पिछले 25 साल में हमारे दैनिक उपयोग के जितने ज्यादा उपकरण आए हैं उनके हिसाब से हमारी भाषा में भी नए-नए शब्द आए हैं। कई ऐसे उपकरण, सेवाएं और शब्द हैं जिनके बगैर आज रोजमर्रा की जिंदगी की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। इन्होंने हमारी जिंदगी को बहुत आसान बना दिया है, लेकिन हर सुविधा अपने साथ खतरे भी लेकर आती है। इन बदलावों के बावजूद गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, स्त्री हिंसा, सांप्रदायिकता, जातिवाद, बिचौलियों के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा है, बल्कि इजाफा ही हुआ है। आधुनिक उपकरणों से लैस श्रमहीन जीवन नए रोगों की चपेट में आया है तो सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा भी बढ़ी है। जीवन को सुविधाओं के दुश्चक्र में फंसाने वाली ऐसी 25 चीजें, जहां से लौटना असंभव है।
मोबाइल फोन
नई सदी में जितनी भी तकनीकी प्रगति हुई है, उनमें ज्यादातर का वाहक मोबाइल फोन है। भारत में नोकिया मोबाइल 1995 में आया था। उसके बाद सीमेन्स, मोटरोला ने मोबाइल फोन बाजार में उतारा। 2004 से पहले तक इनकमिंग कॉल के भी पैसे लगते थे और मोबाइल बहुत कम लोगों के पास होता था। फिर रिलायंस ने जब पांच-पांच सौ रुपये में मोबाइल फोन को सुलभ बनाया तो अचानक सब कुछ बदल गया। लोगों को मोबाइल फोन की इस तरह आदत लगी। उस समय सीडीएमए और जीएसएम दो तरह की सेवाएं आती थीं। 2005 के आसपास बहुत सारी कंपनियां सीडीएमए के बाजार में उतर गईं। फिर एक कंपनी से दूसरी कंपनी में कनेक्शन को बदलना संभव बना दिया गया तो बाजार में मारकाट मच गई। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने मोबाइल फोन के बाजार को प्रभावित किया, केवल बड़े खिलाड़ी बचे रह गए और सीडीएमए का दौर 2010 के बाद तकरीबन समाप्त ही हो गया जब एंड्रॉइड प्लेटफॉर्म ने एकछत्र राज जमा लिया। इसी बीच दो खास तरह के मोबाइल फोन चर्चा में रहे। एक ब्लैकबेरी और दूसरा आइफोन। ब्लैकबेरी समय के साथ खत्म हो गया लेकिन आइफोन ने एंड्रॉइड से इतर अपने को बचाए रखा और धीरे-धीरे उच्चवर्ग से मध्यवर्ग तक पैठ बनाई। इसके समानांतर मझोले और निम्नवर्ग के उपभोक्ताओं को चीन के बने मोबाइल के बाजार ने पकड़ लिया। आज भी सबसे ज्यादा बिक्री चीन के बने सस्ते मोबाइल की ही है।
सर्च इंजन
इंटरनेट के सस्ता और सर्वसुलभ होने से उपभोक्ताओं को जो सबसे बड़ी सुविधा मिली वह सर्च इंजन की थी, यानी ऐसी वेबसाइटें जहां कुछ भी आसानी से खोजा सकता है। वैसे तो बाजार में कई सर्च इंजन हैं लेकिन गूगल का इस पर एकाधिकार है। दुनिया भर में इंटरनेट के सर्च बाजार के करीब 90 फीसदी पर गूगल का कब्जा है, उसके बाद बिंग, यांडेक्स, याहू, बाइडू जैसी कंपनियां दस फीसदी के बाजार में अपना-अपना हिस्सा रखती हैं। गूगल के एकाधिकार के चलते आम आदमी के ज्ञान की दुनिया तकरीबन पूरी तरह उसी के भरोसे हो गई है। लोगों ने आम तौर से अब लाइब्रेरी जाना छोड़ दिया है, किताबों के संदर्भ लेना बंद कर दिया है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सर्च इंजन के साथ एकीकरण के बाद अब एक कीवर्ड लिखने पर ही सतही जानकारी परदे पर आ जाती है, जिसके चलते सामान्य पाठक उसके विस्तार में नहीं जाता है। इस चक्कर में लोग गलत सलाहों को भी सच मान लेते हैं। जीवनशैली की दिक्कतों और रोगों, दवाओं आदि के मामले में ऐसी गफलत रोज सामने आती है। बीते दिनों गूगल के मैप के हिसाब से चलने पर कुछ लोगों की जान जा चुकी है।
ई-कॉमर्स
बाजार पहले मॉल में कैद हुआ, फिर कंप्यूटर और इंटरनेट तक सीमित हो गया। इंटरनेट और स्मार्टफोन के साथ आए ई-कॉमर्स ने खरीदार और विक्रेता के परंपरागत रिश्ते को हमेशा के लिए बदल डाला। अब दुकानें ढूंढना, मोलभाव करना और थक कर घर लौटना अतीत की बात हो चुका। घर बैठे एक क्लिक पर कुछ भी खरीदा जा सकता है, हालांकि इसके अपने झंझट हैं। आज लोग कपड़ों से लेकर किराने तक और मशीनों से लेकर फर्नीचर तक सब ऑनलाइन खरीद रहे हैं। दिक्कत तब आती है जब खरीदे हुए सामान को लौटाना होता है। आम तौर से सामान लौटाने में कहीं ज्यादा दिक्कत आती है। कभी-कभार जो मंगवाया जाता है उससे अलग सामान आ जाता है। इसके बाद ग्राहक सेवा को फोन लगाने में ही लोगों का दिन निकल जाता है। ऐसी ई-कॉमर्स कंपनियों के साथ दिक्कत यह है कि आप इनके दफ्तर नहीं जा सकते जबकि पहले दुकान पर जाकर सामान बदलवा सकते थे या झगड़ा भी कर सकते थे। आप यह भी पता नहीं लगा सकते कि जो सामान आपके पास पहुंचा है उसे किसने बेचा है, किसने भेजा है। इस तरह डिजिटल ग्राहक कुल मिलाकर वेबसाइटों पर दिए लैंडलाइन नंबर या चैट का गुलाम हो गया है। कभी अगर कंपनियां पैसे लौटाती भी हैं तो कूपन या प्वाइंट के रूप में, जिससे खरीदार को अफसोस ही होता है। फिर भी, आदत ऐसी पड़ गई है कि लोग घर से निकलने के बजाय मोबाइल पर खरीदारी को ही तरजीह देते हैं।
आइपीएल
अप्रैल 2008 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आइपीएल की शुरुआत की। यहां खिलाड़ियों की बोली लगाकर उन्हें खरीदने और उनकी टीम बनाने की सुविधा दी गई, जिसके चलते निजी कंपनियों ने अपनी-अपनी क्रिकेट टीम तैयार कर ली। आठ टीमों वाली टी20 लीग अब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में एक मजबूत स्थान बना चुकी है। आइपीएल ने नए चेहरों को मंच दिया। अब आइपीएल राज्यों तक पहुंच गया है। कई राज्यस्तरीय क्रिकेट लीग भी सामने आई हैं। खिलाड़ियों की बोली और खरीदारी अब क्रिकेट से निकल कर फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस, टेबल टेनिस और कबड्डी तक पहुंच चुकी है। अब खिलाड़ी और खेल विशुद्ध कारोबार का मसला हैं। क्रिकेट में सट्टा तो बहुत पुरानी बात होती थी, अब बाकायदे ऑनलाइन और ऐप्स के रास्ते सट्टा लगाने की सुविधा हो गई है। लोग मोबाइल पर अपनी-अपनी टीमें बना रहे हैं और क्रिकेट का जुआ खेल रहे हैं।
ऑनलाइन फूड डिलिवरी
एक समय था जब लोगों का मन घर के खाने से ऊबता था तो परिवार सहित वे डोसा, पाव भाजी या चाउमिन खाने रेस्तरां जाते थे। फिर घरों में टीवी आया, तो दो मिनट के नूडल्स का उन्हें ज्ञान मिला, डिब्बाबंद खाने की जानकारी मिली। उसके बाद भी लंबे समय तक बाहर खाने या बाहर से खाना मंगवाने का चलन परिवारों में लंबे समय तक नहीं आया। मोबाइल ऐप्स आने के बाद खानपान की संस्कृति एक झटके में बदल गई। अब घर बैठे खाने का ऑर्डर दिया जा सकता था। उसके बदले डिजिटल भुगतान करना भी संभव हो गया। तमाम कंपनियां फूड डिलीवरी के धंधे में आईं, लेकिन कुछ ही टिक पाईं। स्विगी, जोमैटो, आदि की आर्थिक कामयाबी ने और लोगों को ऐसे स्टार्ट-अप खोलने के लिए प्रेरित किया, तो उपभोक्ताओं में बाहर के खाने की आदत डाल दी। इन सेवाओं ने बहुत से लोगों को कम पैसे के रोजगार पर लगाने का काम किया, हालांकि उनके काम करने की स्थितियों पर सवाल उठते रहे। नंदिता दास ने फूड डिलिवरी के कर्मचारियों की बदहाल जिंदगी पर एक फिल्म भी बनाई है।
मॉल और मल्टीप्लेक्स
छोटे शहरों में भी आज सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाहॉल और हाट-बाजार इतिहास की बात हो चुके हैं। कुछ साल पहले तक दिल्ली जैसे महानगर में भी सिंगल स्क्रीन के कुछ सिनेमा हॉल बचे थे और वहां सस्ते टिकट मिला करते थे। आम तौर से लोग सिनेमा देखने जाते थे, तो बाजारों से खरीदारी कर के आते थे। रियल एस्टेट में आई तेजी ने बीते दो दशक में इस परिदृश्य को बदल डाला। अब मॉल के भीतर ही सिनेमाघर हैं और सिनेमाघरों के भीतर बाजार हैं। दिल्ली का मशहूर सिंगल स्क्रीन रीगल सिनेमा कोरोना के पहले ही बंद हो चुका था। यह दिल्ली के सिनेप्रेमियों के लिए बड़ा झटका था।
जिम
कुछ साल पहले स्वस्थ रहने का मतलब था टहलना, दौड़ना, खेलना और सेहतमंद भोजन करना। ज्यादा पेशेवर लोग अखाड़े में जाते थे, मिट्टी पोतते थे। फिर जिम आ गए और मर्दाना देह की छवियां फिल्मों और विज्ञापनों के माध्यम से गढ़ी जाने लगीं। पिछले जमाने के हीरो अप्रासंगिक हो गए, सिक्स या एट पैक ऐब का चलन आ गया। आज जिम एक ट्रेंड बन चुका है। न सिर्फ पुरुष, बल्कि औरतें भी जिम जाने लगी हैं। भागमभाग वाली जिंदगी में एक पेशेवर मध्यवर्गीय के लिए अब यह आदत और जरूरत है। लोग अब सिर्फ देहयष्टि बनाने के लिए जिम नहीं जाते, बल्कि मानसिक तनाव दूर करने और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए भी वहां जाते हैं। इसीलिए आज के जिम में सौना, स्पा, जकूजी, साम्बा और योग जैसी सेवाएं भी शामिल हो चुकी हैं।
साइबर ठगी
नब्बे के दशक में जब निजी पूंजी आई तो ठगी के तरीके बदले। हमने शेयर घोटाले से लेकर चिट फंड और पोंजी स्कीम तक के घोटाले देखे। जैसे-जैसे भारत डिजिटल हुआ, ठग भी डिजिटल हो गए। आज साइबर ठग फिशिंग ईमेल, फर्जी कॉल, और नकली वेबसाइट के जरिये बैंक खातों और डिजिटल वॉलेट को निशाना बनाते हैं। यूपीआइ फ्रॉड ने भी तेजी पकड़ी है, जहां ठग भुगतान के नाम पर नकली क्यूआर कोड भेजते हैं। इसे स्कैन करते ही पैसा आपके खाते से गायब हो जाता है। 2022 में भारत में साइबर फ्रॉड के दो लाख से ज्यादा मामले दर्ज हुए जिनमें करोड़ों का नुकसान हुआ।
क्रिप्टो मुद्रा
2009 में सतोशी नाकामोतो नाम के व्यक्ति ने बिटकॉइन नाम की एक ऐसी आभासी मुद्रा यानी क्रिप्टो मुद्रा पेश की जिसने दुनिया के आर्थिक ढांचे को हिलाकर रख दिया। बताया गया कि यह मुद्रा न तो किसी सरकार के अधीन है, न बैंकों की मोहताज। यह डिजिटल दुनिया का सोना था जिसे खदानों में नहीं, बल्कि कंप्यूटर प्रोग्राम के जरिये बनाया गया था।
पहली बार 2010 में जब 10,000 बिटकॉइन के बदले सिर्फ दो पिज्जा खरीदे जा सके, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह क्रिप्टो करेंसी एक दिन अरबों की बात करेगी। बिटकॉइन ने मौद्रिक प्रणाली को पूरी तरह बदल दिया। यह पैसे की लेनदेन को बिचौलियों से आजाद करने का प्रतीक बना। बैंकों की लंबी प्रक्रिया, मुद्रा की सीमा, और सरकारी नियंत्रण से परे क्रिप्टो ने दुनिया को विकेंद्रीकृत वित्त का रास्ता दिखाया। भारत सरकार अब भी इसको लेकर संशय में है, लेकिन लोग इसमें भारी संख्या में निवेश कर रहे हैं।
सोशल मीडिया
इंटरनेट के आने के बाद लोगों के बीच ऑनलाइन संपर्क के कई मंच आए। शुरुआत याहू के चैट रूम से हुई, फिर ऑर्कुट आया। इसके बाद ब्लॉग का जमाना आया, तो ब्लॉग एग्रीगेटर भी आए। ये तमाम सेवाएं समय के साथ पीछे चली गईं जब बाजार में फेसबुक आया। फेसबुक लोगों को आभासी माध्यम से आपस में जोड़ने का काम कर रहा था, तो इसे सोशल मीडिया का नाम दिया गया। इसके बाद ऐसे मंचों की झड़ी लग गई।
बीते दसेक साल में सामाजिक संवाद-संपर्क की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है। लोग यहीं एक-दूसरे से मिलते हैं, बात करते हैं, एक दूसरे का हाल जानते हैं और अपने जैसे लोगों का नेटवर्क बनाते हैं। सोशल मीडिया की लगातार इस बात के लिए आलोचना होती रही है कि उसने लोगों को समाज से काटकर अकेला कर दिया है और सामूहिकता का आभास रचकर उनके सोचने, समझने और जीने के तरीके को प्रभावित किया है।
ओटीटी
सिनेमाहॉल की लंबी कतारें और टीवी पर पसंदीदा धारावाहिक या फिल्म का इंतजार अब बीते दिनों की बात हो चुकी है। ओवर-द-टॉप (ओटीटी) मंचों ने हमारे देखने-सुनने के अनुभव को पूरी तरह बदल दिया है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉटस्टार और जी5 जैसे प्लेटफॉर्म मोबाइल और स्मार्ट टीवी के जरिये घर-घर पहुंच चुके हैं। कोरोना महामारी के दौरान सिनेमाहॉल बंद होने पर ओटीटी ने मुख्यधारा में अपनी पकड़ मजबूत की। 2023 तक भारत में ओटीटी देखने वालों की संख्या 50 करोड़ को पार कर चुकी थी।
ऐप आधारित कैब सेवाएं
सन 2000 के आसपास टैक्सी सेवा के नाम पर या तो केवल टैक्सी स्टैंड हुआ करते थे या एकाध महंगी निजी सेवाएं। दिल्ली जैसे शहर में सड़कों पर काली-पीली टैक्सियां भले घूमती दिखती थीं लेकिन उससे चलना किसी युद्ध जीतने जैसा लगता था। मिल भी जाए, तो मोलभाव की किचकिच, लेकिन किराया तय करना टैक्सी ड्राइवर का हक था। मीटर से चलने वाली मुंबई की टैक्सी व्यवस्था हर जगह नहीं थी। छोटे शहरों-कस्बों में बस स्टैंड पर जीप आदि मिल जाए, तो वह सवारी भर के ही चलती थी। महंगी रिजर्व बुकिंग ही इकलौती राह थी।
2010 से पहले रेडियो टैक्सी की एकाध सेवाएं आईं, लेकिन वे बहुत महंगी थीं इसलिए सर्वसुलभ नहीं थीं। मोबाइल फोन में एंड्रॉयड क्रांति के बाद से यह परिदृश्य बदला, जब रेडियो टैक्सी की ऐप्लिकेशन आधारित सेवाएं शुरू हुईं। इसके बाद ओला और उबर जैसी सेवाएं आईं। अब टैक्सी पाने का संघर्ष खत्म हो चुका था, लेकिन छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति वैसी ही थी। फिर इन सेवाओं का विस्तार हुआ, तो टैक्सी स्टैंडों की शामत आ गई। तमाम टैक्सी स्टैंड बंद हो गए और टैक्सी मालिक ओला-उबर के मजदूरों में बदल गए।
इसके बावजूद, अपनी गाड़ी किस्तों पर खरीद के ओला-उबर का काम करना तेजी से लोकप्रिय हुआ। ड्राइवरों को कंपनियों ने पार्टनर कहा। ओला ने तो एक समय में किस्त पर कार देनी भी शुरू कर दी थी। फिर ऑनलाइन भुगतान और क्रेडिट भुगतान की सुविधा जुड़ने के चलते पार्टनरों को घाटा होने लगा। जितनी तेजी से ओला-उबर आए थे, आज उनका बाजार मंदा पड़ गया है। ब्लू, इनड्राइव, और रैपिडो जैसी दूसरी सेवाएं उन्हें कड़ी टक्कर दे रही हैं।
पैपराजी
इंटरनेट के दौर में सेलेब्रिटियों के फोटो के प्रति लोगों की दीवानगी चरम पर रहती है। एक जमाना था, जब फिल्मी हस्तियों की फोटो देखने के लिए हिंदी में मायापुरी और अंग्रेजी में स्टारडस्ट जैसी पत्रिकाओं का लोग इंतजार करते थे। फिर ऐसे कैमरामैनों का समूह आया, जो सेलेब्रिटियों का पीछा कर उनके फोटो खींचने लगे। इससे मिलने वाली लोकप्रियता ऐसी बढ़ी कि अब सेलेब्रिटी खुद फोन कर अपने आने-जाने का कार्यक्रम इन कैमरामैनों को देते हैं।
केवाइसी
बीते दो दशक में केवाइसी शब्द हर आम आदमी की जबान पर आम हो चुका है। केवाइसी का मतलब है नो योर कस्टमर यानी अपने ग्राहक को जानें। विभिन्न किस्म की सेवाएं देने वाली कंपनियां अपने ग्राहकों की पहचान को जांचने के लिए केवाइसी करवाने की अनिवार्यता रखती हैं। इनमें बैंक से लेकर टेलिफोन कंपनी तक है। अब सरकारी सेवाओं में भी केवाइसी मांगी जाती है। इसके लिए आधार कार्ड, मोबाइल फोन नंबर, पता का सबूत, बिजली बिल, बायोमेट्रिक चिह्न आदि लगते हैं। केवाइसी में इकट्ठा हुए लोगों के निजी डेटा को कंपनियां बेच कर पैसा कमाती हैं और मार्केटिंग करती हैं। सरकारी तंत्र से भी निजी डेटा चोरी या लीक होने की घटनाएं आम हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) आजकल का मंत्र है। इंसान और मशीन के बीच के संबंध पर बहस दो ढाई सौ साल पुरानी है लेकिन इंसान ने कभी नहीं सोचा था कि मशीन भी उसके जैसा सोच सकेगी। एआइ ने इस धारणा को तोड़ा है, तो अब मशीनों की स्वायत्तता का खतरा भी पैदा हो गया है। अब मशीनें हमारी बात सुनकर, हमारे मूड या व्यवहार के हिसाब से हमें उत्पादों की सिफारिश करती हैं। यह तकनीक ऐसी है कि आपको बिना बताए आपकी जासूसी करती है। इसके फायदे भी हैं, लेकिन निजता में अतिक्रमण को लेकर सवाल बड़े हैं। सबसे ज्यादा चिंता रोजगारों को लेकर है, कि क्या एआइ नौकरियों को छीन लेगा। तकनीकी कंपनियों और मीडिया में लगातार हो रही छंटनी ने एआइ के शुरुआती खतरों को सतह पर ला दिया है, हालांकि आदमी के दिमाग पर नियंत्रण वाली बात पर अभी हमारे समाज में बहुत चर्चा नहीं है, जिसके ऊपर एलन मस्क जैसे कारोबारी लंबे समय से प्रयोग कर रहे हैं।
सिबिल
केवाइसी की तरह सिबिल भी लोगों की जबान पर चढ़ा नया शब्द है। यह आपके कर्ज लेने के रसूख को दिखाता है। इसका एक स्कोर होता है। जिसका जितना अच्छा स्कोर, उसे कर्ज मिलने की उतनी अच्छी सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं कि किसी ने कभी कर्ज नहीं लिया है तो उसे आसानी से कर्ज मिल जाएगा। इसके उलट, कर्ज लेने पर ही सिबिल स्कोर बनेगा और ज्यादा कर्ज मिलेगा। यानी, जो सिबिल स्कोर कर्ज लेने की अर्हता के लिए बना था, उसकी स्थिति अब उलट चुकी है। अब लोगों को अपना सिबिल स्कोर ठीक कराने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है।
ऑनलाइन शिक्षा-स्वास्थ्य
कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को एक झटके में डिजिटल सेवाओं का आदी बना दिया। यही वह दौर था जब शिक्षा और इलाज के पुराने तरीके चुपचाप डिजिटल तरीके में बदलने लगे। अब पढ़ाई करने के लिए स्कूल जाने की जरूरत नहीं थी। दवा लेने के लिए अस्पताल जाने की जरूरत नहीं थी। परीक्षा देने के लिए भी परीक्षा केंद्र नहीं जाना था। खून की जांच भी घर बैठे-बैठाए मुमकिन हो गई। बस शर्त यह थी कि आपके पास कंप्यूटर या मोबाइल हो और इंटरनेट। ऑनलाइन पढ़ाई पर बीते पांच बरस में बहुत से मंचों पर काफी बहसें हुई हैं। इसके फायदे तो प्रत्यक्ष दिखते हैं लेकिन इसके नुकसान बाद में समझ आते हैं। मसलन, कोरोना के दो वर्षों के दौरान जिन बच्चों ने ऑनलाइन क्लास की और आगे की कक्षाओं में चले गए, उनकी विषयों में दक्षता पर सवाल खड़े हो चुके हैं।
डेस्टिनेशन वेडिंग
इक्कीसवीं सदी में शादी दो परिवारों का रिश्ता भर नहीं रही, बल्कि भव्य कॉरपोरेट आयोजन में तब्दील हो गई है। अब शादी महज रस्मों का पालन नहीं, बल्कि एक अनुभव बन चुकी है। इस अनुभव को लेने के लिए पैसे खर्च किए जाते हैं और एक-एक पल की योजना बनाई जाती है। आम तौर से ऐसी शादियां किसी तीसरी जगह पर की जाती है ताकि वहां आने वाले लोगों के लिए वह यादगार रह जाए। इसलिए शादियां अब पहाड़, समुद्र किनारे या ऐतिहासिक किलों में हो रही हैं और हफ्ते से लेकर महीने भर तक चल रही हैं। मुकेश अंबानी के बेटे की शादी इस सदी की सबसे चर्चित शादी रही है जो महीनों तक चली और जिसमें दुनिया भर से लोग आए।
वायरल
दस-पंद्रह साल पहले कोई किसी से वायरल कहता था तो सामने वाला बुखार के अर्थ में उसे लेता था और हालचाल पूछने लग जाता था। सोशल मीडिया आने के बाद अचानक तेजी से लोकप्रिय हुए कंटेंट या व्यक्ति को वायरल कहा जाने लगा। जब कंटेंट वायरल हुआ, तो उससे कमाई होने लगी। जब मीडिया को समझ में आया कि कंटेंट वायरल होने से पैसा आता है, तो कंटेंट को जान-बूझ कर वायरल होने के हिसाब से गढ़ा जाने लगा। अब यह वायरल की बीमारी रील, वीडियो और ट्विटर पोस्ट तक पहुंच चुकी है। वायरल कंटेंट प्रसिद्धि और पैसा दे रहा है तो मौत का भी कारण बन रहा है।
ऑनलाइन सट्टा
भारत में शेयर बाजार अब सिर्फ बड़े निवेशकों का खेल नहीं रहा। अब मोबाइल ऐप्स और डिजिटल प्लेटफॉर्म ने आम आदमी के लिए शेयर बाजार में पैसा लगाना और खरीदना-बेचना आसान बना दिया है। अब एक स्मार्टफोन की स्क्रीन पर उंगलियां घुमाते हुए कोई भी व्यक्ति बाजार में जुआ खेल सकता है। एसआइपी और म्यूचुअल फंड जैसे साधनों ने निवेश को सिर्फ बड़े निवेशकों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि अब यह हर हाथ में है।
पैसे की डिजिटल लेनदेन
2016 में लॉन्च हुआ यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआइ) भारतीय खुदरा अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी डिजिटल क्रांति बनकर उभरा। वे दिन अब इतिहास बन चुके हैं जब एटीएम के बाहर लंबी कतारें लगती थीं या छोटे-मोटे लेन-देन के लिए नकदी की जरूरत पड़ती थी। आज चाय की दुकान से लेकर बड़े शोरूम तक हर जगह स्कैन करो और भुगतान करो का दौर है। कोरोना की महामारी ने डिजिटल लेनदेन की आदत लोगों में डाल दी है। निजी कंपनी पेटीएम का विज्ञापन प्रधानमंत्री कर चुके हैं।
बैटरी वाले वाहन
धुआंरहित बैटरी से चलने वाले वाहन इस सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक हैं। भारत में अब सड़कों पर बैटरी वाले निजी और व्यावसायिक वाहन खूब देखने में आ रहे हैं। टाटा नेक्सॉन ईवी, एमजी जेडीएस ईवी और हुंडई कोना जैसी गाड़ियां अब आम आदमी की पहुंच में हैं और सरकार की फेम योजना ने इन्हें और किफायती बना दिया है। इन गाड़ियों की बैटरी को चार्ज करने के केंद्र भी तेजी से बढ़ रहे हैं।
इनफ्लुएंसर
सोशल मीडिया पर खुद वायरल होने वाले या कंटेंट वायरल करवाने की क्षमता रखने वाले लोगों को इनफ्लुएंसर कहा गया। इंटरनेट से पहले के समाज में इनफ्लुएंसर का मतलब वह व्यक्ति होता था जिसकी बातें समाज पर प्रभाव डाल सकें। ऐसे लोग नेता होते थे, विद्वान होते थे, शिक्षक होते थे। सोशल मीडिया ने प्रभावकारिता के मामले में आदमी के जानकार या पढ़े-लिखे होने की अर्हता खत्म कर दी। अब इनफ्लुएंसर वो है जो कुछ हट कर ऐसा कर रहा है जिससे उसे लोकप्रियता मिले और लोकप्रियता के बदले पैसे आएं। इसीलिए मीडिया में भी ऐसे लोगों का बोलबाला हो गया है। अब ऐसे लोग कोई भी काम पैसा लेकर करते हैं, एक भी शब्द पैसे लेकर बोलते हैं। यानी इनफ्लुएंसर का मतलब है पैसे लेकर प्रचार करने वाला चेहरा।
वीगन भोजन पद्धति
पहले केवल शाकाहार और मांसाहार दो खाने की पद्धतियां होती थीं। अब एक तीसरी पद्धति आ गई है और इसका बाजार में बहुत तेज चलन है। इसे वीगन कहते हैं। हिंदी में इसके लिए कोई शब्द नहीं है। खासकर संपन्न तबकों में यह एक आंदोलन बनता जा रहा है।
ऑनलाइन जोड़ी
इंटरनेट और ई-कॉमर्स आने के बाद पंडितजी की जरूरत शहरों में धीरे-धीरे खत्म होने लगी। जोड़ियां वेबसाइटों पर बनने लगीं। डिजिटल हो चुकी हमारी सामाजिक दुनिया ने रिश्तों को नया मोड़ दे दिया है। मैट्रिमोनियल साइट जैसे शादी डॉट कॉम, भारत मैट्रिमनी, आदि ने युवाओं को अपना जीवनसाथी खोजने का नया रास्ता दिखाया है। जिन्हें शादी नहीं करनी, केवल मौज या दोस्ती करनी है उनके लिए डेटिंग ऐप्स हैं। ये मोबाइल ऐप्स आपको अपने मनमर्जी का पार्टनर ढूंढने की सहूलियत देते हैं। जाहिर है, इनकी सेवाएं लेने के लिए पैसे चुकाने पड़ते हैं।