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अगर हम 'झंडू बाम' की जात नहीं पूछते तो 'रूह अफजा' ने क्या बिगाड़ा है?

क्या हम हल्दीराम की भुजिया खाने से पहले यह छानबीन करेंगे कि उस कंपनी में हमारी जात-बिरादरी, धर्म के कितने लोग, किन-किन पदों पर हैं? क्या झंडुु बाम लगाने से पहले भी हम उसकी धर्म-जाति तय करते हैं? अगर ऐसा नहीं है तो फिर रूह अफजा ने क्या बिगाड़ा है। इसकी मिठास में नफरत की चासनी क्यों मिलाई जा रही है?
अगर हम 'झंडू बाम' की जात नहीं पूछते तो 'रूह अफजा' ने क्या बिगाड़ा है?

मजहबी उन्माद अपने शिकार खोजने में बहुत शातिर और क्रूर है। इंसानों को मजहब के आधार पर बांटने के बाद अब बेजान चीजों का भी धर्म पैदा किया जा रहा है। कुछ पेड़-पौधों, रंगों, जानवरों के मजहब घोषित करने में काफी पहले ही सफलता पाई जा चुकी है, अब कट्टरता का अगला निशाना रूह अफजा जैसे उत्पादों पर है।

देश के असहिष्णु माहाैैैल पर आमिर खान की टिप्पणी के बाद 'स्नैपडील' के बहिष्कार की मुहिम हो या फिर शाहरुख खान की बातों से चिढ़कर उनकी फिल्मेें न देखने की अपील, बहुलतावादी दबंगई बाजार को हथियार बनने पर उतारू है। इसके लिए आजकल सोशल मीडिया सर्व सुलभ हथियार है। इसके जरिए भ्रम और अफवाहों की पैकेजिंग कर आसानी से जनभावनाएं सहलाने या भड़काने का खेल दिन-रात चलता रहता है। 

उदाहरण के तौर पर, सोशल मीडिया के रास्ते आजकल हमदर्द के रूह अफजा जैसे उत्पादों के बहिष्कार की हवा बनाई जा रही है। इसके पीछे तर्क है कि हमें हमदर्द के उत्पाद नहीं खरीदने चाहिए क्योंकि इसका मालिक किसी खास मजहब के लोगों को ही नौकरी पर रखता है।  यह संदेश फेसबुक, ट्विटर, व्हाटसएप पर खूूूब फैलाया जा रहा है। 

भ्रामक संदेश की पहुंच

अगर हम इस संदेश की बात करें तब इसका नतीजा काफी चौकाने वाला आया है। कल 'आउटलुक' की रिपोर्ट 'रूह अफज़ा की मिठास में सांप्रदायिकता की कड़वाहट' पर बहुत सारे कमेंट आए। कुछ प्रतिक्रियाओं के ज़रिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संदेश का असर कितना गहरा है।

दीपक बरनवाल पेशे से पत्रकार हैं वे लिखते हैं, जब शर्बत बनाने वाली कंपनी किसी खास धर्म के ही लोगों को नौकरी दे, तो उसे खास धर्म के लिए ही छोड़ देना चाहिए।।''

 

ऐसे ही कुछ और कमेंट भी आप देख सकते हैं-

 

आप देख सकते हैं कि कैसे किसी खास उत्पाद को हिंदू बनाम मुस्लिम में रूपातंरित किया जा रहा है। इस पर लोगों की प्रतिक्रियाएं भी हतप्रभ करने वाली हैं। संवाद की भाषा में भी टकराव की आहट साफ देखी जा सकती है।

 

 

 

 

क्या है संदेश की सच्चाई?

सोशल मीडिया पर काफी लोग इसे सच मानते दिख रहे हैं कि हमदर्द गैर मुस्लिमों को नौकरी पर नहीं रखता। वे तथ्यों  की जांच-परख कर रहे हैं अथवा नहीं यह कहना मुश्किल है, लेकिन साम्प्रदायिकता के खांचे में इस संदेश को फौरन फिट कर लिया जा रहा है। इसीलिए इस संदेश की सच्चाई जानने के लिए 'आउटलुक' ने पड़ताल की। हमने 'हमदर्द' से फोन के जरिये कांटेक्ट किया। फोन उठाने वाले व्यक्ति ने सोशल मीडिया के इस दावे का खंडन किया। उन्होंने कहा, ''मैं भी हमदर्द का कर्मचारी हूं। मैं स्वयं हिन्दू हूँ। मेरा नाम बृजमोहन है।''  बृजमोहन ने आगे बताया कि यहां मजहब को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। कई बड़े पदों पर गैर मुस्लिम या हिन्दू बैठे हुए हैं।

इसके अलावा हमने और भी जानकारी जुटाई और पाया कि हमदर्द के प्रोडक्ट डायरेक्टर मिहिर चक्रवर्ती भी गैर मुस्लिम हैं। कुल मिलाकर एक बड़ा तबका झूठ और भ्रम की साजिश का शिकार हो रहा है। बिना क्रॉस चेक किए साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने का काम जारी है।

 

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