सीबीआइ ने 1 फरवरी 2018 को पंजाब नेशनल बैंक की शिकायत पर एक केस दर्ज किया। आरोप था कि नीरव मोदी और उनके करीबियों ने मिलकर 280 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की है। केंद्रीय एजेंसी ने जब जांच शुरू की तो पता चला कि यह तो बड़े घोटाले का एक हिस्सा मात्र है। पीएनबी ने दो हफ्ते बाद, 14 फरवरी को स्टॉक एक्सचेंजों को बताया कि मोदी और उनके रिश्तेदारों ने बैंक को करीब 14,000 करोड़ रुपये का चूना लगाया है। दुनिया का डायमंड कैपिटल कहे जाने वाले एंटवर्प में पले-बढ़े नीरव मोदी के अलावा उसकी पत्नी एमी, भाई निशाल और मामा मेहुल चोकसी इसमें शामिल थे। जांच एजेंसियों को भनक लगने से महीने भर पहले, जनवरी की शुरूआत में ही चारों देश छोड़कर जा चुके थे।
यह धोखाधड़ी लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) के जरिए की गई थी। एलओयू एक तरह की गारंटी होती है कि खाताधारक से चूक होने पर बैंक वह रकम चुकाएगा। इसका इस्तेमाल आयात-निर्यात में होता था। नियम के मुताबिक किसी कंपनी को एलओयू जारी करने से पहले बैंक को बराबर की संपत्ति गिरवी रखनी थी। लेकिन पीएनबी के मुंबई स्थित ब्रेडी हाउस ब्रांच का डिप्टी मैनेजर गोकुलनाथ शेट्टी, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी की कंपनियों को बिना गिरवी के एलओयू देता रहा। सात साल तक किसी को इसकी भनक नहीं लगी। वित्त मंत्रालय ने संसद में बताया था कि मोदी और चोकसी की कंपनियों को पीएनबी ने सात साल में 1,590 एलओयू जारी किए थे। शेट्टी के रिटायर होने के बाद जब मोदी की कंपनियों के अधिकारी नया एलओयू लेने पहुंचे तो नए बैंक अधिकारी ने गिरवी मांगी। तब जाकर इस भेद का खुलासा हुआ।
पीएनबी के डिप्टी मैनेजर गोकुलनाथ शेट्टी के रिटायर होने के बाद मोदी-चोकसी घोटाले का खुलासा हुआ
नीरव मोदी प्रकरण से 26 साल पहले 1992 में हर्षद मेहता घोटाले का पर्दाफाश हुआ था। उसने बैंक रसीद के जरिए अरबों रुपये का घोटाला किया। वह फर्जी बैंक रसीद दिखाकर बैंकों से कर्ज लेता और वह रकम शेयर बाजार में लगाता था। 2013 में सामने आए 5,600 करोड़ रुपये के एनएसईएल घोटाले के केंद्र में भी ऐसी ही फर्जी रसीदें थीं। नीरव मोदी घोटाले के बाद बैंकिंग नियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने एलओयू पर तो पूरी तरह पाबंदी लगा दी, लेकिन बैंक धोखाधड़ी किसी न किसी रूप में जारी है।
इस धोखाधड़ी का एक रूप है कर्ज को बट्टे खाते में डालना, जो राइटऑफ नाम से ज्यादा चर्चित है। इसे आरबीआइ के पूर्व डिप्टी गवर्नर और पीएनबी के पूर्व चेयरमैन के.सी. चक्रवर्ती सदी का सबसे बड़ा घोटाला कह चुके हैं। नीरव मोदी मामले के बाद आरबीआइ ने बैंक धोखाधड़ी पर लगाम लगाने के लिए 20 फरवरी 2018 को वाय.एच. मालेगाम समिति बनाने की घोषणा की थी। लेकिन हकीकत यही है कि 2018-19 और 2019-20 में सबसे ज्यादा कर्ज राइटऑफ किए गए।
इसकी वजह चाहे राजनीतिक प्रश्रय हो या बैंक अधिकारियों की मिलीभगत। कारोबारी कर्ज लेकर डिफॉल्ट करते हैं और बैंक कुछ समय बाद उसे राइटऑफ कर देते हैं। कहने को तो राइटऑफ किए गए कर्ज की बाद में भी वसूली की जा सकती है, लेकिन ऐसा कम ही होता है। यह वसूली भी छोटा कर्ज लेने वालों से ज्यादा, बड़ा कर्ज लेने वालों से कम होती है। ‘राइटऑफ के खेल’ में सबसे अधिक नुकसान सरकारी बैंकों को होता है।
आरबीआइ और बैंकों के अपने आंकड़े ही इन बातों की तस्दीक करते हैं। रिजर्व बैंक के अनुसार बीते 10 वर्षों में बैंकों ने 8.83 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में डाले। इसमें 6.67 लाख करोड़ यानी 76 फीसदी सरकारी बैंकों के, 1.93 लाख करोड़ (21 फीसदी) निजी बैंकों के और 22,790 करोड़ (तीन फीसदी) विदेशी बैंकों के हैं। आरटीआइ कार्यकर्ता और पुणे स्थित संगठन सजग नागरिक मंच के संस्थापक विवेक वेलणकर कहते हैं, नीरव मोदी या मेहुल चोकसी के मामले तो चर्चा में आ गए। राइटऑफ के ज्यादातर मामले तो चर्चा में ही नहीं आते। वे बताते हैं, “12 सरकारी बैंकों ने 2012-13 से आठ वर्षों में 6.32 लाख करोड़ रुपये के कर्ज राइटऑफ किए हैं। इसमें से सिर्फ 1.08 लाख करोड़ यानी 17 फीसदी की रिकवरी हुई है। इस राइटऑफ में 100 करोड़ से अधिक वाले कर्ज 2.78 लाख करोड़ के हैं। इनमें सिर्फ 19,200 करोड़ यानी सात फीसदी की रिकवरी हुई।”
बैंकों को चार साल से अधिक पुराने एनपीए के लिए 100 फीसदी प्रोविजनिंग करनी पड़ती है। यानी मुनाफे से उतनी रकम अलग रखनी पड़ती है। इसके बाद बैंक उस कर्ज को बट्टे खाते में डाल देते हैं। वेलणकर के अनुसार राइटऑफ का खेल तो सालों से चल रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में यह काफी बढ़ गया है। उन्होंने जिन 12 सरकारी बैंकों के आंकड़े जुटाए हैं, उन्होंने 4.95 लाख करोड़ के कर्ज तो बीते चार वर्षों में बट्टे खाते में डाल दिए।
राइटऑफ को सदी का सबसे बड़ा घोटाला बताते हुए के.सी. चक्रवर्ती ने कहा था, “किसी कंपनी ने 20,000 करोड़ रुपये का कर्ज लिया और उसके पास 8,000 करोड़ की संपत्ति है, तो बैंक को सिर्फ 12,000 करोड़ का कर्ज राइटऑफ करना चाहिए। लेकिन बैंक पूरी 20,000 करोड़ की रकम को राइटऑफ कर देते हैं।” बैंकों के लिए यह नुकसान सांकेतिक नहीं, बल्कि वास्तविक होता है। इसलिए चक्रवर्ती ने बतौर आरबीआइ डिप्टी गवर्नर 2013 के सालाना बैंकर सम्मेलन में भी इसके प्रति आगाह किया था।
इस चेतावनी से सीख लेने के बजाय बैंकों पर इसका उल्टा असर हुआ है। वित्त राज्य मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने इस वर्ष मार्च में संसद में बताया कि बैंकों ने 2018-19 में 2.36 लाख करोड़ और 2019-20 में 2.34 लाख करोड़ रुपये के कर्ज राइटऑफ किए। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 में 1.53 लाख करोड़ के कर्ज राइटऑफ हुए। ठाकुर ने यह भी बताया था कि अप्रैल 2018 से दिसंबर 2020 तक राइटऑफ किए गए कर्ज में से सिर्फ 68,000 करोड़ की वसूली हुई।
ऐसे में सहज सवाल उठता है कि बैंक अचानक इतना कर्ज बट्टे खाते में क्यों डालने लगे। वेलणकर के अनुसार यह एनपीए (तीन महीने तक ईएमआइ नहीं देने पर कर्ज एनपीए हो जाता है) पर मचे हंगामे का नतीजा है। वे कहते हैं, “एनपीए बढ़ा तो बैंकों पर सवाल उठाए जाने लगे। तब बैंकों ने बड़े पैमाने पर एनपीए को राइटऑफ करना शुरू कर दिया। इससे उनका एनपीए कम हो गया। राइटऑफ तो बैंक के मुनाफे से जाता है, इसलिए बैंकों का मुनाफा भी कम हुआ।” वेलणकर के मुताबिक बैंक भले अपने शेयरधारकों को डिविडेंड कम दें या न दें, लेकिन वे कर्ज राइटऑफ कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि इस खेल से बैंकिंग नियामक आरबीआइ वाकिफ नहीं। उसने अपनी हालिया ‘ट्रेंड ऐंड प्रोग्रेस रिपोर्ट’ में कहा है कि बैंकों का ग्रॉस एनपीए मार्च 2019 में 9.1 फीसदी था, जो मार्च 2020 में 8.2 फीसदी और सितंबर 2020 में 7.5 फीसदी रह गया। पहली जुलाई को जारी फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2021 में ग्रॉस एनपीए 7.48 फीसदी था। लेकिन साथ ही आरबीआइ ने यह भी कहा है कि एनपीए में यह गिरावट मुख्य रूप से राइटऑफ के कारण आई है। पिछले साल आरबीआइ ने कोविड-19 महामारी के कारण मार्च 2021 में सरकारी बैंकों का ग्रॉस एनपीए 15.2 फीसदी तक जाने का अंदेशा जताया था। केयर रेटिंग्स के अनुसार मार्च 2017 में बैंकों का ग्रॉस एनपीए 7.1 लाख करोड़ रुपये था और एक साल में यह 43.7 फीसदी बढ़कर 10.2 लाख करोड़ हो गया। लेकिन मार्च 2018 के बाद इसमें गिरावट आने लगी। राइटऑफ के कारण यह मार्च 2020 में 8.9 लाख करोड़ रह गया।
हर्षद मेहता फर्जी रसीदों के जरिए बैंकों से पैसे लेकर शेयरों में लगाता था
राइटऑफ में बड़ा हिस्सा जानबूझ कर डिफॉल्ट (विलफुल डिफॉल्टर) करने वालों का है। आरटीआइ कार्यकर्ता साकेत गोखले के सवालों के जवाब में आरबीआइ ने बताया कि सितंबर 2019 तक 50 विलफुल डिफॉल्टर के 68,607 करोड़ रुपये के कर्ज राइटऑफ किए गए। इसमें सबसे ऊपर मेहुल चोकसी की कंपनी गीतांजलि जेम्स है, जिसके 5,492 करोड़ के कर्ज बट्टे खाते में डाले गए। चोकसी की कंपनी गिली इंडिया और नक्षत्र ब्रांड्स के भी 2,500 करोड़ के कर्ज राइटऑफ किए गए। अन्य बड़े विलफुल डिफॉल्टर में आरईआइ एग्रो (4,314 करोड़) और विनसम डायमंड्स एंड ज्वैलरी (4,076 करोड़) शामिल हैं। इस सूची में रुचि सोया इंडस्ट्रीज भी है जिसका बाद में योग गुरु रामदेव की कंपनी पतंजलि ने अधिग्रहण किया।
वेलणकर एक और रोचक जानकारी देते हैं। पिछले साल एसबीआइ और इंडियन ओवरसीज बैंक ने उन्हें उन डिफॉल्टरों की सूची भी दी, जिनके कर्ज राइटऑफ किए गए। लेकिन सूची देने वाले एसबीआइ अधिकारी ने करीब महीने भर बाद इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह आए नए अधिकारी ने इस साल इसे ‘गोपनीय जानकारी’ बताकर नई सूची देने से मना कर दिया। वेलणकर कहते हैं, “कई नाम ऐसे हैं जिन्हें आप अलग-अलग बैंकों की सूची में पाएंगे। किसी कंपनी के कर्ज को सभी बैंक कैसे राइटऑफ कर सकते हैं?”
यहां एक और बात गौर करने लायक है। बीते तीन वित्त वर्ष में सरकारी बैंकों ने 6.2 लाख करोड़ रुपये का कर्ज राइटऑफ किया है। इन्हीं तीन वर्षों में बैंकों की माली हालत सुधारने के लिए सरकार ने इनमें करीब दो लाख करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया। वेलणकर कहते हैं, “यह आम करदाताओं का पैसा है। बैंक कर्ज को बट्टे खाते में डाल रहे हैं और उन्हें बचाने के लिए सरकार बैंकों में पैसा डाल रही है। इसे समग्र रूप में देखा जाना चाहिए।”
यह बात साफ है कि हर साल लाखों करोड़ रुपये के नुकसान के बावजूद बैंक धोखाधड़ी न सिर्फ जारी है, बल्कि बढ़ रही है। एक पूर्व बैंकर के अनुसार, “चुनिंदा पूंजीपतियों ने पहले प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किया, अब वे ‘पूंजी’ पर भी अपना नियंत्रण बढ़ा रहे हैं।” उन्होंने बताया कि सरकारी बैंकों के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई न होने की एक वजह राजनैतिक तो है ही, दोहरा नियंत्रण भी एक समस्या है। सरकारी बैंकों में बड़ी शेयर हिस्सेदारी सरकार की होती है। पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल भी कह चुके हैं कि आरबीआइ सरकारी बैंकों के खिलाफ अनेक तरह की कार्रवाई नहीं कर सकता है।
वेलणकर के अनुसार इसके लिए बैंकों के शीर्ष मैनेजमेंट को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि 100 करोड़ से अधिक का कर्ज कोई भी निचले स्तर का अधिकारी नहीं दे सकता है। उन्होंने इन बैंकरों को ‘बैंकिंग नक्सल’ की नई संज्ञा दी है। वे कहते हैं, “उनके पूरे परिवार की संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। जब तक यह संकेत नहीं जाएगा कि घोटाले में शामिल बैंक अधिकारी भी सड़क पर आ जाएंगे, तब तक यह खेल बंद नहीं होगा।” आउटलुक ने इस खबर के सिलसिले में आरबीआइ के कई पूर्व डिप्टी गवर्नर और कई बैंकों के पूर्व चेयरमैन से बात करने की कोशिश की। लेकिन कोई भी इस विषय पर बात करने को तैयार नहीं हुआ। यहां तक कि आरबीआइ को भेजे ईमेल का भी कोई जवाब नहीं आया। यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है।
ये बैंकर ‘बैंकिंग नक्सल’ हैं। उनके पूरे परिवार की संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। जब तक यह संकेत नहीं जाएगा कि घोटाले में शामिल बैंक अधिकारी भी सड़क पर आ जाएंगे, तब तक यह खेल बंद नहीं होगा
विवेक वेलणकर, आरटीआइ कार्यकर्ता