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नाकामियों पर राष्ट्रवाद का उन्मादी मुलम्मा

नोटबंदी और जीएसटी के कारण पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर दिखाने के लिए मनगढ़ंत आंकड़ों का सहारा ले रही सरकार, क्या राष्ट्रवाद के ज्वार में आर्थिक परेशानियों को भूल जाएंगे आम लोग
चुनाव में आर्थिक मुद्दे प्रभावी रहे तो भाजपा को मुश्किल हो सकती है

आम चुनावों का ऐलान हो चुका है और इसके नतीजों को लेकर उत्सुकता है। पुलवामा में आतंकी हमले से पहले आर्थिक मुद्दे चुनावी बहस के केंद्र में थे। इस घटना ने फिर से बहस को राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द समेट दिया है। आम आदमी पर इसका कितना असर होगा? अमूमन एकपक्षीय होने के कारण सर्वे जमीनी हकीकत को बयां नहीं करते, इसलिए हमें 23 मई को चुनाव के नतीजे आने का इंतजार करना होगा।

असल में, चुनाव धारणाओं का खेल है। नोटबंदी के बाद आम लोगों को काफी परेशानी हुई थी, लेकिन शुरुआत में लोगों का मानना था कि यह अच्छी नीयत से किया गया है। खासकर, इससे काली कमाई रुकेगी और भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा कसेगा। इसलिए, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में लोगों ने भाजपा के पक्ष में वोट डाले। इसके बाद आम लोगों को एहसास हुआ कि इसका न तो भ्रष्टाचार और न ही कालेधन की अर्थव्यवस्था पर कोई असर पड़ा। इससे हर तरफ मोहभंग बढ़ा। लेकिन, सवाल यह है कि क्या राष्ट्रवाद के प्रभाव में आम आदमी उन आर्थिक मुसीबतों को भूल सकता है जो उसने पिछले कुछ साल में झेला है।

एक फीसदी से भी कम विकास दर के कारण अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब है। सात फीसदी विकास दर का सरकार का दावा केवल अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र के आंकड़ों पर आधारित है। ऐसी धारणा है कि असंगठित क्षेत्र भी संगठित क्षेत्र की तरह ही बढ़ रहा है, जो नोटबंदी के बाद सही नहीं है। असंगठित क्षेत्र अर्थव्यवस्था का 45 फीसदी है और कई सर्वे उसमें गिरावट स्पष्ट रूप से बता रहे हैं। इस क्षेत्र में बीते दो साल में कम से कम 10 फीसदी की गिरावट आई है तो विकास दर एक फीसदी से कम हो जाएगी। सरकार का कहना है कि उसके आंकड़ों की वर्ल्ड बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी पुष्टि करती हैं। लेकिन, यह भी सच है कि ये एजेंसियां स्वयं आंकड़े इकट्ठा नहीं करतीं और इसके लिए सरकार पर निर्भर रहती हैं।

बदतर तो यह है कि जब यह बात उठी तो सरकार ने कहा कि असंगठित क्षेत्र में रोजगार के कोई आंकड़े नहीं हैं। ऐसा है तो फिर इस सेक्टर के लिए जीडीपी की गणना कैसे की जाती है? दूसरे शब्दों में कहें तो इससे देश के जीडीपी के आंकड़ों पर संदेह पैदा होते हैं। संदेह तब और गहरा जाता है जब हम विकास दर पर पिछले विवादों को देखते हैं। बीते चार साल में उच्च विकास दर दिखाने के लिए इसमें कई बदलाव किए गए। आंकड़ों को मनगढ़ंत तरीके से पेश करने की निराशा में सांख्यिकी आयोग, सरकारी समितियों के विशेषज्ञों ने इस्तीफे दिए। सुनहरी तस्वीर पेश करने के लिए आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ की गई।

अर्थव्यवस्था की वास्तविक विकास दर वाकई सात फीसदी है, तो आंकड़ों को मनगढ़ंत तरीके से पेश करने की क्या आवश्यकता है? देश में ‘फील गुड’ का एहसास होना चाहिए था। जैसा 2004-2008 के बीच हो रहा था, जब अर्थव्यवस्था 7-8 फीसदी की दर से बढ़ रही थी। आज, व्यवसायी, किसान और युवा असंतुष्ट हैं।

किसान लंबे समय से बदहाल हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि नोटबंदी के बाद हालात और खराब हो चुके हैं। बीते दो साल में खुदकशी करने वाले किसानों के आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए हैं। बीते दो साल में देश ने किसानों के कुछ बड़े प्रदर्शन देखे हैं। उनकी नाराजगी कम होने के कोई संकेत नहीं दिख रहे। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलने से भी किसान फटेहाल हैं। किसानों की कमजोर आर्थिक स्थिति का फायदा उठाकर आढ़ती एमएसपी से कम दर पर खरीदी कर रहे हैं।

देश के कुछ ताकतवर तबकों के युवा भी नौकरियों में आरक्षण को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। गुजरात में पटेल, महाराष्ट्र में मराठा, उत्तर भारत में जाट, आंध्र में कापू आंदोलनरत हैं। हर कोई जानता है कि सरकारी नौकरियां कम होने के साथ पब्लिक सेक्टर में बहाली नहीं हो रही। फिर भी कुछ हजार नौकरियों के लिए लोग आंदोलन करने से पीछे नहीं हट रहे। सबको मालूम है कि आरक्षण बेरोजगारी का समाधान नहीं है, फिर भी आंदोलन जारी हैं। रेलवे में कनिष्ठ स्तर की 90 हजार नौकरियों के लिए दो करोड़ तीस लाख लोगों ने आवेदन किए। उत्तर प्रदेश में चपरासी के 360 पदों के लिए दो करोड़ तीस लाख लोगों ने आवेदन किए। आवेदकों में पीएचडी, एमटेक, एमकॉम वगैरह शामिल थे। छोटी-मोटी नौकरियों के लिए कोई इस तरह की डिग्री हासिल नहीं करता। क्या पकौड़े तलने या नालों की सफाई के लिए कोई बीटेक करता है? जाहिर है, युवाओं में असंतोष है। इन सभी वर्गों में असंतोष तभी पैदा हो सकता है जब विकास दर एक फीसदी से कम हो और 94 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाले असंगठित क्षेत्र में गिरावट हो रही हो।

नोटबंदी के बाद नकदी की किल्लत से हालात और खराब हुए हैं। अब डिजिटलाइजेशन समस्या को गहरा रहा है। नतीजतन, शहर में उपभोक्ता जिस कीमत पर खरीदारी कर रहे हैं और किसानों को उनकी उपज की जो कीमत मिलती है, उसमें जमीन-आसमान का अंतर है। असंगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम होने के कारण काफी लोग शहर से अपने गांव लौटे हैं, जिससे मनरेगा के तहत काम मांगने वालों की संख्या बढ़ गई है। मनरेगा का आवंटन 38,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 66,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है, फिर भी बजट कम पड़ रहा। यह भी कहा जा रहा है कि फंड की कमी के कारण लोगों को सौ दिनों से काफी कम रोजगार मिल रहा है। अपर्याप्त आवंटन से भुगतान का संकट खड़ा हो गया है।

अर्थव्यवस्था को लगे दो गंभीर झटकों के कारण ऐसे हालात बने हैं। पहला, नोटबंदी और दूसरा जीएसटी के ढांचे में दोष। नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र को प्रभावित किया, जहां ज्यादातर काम नकद में होता है। जीएसटी सामान्य समझ से परे है। केवल कंप्यूटर और अकाउंटेंट की मदद से ही इसे जान पाना संभव है। ज्यादातार माइक्रो और स्मॉल बिजनेस इस जटिलता से पार नहीं पा सकते। इसलिए, सरकार को उन्हें जीएसटी के दायरे से बाहर कर देना चाहिए। उन्हें बड़े कारोबारियों की तरह न तो इनपुट क्रेडिट मिलता है और न वे खरीदारों को इसका ऑफर दे पाते हैं। इससे उनकी लागत बढ़ गई है और इसका फायदा बड़े उत्पादक उठा रहे हैं। मसलन, प्रेशर कुकर इंडस्ट्री के चेयरमैन का कहना है कि उनका सेक्टर 24 फीसदी की दर से बढ़ रहा है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र की इकाइयां जीएसटी से तालमेल बिठाने में असमर्थ हैं। समस्या केवल जीएसटी के कार्यान्वयन में कमी नहीं है, बल्कि इसके ढांचे में भी खोट है।

आठ अलग-अलग दरों और कई छूटों के साथ जीएसटी ‘एक देश-एक कर’ नहीं हो सकता। इसका मतलब ‘नई आजादी’ नहीं है, क्योंकि बदलावों से कारोबारी दुविधा में हैं। हर रोज सामने आ रहे जीएसटी चोरी के मामलों से जाहिर है कि भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है। उलटे सेवाएं महंगी हुई हैं, उत्पादन गिरा है और असमानता बढ़ी है।

सरकार का दावा है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण ढांचागत बदलाव से डिजिटलाइजेशन को बढ़ावा मिलेगा। असंगठित क्षेत्र इसी का मारा है। वैसे भी, नकदी के चलन को कम करना काले धन की समस्या का समाधान नहीं है। जापान में बड़ी मात्रा में उसकी जीडीपी का 18 फीसदी नकद चलन में है। नाइजीरिया में काफी कम उसकी जीडीपी का 1.4 फीसदी ही नकद लेन-देन होता है। यह बिलकुल स्वीडन की तरह है। लेकिन, स्वीडन में काली कमाई के अवसर कम हैं, जबकि नाइजीरिया में ब्लैक इकोनॉमी का दायरा काफी बड़ा है। करीब दस फीसदी नकद प्रचलन के साथ भारत की स्थिति इन दोनों के बीच की है।

ब्लैक इकोनॉमी पर पड़ने वाला असर कर/जीडीपी के अनुपात में तेजी से दिखना चाहिए। लेकिन, डायरेक्ट टैक्स में थोड़ी सी वृद्धि के बावजूद अब भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है, क्योंकि जीएसटी संग्रह अनुमान से कम रहा है। वास्तविक कर संग्रह में इजाफे और रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या में बढ़त से यह साबित नहीं किया जा सकता कि काली कमाई के मौके कम हुए हैं। उपभोग की क्षमता घटने से मांग में आई कमी के चलते अर्थव्यवस्था में निवेश सुस्त है। कई सेक्टरों और बैंकों के ऊंचे एनपीए से पैदा हुई ट्विन बैलेंसशीट भी इसका कारण है। बैंकरप्सी बिल के बावजूद हाइ एनपीए बरकरार है।

ऐसा नहीं है कि बीते पांच साल में कुछ नहीं हुआ है, लेकिन सरकार के फैसलों से अर्थव्यवस्था को जो दो बड़े झटके लगे उसने इसे पटरी से उतार दिया है और सरकार ने जिन फायदों का अनुमान लगाया था उससे ज्यादा इसका प्रतिकूल असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। राजमार्गों का निर्माण, घरों में गैस, विद्युतीकरण, शौचालय निर्माण, मेडिकल इंश्योरेंस, वित्तीय समावेशन जैसे काफी काम हुए हैं। अतीत की इन योजनाओं को मौजूदा सरकार ने जोर-शोर से आगे बढ़ाया है।

लेकिन, दुर्भाग्य से देश का ध्यान विकास के एजेंडे से हटकर सत्ताधारी दल के सामाजिक एजेंडे पर चला गया। ऐसे में क्या खाएं, क्या पहनें और युवाओं का सार्वजनिक आचरण कैसा हो जैसे मसले मोटे तौर पर अन्य राष्ट्रीय मुद्दों पर हावी हैं।

असंगठित क्षेत्र ने बीते तीन साल में जो गंवाया है उसका महज एक हिस्सा ही उसे लौटाया गया है। बीते दो साल विकास दर में छह फीसदी की कमी का मतलब है, 20 लाख करोड़ रुपये की कमाई का नुकसान। यह नुकसान शासन के मौजूदा टिप डाउन मॉडल का परिणाम है। यहां तक कि सत्ताधारी दल के सांसद भी शिकायत कर रहे हैं कि उनकी नहीं सुनी जा रही। असंतुष्टों को राष्ट्रविरोधी की तरह पेश किया जा रहा।

शासन के इस मॉडल ने विभिन्न संस्थानों मसलन, विश्वविद्यालयों, न्यायपालिका, बैंक, आरबीआइ, सीबीआइ के लिए भी समस्याएं खड़ी की हैं। लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलने का प्रयास होना चाहिए, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। इसलिए, यदि पॉलिसी पैरालाइसिस यूपीए-टू सरकार की विशेषता थी, तो इस सरकार ने आत्मघाती गोल दागे हैं। योजनाओं के क्रियान्वयन का ढांचा तैयार किए बिना बड़ी योजनाओं के ऐलान करने में यह सरकार अव्वल रही है। इससे, उसके बारे में हर परिवार के खाते में पंद्रह लाख रुपये डालने जैसे पूरे नहीं होने वाले वादे करने की धारणा बन गई है।

संसद में बहुमत के बावजूद इस सरकार के जमाने में सामाजिक और आर्थिक स्तर पर अस्थिरता रही है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के फैसलों ने इसे और विकराल किया है। विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के लिए परेशानी पैदा करते हुए ट्रंप ने ट्रेड वार शुरू कर दिया है। कई पेट्रोलियम उत्पादक देशों में भी अस्थिरता है। दोनों ही मसलों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता है। कहा जा रहा है कि तेजी के दौर के बाद अब दुनिया भर के स्टॉक मार्केट गिरावट के लिए तैयार हैं। 2017 में मंदी आने का अनुमान था, लेकिन अब यह किसी भी वक्त आ सकती है। ब्रेक्जिट, चीन की मंदी और ट्रेड वार की आशंका से स्टॉक मार्केट में तेजी से गिरावट का खतरा है। इससे भारतीय शेयर बाजार भी तेजी से नीचे आ सकता है। भारत में, कुछ लोग म्यूचुअल फंडों के जरिए शेयर बाजार में निवेश कर रहे हैं, लेकिन यहां भी तेजी बड़ी कंपनियों के लिए ही है न कि छोटी और मिड-कैप कंपनियों के लिए। तो फिर चारा क्या है? सत्ताधारी दल आर्थिक मसलों पर बैकफुट पर है। ऐसे में ताज्जुब नहीं कि अंतरिम बजट में किसानों, असंगठित क्षेत्रों और निम्न मध्यम वर्ग को लुभाने की कोशिश की गई। उन्हें जो दिया गया वह जरूरी था, लेकिन इन वर्गों ने जो गंवाया उसका यह एक हिस्सा भी नहीं है। ऐसे में यदि चुनाव विशुद्ध आर्थिक मुद्दों पर लड़े जाते तो सरकार को परेशानी होती। साथ ही जनता के लिए सबसे ज्यादा मायने रखने वाली चीजों के लिए भी ये चुनाव परीक्षा सरीखे हैं।

(लेखक जेएनयू के प्रोफेसर रहे हैं। हाल ही में जीएसटी पर उनकी किताब ‘ग्राउंड स्कॉर्चिंग टैक्स’ आई है)

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