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प्रथम दृष्टि: कैसा नेता चाहिए

बिहार के नए जनादेश को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि चुनावी राजनीति में बिना किसी बड़ी पार्टी से जुड़े अधिकांश अच्छे उम्मीदवार क्यों सफल नहीं हो पाते
इस चुनाव में नीतीश के हाथ रही बाजी

बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए ने भारी बहुमत से एक बार फिर सरकार बना ली है। जीतने वाले दल परिणाम को उम्मीद के मुताबिक बता रहे हैं, जबकि चुनाव विश्लेषक इसे अप्रत्याशित कह रहे हैं। हारने वाली पार्टियां पूरी चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाकर परिणाम पर मंथन कर रही हैं। अक्सर पराजित पार्टियों के नेता जनादेश को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते। भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है कि यहां चुनाव निष्पक्ष होते रहे हैं, भले ही समय-समय पर चुनाव आयोग के खिलाफ सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लगता रहा हो। हारने वाली पार्टियां ईवीएम हैक होने से लेकर सत्तारूढ़ दलों पर चुनाव पूर्व रेवड़ियां बांट कर मतदाताओं को पक्ष में करने का आरोप लंबे समय से लगाती रही हैं। इस बार भी यही हो रहा है। पहले कहा गया कि चुनाव आयोग द्वारा विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआइआर) अभियान के जरिए बड़े पैमाने पर सत्तारूढ़ दल को फायदा पहुंचाने के लिए मतदाताओं के नाम काटे गए। फिर आरोप लगा कि नीतीश कुमार सरकार ने महिला लाभार्थियों के खाते में दस हजार रुपये की राशि डालकर अपने पक्ष में वोट देने के लिए ‘रिश्वत’ दी।

वैसे, देश में चुनाव पूर्व रेवड़ियां बांटने का रिवाज पुराना है। ऐसा किसी एक पार्टी या गठबंधन ने नहीं किया है। सबसे पुरानी पार्टी से लेकर नए सत्तारूढ़ दलों पर भी ऐसे आरोप लगे हैं। यह आम धारणा है कि चुनावी रेवड़ियां मतदाताओं को किसी दल या गठबंधन विशेष के प्रति रिझाने का काम करती हैं। भारतीय लोकतंत्र में यह वाकई संभव है या नहीं, इस पर लंबे समय से विमर्श चलता रहा है। एक पक्ष का मानना है कि लोकलुभावन वादों से मतदाता निश्चित रूप से प्रभावित होता है, जबकि दूसरे पक्ष का मानना है कि ऐसा कहना भारतीय मतदाता की सामाजिक-राजनैतिक परिपक्वता पर सवाल उठाने जैसा है।

 बिहार चुनाव परिणामों के पीछे सरकार के आम लोगों को लुभाने वाले कदमों की क्या भूमिका थी, इस पर लंबे समय तक बहस होगी, लेकिन यह कहना कि सिर्फ इसी कारण ऐसे चुनाव परिणाम आए, तर्कसंगत नहीं होगा। बिहार जैसे बड़े प्रदेश में चुनाव परिणाम कई कारणों से प्रभावित होते हैं, जिसमें सत्तारूढ़ दल का प्रदर्शन, विपक्ष की छवि और जनता में उसकी स्वीकार्यता, राष्ट्रीय तथा स्थानीय मुद्दे और उम्मीदवारों के प्रति लोगों की धारणा की प्रमुख भूमिका होती है। 1977 और 1984 के लोकसभा चुनावों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए, तो चुनाव में जीत हासिल करने के एक से अधिक कारण होते हैं। बिहार के हालिया चुनावों में भी यही हुआ।

इस बार बिहार चुनाव का एक दिलचस्प पहलू यह भी रहा कि मतदाताओं ने उम्मीदवारों की छवि और प्रतिभा से अधिक दल या गठबंधन विशेष को ज्यादा तरजीह दी। इसलिए मुख्य दलों के टिकट पर लड़ रहे उम्मीदवारों ने उन उम्मीदवारों की तुलना में आसानी से जीत दर्ज की, जो स्वतंत्र रूप से या किसी नई पार्टी के चुनाव चिन्ह पर मैदान में खड़े थे, भले ही काबिलियत की दृष्टि से वे बेहतर रहे हों। इस चुनाव में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के उम्मीदवारों का जो हश्र हुआ, उससे तो कम से कम यही लगता है। किशोर की पार्टी ने अधिकांश ऐसे लोगों को चुनावी दंगल में उतारा था जिनकी छवि स्वच्छ थी और जिन्होंने अपने-अपने कार्यक्षेत्र में ख्याति और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित की थी। उनमें लोकप्रिय शिक्षक से लेकर कर्मठ अवकाशप्राप्त आइएएस/आइपीएस अधिकारी शामिल थे, लेकिन उनमें लगभग सभी की जमानत जब्त हो गई। यही हाल उन योग्य उम्मीदवारों का भी हुआ, जो निर्दलीय के रूप में किस्मत आजमा रहे थे। इसके विपरीत, वैसे उम्मीदवारों को बिना किसी मशक्कत के विजयश्री मिली, जिन्हें किसी दल विशेष का चुनाव चिन्ह प्राप्त था, भले ही उनके विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हों।

हालांकि इस चुनाव में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार के एक ख्यातिप्राप्त पुलिस अधिकारी ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा, जो कुछ ही माह पहले डीजीपी पद से रिटायर हुए थे। पुलिस सेवा में काम करने के दौरान सत्तारूढ़ दल के एक बाहुबली सांसद पर नकेल कसने की कार्रवाई के कारण उनका बड़ा नाम हुआ था। लेकिन, निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में जनता ने उन्हें नकार दिया। उनसे अधिक मत तो ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार को मिले, जिसे सीबीआइ ने परीक्षा प्रश्नपत्र लीक करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। 2015 के बिहार विधानसभा में पढ़े-लिखे उम्मीदवारों का वही हश्र हुआ, जो बिहार बदलने की धुन में अपनी नौकरियां छोड़कर निर्दलीय चुनाव लड़ने आए थे। तो, क्या वर्तमान चुनावी सिस्टम में आम मतदाता के लिए उम्मीदवारों की व्यतिगत प्रतिभा, ईमानदारी और साफ छवि बेमानी है? लोकतंत्र में मतदाता का निर्णय सर्वोपरि है लेकिन बिना किसी बड़ी पार्टी से जुड़े अधिकांश अच्छे उम्मीदवार चुनावी राजनीति में सफल क्यों नहीं हो पाते, इस पर विमर्श की जरूरत है।

 

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