराम की भुजिया खाने से पहले यह छानबीन करेंगे कि उस कंपनी में हमारी जात-बिरादरी, धर्म के कितने लोग, किन-किन पदों पर हैं? क्या झंडुु बाम लगाने से पहले भी हम उसकी धर्म-जाति तय करते हैं? अगर ऐसा नहीं है तो फिर रूह अफजा ने क्या बिगाड़ा है। इसकी मिठास में नफरत की चासनी क्यों मिलाई जा रही है?
सांप्रदायिकता का रंग इंसानों पर चढ़ते देखना तो आम है, लेकिन अब यह शरबत में भी कड़वाहट घोलने की तैयारी कर रहा है। कई वर्षों से भारतीय व्रत त्यौहारों और भंडारों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाला, गर्मियों में गला तर करने वाला ‘रूह अफजा’ अब सांप्रदायिकता की चपेट में हैं।