श्रीकांत के उस मैच के बाद कुछ लम्हे भुलाए नहीं भूलते। लिन डैन के खिलाफ हार से पहले। श्रीकांत वो मैच यैन योर्गेंसन के खिलाफ जीते थे। जीतने के बाद वो कोच गोपीचंद की तरफ गए। गोपीचंद ने खुशी में दोनों मुट्ठियां भीचीं। विराट कोहली के जश्न की तरह लहराईं। उसके बाद श्रीकांत को गले लगाकर उन्होंने लगभग घूंसे मारने के अंदाज में उनकी पीठ थपथपाई। दिखाता है कि किस शिद्दत से वो जीत चाहते थे। वो अपने लिए किस तरह की चुनौती लेकर रियो पहुंचे थे।
नई चुनौतियां ढूंढना और उन्हें काबू करना गोपीचंद का शगल रहा है। लंदन ओलंपिक्स में उन्होंने सायना नेहवाल के पदक जीतने में अहम रोल अदा किया। अब रियो में सिंधु को चैंपियन की तरह खिलाने का श्रेय उन्हें जाता है। लंदन में सायना नेहवाल के कांस्य पदक के बाद उन्होंने कहा था कि आज मैं अगर मर भी जाऊं, तो कोई गम नहीं। मेरे दिल पर बोझ नहीं रहेगा। उनके दिल पर हमेशा यह बोझ रहा है कि वो ओलंपिक मेडल नहीं जीत पाए। चोट ने उनके करियर को रोक दिया। अपने मेडल को वो अपने शिष्यों के जरिए देखते हैं। तब उन्होंने एक लक्ष्य पूरा किया था। उसके बाद एक नया लक्ष्य ढूंढा। उसे रियो में सच कर दिखाया।
लंदन ओलंपिक में बैडमिंटन टीम खेल गांव के बजाय एक होटल में रुकी थी, क्योंकि खेल गांव से स्टेडियम की दूरी बहुत ज्यादा थी। जीत के कुछ देर बाद सायना और गोपी होटल चले गए थे। वहां मौजूद मीडियाकर्मियों को यह बताकर कि हम थोड़ा चेंज करके आ जाते हैं, फिर इंटरव्यू कर लीजिए। वापस आए, तो सायना से पूछा गया कि आपके लिए पदक क्या मायने रखता है, उनका जवाब था, ‘ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा गोपी सर के लिए मायने रखता है। हम होटल गए। गोपी सर कमरे में अपने बेड पर लगातार कूद रहे थे। उन्हें मैंने इतना खुश कभी नहीं देखा।’
सिंधु को वैसे भी वो अपनी बेटी जैसा मानते हैं। उनके बारे में बात करते हुए गोपी के चेहरे पर पिता की तरह भाव आते हैं। उनसे एक इंटरव्यू में पूछा गया था कि क्या आप सिंधु की गलतियों पर उन्हें सजा देते हैं। मुस्कान के साथ उनका जवाब था, ‘वो बच्ची है। बच्चों से गलतियां होती हैं। मेरा काम है उन्हें ठीक कराना।’ सिंधु का भी रवैया उनके लिए ऐसा ही है। उनका तमाम मामलों में एक ही जवाब होता है, ‘गोपी सर जैसा कहेंगे, वैसा करेंगे।’
अगर वो अपने शिष्यों के साथ इस तरह का लगाव न रखते तो शायद कामयाब नहीं हो पाते। उनकी एकेडमी में दिन सुबह चार बजे शुरू होता है। गोपी साढ़े तीन से चार के बीच पहुंच जाते हैं। शाम तक रहते हैं। इस दौरान उनकी एकेडमी में कौन खिलाड़ी क्या कर रहा है, सब उन्हें पता होता है। वो वन मैन शो हैं। एकेडमी के तमाम कोचेज उनके साथ होते हैं। बीच-बीच में वो खिलाड़ियों के पास खड़े होते हैं। उनका खेल देखते हैं। गलतियां बताते हैं। कोई नहीं कह सकता कि उन पर गोपी व्यक्तिगत तौर पर ध्यान नहीं दे रहे। उनकी पत्नी और पूर्व खिलाड़ी पीवीवी लक्ष्मी बताती हैं कि कई बार दो बजे उठकर वो प्लान कर रहे होते हैं कि फलां खिलाड़ी के गेम में क्या बदलाव करना बेहतर होगा।
इन सबके बीच गोपी का वो चेहरा भी सामने आता है, जहां गलती की कोई गुंजाइश नहीं। जहां अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाती। जहां तानाशाही चलती है। गोपी कहते हैं, ‘डेमोक्रेसी से चैंपियन पैदा नहीं होते। अगर आपको खेलों में आपको चैंपियन चाहिए, तो तानाशाह जैसा अनुशासन जरूरी है। खेल मजाक नहीं है।’ उनका रवैया खेल जीवन में भी था। बेहद सौम्य और शालीन व्यवहार वाले गोपीचंद का यह अलग रूप है। लेकिन सच है कि उस रूप ने एक के बाद एक भारत को बैडमिंटन चैंपियन दिए हैं। दोनों ओलिंपिक मेडलिस्ट उनकी एकेडमी से हैं। श्रीकांत क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे, वो उनकी एकेडमी से हैं। पिछले कुछ समय में जितने भारतीय खिलाड़ी दिखाई दिए हैं, उनमें से ज्यादातर हैदराबाद में गोपीचंद की एकेडमी से हैं।
आपको शायद ही ऐसा कोई उदाहरण याद आए, जहां गोपीचंद जैसे बड़े खिलाड़ी ने खेल से रिटायर होने के बाद भी अपने खेल को इतना समय दिया हो। जिसने इतने चैंपियन तैयार किए हों। कहा जाता है कि गुरु को मुक्ति तब मिलती है, जब शिष्य उससे बड़ा हो जाए। गोपीचंद ने इसे अपनी जिंदगी में अपनाया है। ओलंपिक के लिहाज से देखा जाए, तो आज उनके शिष्य बड़े मुकाम पर खड़े हैं। गोपी से भी ऊंचे मुकाम पर। फर्क बस यह है कि गोपी का कद भी उसके साथ बढ़ता जा रहा है। जीवन में जो सीखा, उसे संसार को वापस करना क्या होता है, इसे गोपी से समझा जा सकता है।