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गांधी जयंती/नजरियाः हिंद स्वराज में आर्थिक तानाशाही से मनुष्य को बचाने के नुस्खे

आज का क्रोनी पूंजीवाद हमें आर्थिक तानाशाही की तरफ ले जा रहा है, जो लोग इसके नकारात्मक प्रभावों के कारण आज तकलीफ में हैं, उन्हें हमें राहत पहुंचानी होगी
दांडी मार्च में गांधी

आजकल की जो आर्थिक नीतियां हैं, उनमें इतना ज्‍यादा वृद्धि पर जो जोर दिया जा रहा है, गांधीजी की हिंद स्‍वराज उस पर एक बहुत बड़ी आलोचना है। उन्‍होंने आधुनिकता के खिलाफ हिंद स्‍वराज लिखी थी। वैसे तो पूरी आधुनिक सभ्‍यता के खिलाफ उन्‍होंने इस किताब में बात की थी, लेकिन आधुनिकता के दो-तीन तत्‍वों पर उन्‍होंने खास जोर दिया था।

उदाहरण के लिए, आधुनिक तकनीकी। उनका खयाल था कि अगर हम लोग बिना सोचे-समझे अंध‍विश्‍वास के साथ आधुनिक तकनीक और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देंगे तो यह मनुष्‍यों के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है। उनका कहना था कि हर प्रौद्योगिकी के साथ एक एथिक्‍स भी होती है। वैसे ऊपर से देखने में तो हर तकनीक मूल्‍य-निरपेक्ष लगती है, उसका कोई नीतिगत आयाम नहीं दिखता और हमें लगता है कि हम जिस भी नीतिगत दिशा में चाहें उसे ले जा सकते हैं। ऐसा नहीं है। गांधीजी का मानना था कि तकनीक और प्रौद्योगिकी के भीतर एक नीतिगत आयाम निहित है और वह नकारात्‍मक है। उन्होंने तो पूरे रेल तंत्र की ही बहुत बड़ी आलोचना की है। उन्‍होंने कहा कि हम लोग तीन सौ किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से सफर करने में लगे हुए हैं, लेकिन मनुष्‍य की जो अपनी स्वाभाविक लय है, आंतरिक गति है, रेलगाड़ी उस गति को विकृत करती है। वे मानते थे कि कई चीजें हमें धीमी ही करनी चाहिए। आधुनिक तकनीकी गति को बढ़ाती है। उससे हमारी मानवता में विकार आता है।

हिंद स्वराज

आप आजकल देख सकते हैं कि तेज गति पर काफी जोर है। हमारे सोच पर भी यह लागू है। जो व्‍यक्ति सबसे जल्‍दी जवाब देता है, अच्‍छा हो चाहे बुरा, उस पर हम लोग तालियां बजा देते हैं। पूरा टेलीविजन देख लीजिए। जो व्‍यक्ति सोच के बोलना चाहे उसके लिए वहां संभावना ही नहीं है। वह बोल ही नहीं सकता। तकनीक अपनी गति से हमारी गति को स्‍थानांतरित कर देती है। पूंजीवाद इसीलिए मनुष्यरोधी है। गांधी ने कभी पूंजीवाद शब्‍द का इस्‍तेमाल नहीं किया, लेकिन उनको इससे बहुत तकलीफ थी। उनका कहना था कि हम बाहरी चीजों के प्‍यार में अपने आत्‍म की उपेक्षा कर रहे हैं। पूरी आधुनिकता हमें एक से दूसरी और दूसरी चीज की ओर ले जा रही है, जबकि मनुष्‍य को अपने आंतरिक गुणों पर विचार करना चाहिए। यही बात धर्म पर भी लागू होती है, कि हम उसमें जितना गहरे जाते हैं उतना ही ऊपर उठते जाते हैं। उनका कहना था कि हर मानवीय रिश्‍ते के बीच में वस्‍तु आ जाती है। बाहरी चीजें इंसानी रिश्‍तों को बिगाड़ देती हैं। पुरानी सभ्‍यताओं में समस्‍या दूसरी थी। वहां असमानता थी, ऊंच-नीच थी। उसके बावजूद पहले रिश्तों में गरमजोशी हुआ करती थी। आज आधुनिकता में समस्‍या चीजों की है, तकनीक की है। आधुनिक सभ्‍यता में पहले जैसी गरमाहट नहीं है।

हमारे एक दोस्‍त हैं इम्तियाज अहमद साहब, वे जेएनयू में प्रोफेसर थे। मैं उनके साथ एक बार शिमला से वापस आ रहा था। रास्‍ते में कहीं चायवाले ने आवाज लगाई। उन्‍होंने कहा कि एक जमाना था कि यहां पर हिंदू चाय और मुसलमान चाय मिला करती थी, लेकिन दिल एक होते थे। अब चाय एक हो गई है पर दिल जुदा हो गए हैं। मैंने इसीलिए यह कहा कि आजकल आधुनिकता के चलते जो दिल जुदा हो जाते हैं, उसकी एक गहरी वजह है। गांधीजी उसी वजह को उभारना चाहते थे।

हम लोग तर्कबुद्धि को बहुत महत्‍व देते हैं। इसमें भी हम तर्कबुद्धि के सबसे व्‍यावहारिक और यांत्रिक स्‍वरूप को तरजीह देते हैं। हम लोग कभी भी अपने लक्ष्‍यों का मूल्‍यांकन नहीं करते। हम एक लक्ष्‍य तय करते हैं, फिर उसे पाने के लिए तर्कबुद्धि लगाने लगते हैं कि उसे पाने का सबसे सरल तरीका क्‍या हो। हम यह भी सोचते हैं कि दूसरा यदि उसमें बाधा डाले तो हम उसे अलग कैसे करें। हम यह नहीं सोचते कि इस प्रक्रिया में हम दूसरे की क्‍या हानि कर रहे हैं। यानी हम जो भी तरीका अपनाएं, वह सबसे तेज और सक्षम हो और दूसरों पर उसके प्रभाव की हम उपेक्षा करते जाएं, इसी तरह हम जीते हैं। इस प्रवृत्ति को आधुनिक पूंजीवाद और सभ्‍यता ने प्रोत्‍साहित किया है। गांधीजी ने हिंद स्‍वराज में इस पर काफी लिखा है।  

हिंद स्‍वराज में दूसरा आयाम पर्यावरण का है जो आधुनिक सभ्यता से ही जुड़ा हुआ है। वे कहते थे कि हम लोग कुदरत पर मालिकाना कब्जा हासिल करने में जुटे हुए हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में प्रकृति से जो हमारा रिश्‍ता टूटता जा रहा है उस पर हम कभी नहीं सोचते। यह भी आधुनिक सभ्‍यता का एक बहुत बड़ा लक्षण है। प्रकृति से हमारा अलगाव हो चुका है।

आर्थिक वृद्धि पर अत्‍यधिक जोर दिया जाना और एक व्‍यक्ति, एक समूह या एक राष्‍ट्र के समग्र कल्‍याण की चिंता न करना ही गांधीजी की चिंता के केंद्र में था। यह आधुनिक सभ्‍यता की ही देन है। वस्तुपूजा, व्‍यक्ति-केंद्रीयता, पूंजीवाद इसके तत्‍व हैं और यह व्‍यक्ति के सबसे गर्हित तत्‍वों पर टिका हुआ है, उसकी अच्‍छाइयों पर नहीं। हिंद स्‍वराज एक छोटी सी किताब है, लेकिन गांधीजी ने 1909 में जो सब लिख दिया वह सब कुछ 1991 में बाद के घटनाक्रम पर बहुत लागू होता है। इस लिहाज से गांधी को हम लिबरल कह सकते हैं, हालांकि पश्चिमी लिबरल सोच के तत्‍व उनके भीतर नहीं हैं। आप लिबरल को कैसे देखते हैं, इस पर निर्भर करता है कि आप हिंद स्‍वराज को कैसे देख रहे हैं। मसलन, अगर हम लिबरल को खुले दिमाग, सहिष्‍णुता, उदारता, ‘अन्‍य’ की स्‍वीकार्यता के संदर्भ में देखते हैं, तो कह सकते हैं कि हिंद स्‍वराज उस पुराने लिबरलिज्‍म का एक बहुत बड़ा उदाहरण है। जो लिबरलिज्‍म बर्बर पूंजीवाद से निकलता है, गांधी उसके खिलाफ हैं।

लिबरलिज्‍म के भीतर व्‍यक्तिवाद की बात होती है, व्‍यक्ति के उत्‍कर्ष की बात होती है, जीवन के संग प्रयोगों की बात आती है, कि हम अभी जो सोच रहे हैं या कर रहे हैं उसे कैसे आलोचनात्‍मक ढंग से देखा और जीया जाय। गांधीजी उस लिरबलिज्‍म के साथ थे। उन्‍होंने तो अपनी किताब का नाम ही सत्‍य के प्रयोग रखा था। न केवल मानसिक क्षमताओं बल्कि जीवन-प्रयोगों के माध्‍यम से व्‍यक्ति के उत्‍कर्ष की प्राप्ति की परंपरा हमारे यहां उपनिषद, बौद्ध, आदि धाराओं में पाई जाती है। व्‍यक्तियों की विशिष्‍टता, भिन्‍नता और अलहदा अस्तित्‍व कायम रहे, गांधीजी का लिबरलिज्‍म की इस परंपरा से वास्‍ता था। हिंद स्‍वराज पर इसी हिंदुस्‍तानी परंपरा का प्रभाव दिखता है।

करो या मरोः 1942 में कांग्रेस अधिवेशन में गांधी और अन्य नेता

करो या मरोः 1942 में कांग्रेस अधिवेशन में गांधी और अन्य नेता

एक और बात है। पश्चिमी उदारवाद की मुख्‍यधारा के विकल्‍पों का भी गांधी पर काफी प्रभाव रहा है। जैसे, उन्‍हें लगता था कि आधुनिक सभ्‍यता में शारीरिक सुविधा और राहत पर बहुत ज्‍यादा जोर है। वे मानते थे कि लंबी दौड़ में यह हानिकारक है कि हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्‍ट नहीं देना चा‍हते। हर अच्‍छी चीज को पाने के लिए शारीरिक और मानसिक कष्‍ट सहना पड़ता है, साथ में बहुत अनुशासन की दरकार होती है। आप अपनी सुविधा पर जोर देते रहें तो अनुशासन नहीं आ सकता। आधुनिक सभ्‍यता आपकी जिंदगी को और सुविधाजनक बनाने की ओर ले जाती है। मसलन, आपका शरीर अगर चुस्‍त-दुरुस्‍त है तो आप सीढ़ी का इस्‍तेमाल करिए, लेकिन पहली या दूसरी मंजिल पर जाने के लिए हर कोई लिफ्ट से ही चले, तो गांधी के यहां यह पागलपन वाली बात होगी। यह सामाजिक समझदारी के साथ-साथ एथिक्‍स का भी मसला है। दिक्‍कत यह है कि हमने आजकल सामाजिक समझदारी को शिक्षा से काट कर अलग कर दिया है।

उदाहरण के लिए, अगर सड़क पर कोई व्‍यक्ति किसी हादसे में जख्‍मी हो जाता है तो सबसे पहले उसे प्राथमिक उपचार की जरूरत होती है। उस वक्‍त आप यह नहीं सोचते कि वैकल्पिक स्‍वास्‍थ्‍य प्रणाली क्‍या होनी चाहिए। आपको उसे किसी भी तरह बचाना है। लोगों को पहले मिर्गी आती थी तो हम अपने पारंपरिक ज्ञान से जूता सुंघा देते थे। आज हालत यह है कि न तो पारंपरिक ज्ञान बचा है और न ही ऐसी व्यावहारिक शिक्षा हमें दी गई है कि संकट में पड़े आदमी को कैसे बचाया जाए। हम अपनी डिग्री लेते हैं और निकल लेते हैं। डॉक्‍टर बन जाते हैं, इंजीनियर बन जाते हैं, लेकिन अच्‍छा इंसान नहीं बन पाते। फिर आप कुछ भी बन जाएं, क्‍या फायदा?

अभी देश में यही स्थिति है। ऐसे में बदलाव या विकल्‍प के लिए किसी व्‍यापक सैद्धांतिकी की जरूरत नहीं है। अभी तो बस लोगों को बचाना है। आधे से ज्‍यादा आबादी एक खाई के कगार पर खड़ी है, उसे गिरने से बचाना है। यह स्थिति सबकी पैदा की हुई है, कांग्रेस हो चाहे भाजपा या दूसरे दल। नई आर्थिक नीति के शुरुआती दौर में लोगों को बेशक लाभ मिला था। करीब बीस फीसदी आबादी गरीबी के जाल से बाहर निकली थी। वे लोग वापस वहीं पहुंच गए हैं। आर्थिक मामलों का मैं बहुत जानकार नहीं हूं लेकिन जितना मुझे सुनने में आता है, पचास से साठ फीसदी लोग बीते दस साल में गरीबी रेखा से नीचे जा चुके हैं। गरीबी से बचने के लिए लोगों को जो न्‍यूनतम आय चाहिए वह बढ़ गई है। दस साल में नौकरियां नहीं पैदा हुई हैं। बेरोजगारी है, महंगाई है। आप लोगों को हजार दो हजार रुपया दे रहे हैं, ये अच्‍छी बात है, लेकिन उनके आत्‍मसम्‍मान का क्‍या? क्‍या करेगा वह उस पैसे का? दो दिन में खत्‍म कर देगा। रोजगार तो आप नहीं दे पाए। रोजगार देने से मनुष्‍य की बुनियादी प्रतिष्‍ठा कायम रहती है। आपने मनुष्‍य से उसकी गरिमा ही छीन ली। यह मौजूदा आर्थिक नीतियों की देन है, लेकिन इसके मूल में सवाल आर्थिक या राजनीतिक नहीं, बल्कि नीतिगत और नैतिक है।

हिंद स्‍वराज पहली ऐसी किताब है जो केवल उपनिवेशवाद की आलोचना नहीं करती बल्कि उसमें ब्रिटिश सभ्‍यता, बल्कि कहें यूरोपीय आधुनिकता और पूंजीवाद की नैतिक आलोचना है। सब सही है उसमें, यह मैं नहीं कहूंगा। बिलकुल खारिज तो किसी भी चीज को नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनको पढ़ कर हम अपने सोच और आचार में बदलाव ला सकते हैं। इस किताब में गांधी दरअसल पूंजीवाद की तह में छुपी गहन अनैतिकता को रेखांकित करते हैं। यही बात हिंद स्‍वराज और गांधी को प्रासंगिक बनाती है।

पूरी पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का कोई तात्‍कालिक विकल्‍प मौजूद नहीं है। हम देख चुके हैं कि अतीत में विकल्‍प का सवाल इंसानी आजादी के लिए बहुत खतरनाक साबित हुआ है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों व्‍यवस्‍थाओं के भीतर बराबर विकार मौजूद हैं। दोनों के भीतर वस्‍तुओं की प्रचुरता और प्रकृति के दोहन की बात की गई है। हमने देखा है कि यह प्रचुरता या तो अमीर देशों को फायदा पहुंचाती है या गरीब देशों के अमीर लोगों के हक में काम करती है। दोनों व्‍यवस्‍थाओं का नकारात्‍मक प्रभाव बाकी लोगों को झेलना पड़ता है। जो लोग वाकई इन नकारात्‍मक प्रभावों के कारण आज तकलीफ में हैं, उन्‍हें धीरे-धीरे ही हमें राहत पहुंचानी होगी क्‍योंकि आज का क्रोनी पूंजीवाद हमें आर्थिक तानाशाही की तरफ ले जा रहा है।

साहिर लुधियानवी का एक गीत है, ‘अल्ला तेरो नाम..’, उसमें एक लाइन है- ‘निर्बल को बल देने वाले, बलवानों को दे दे ज्ञान। ’ आज इसी की जरूरत है। आम लोगों को सशक्‍त किया जाना है और जो समझदार, ताकतवर लोग हैं उन्हें ज्ञान दिए जाने की जरूरत है। जो बुनियादी नैतिक ज्ञान था, उसे पूंजीवाद ने नष्‍ट कर दिया है। गांधीजी ने उसी पर जोर दिया है। आज जो ऊपर-ऊपर से अच्‍छा दिखता है, नीचे से उसमें खोखलापन आ रहा है। हम लोग ऊपर से दूसरों से अच्‍छे से मिलते हैं, भीतर से रिश्‍ते खोखले होते जा रहे हैं। हर बंदा केवल अपने बारे में सोच रहा है। समुदाय, समूह के बारे में कौन सोच रहा है? ये सब चीजें आर्थिकी से बहुत गहरे जुड़ी हुई हैं। इन बुराइयों के ऊपर रोक लगाना ही विकल्प होगा। हिंद स्‍वराज को हम अगर ध्यान से पढ़ें, तो वह आज बहुत प्रासंगिक है।

राजीव भार्गव

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं और राजनीतिक सिद्धांत पर बहुचर्चित पुस्तकों के लेखक हैं। हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित)

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