पुलिस के व्यवहार पर सवाल उठते ही रहते हैं। शिकायत आम है कि डांट-फटकार, गाली-गलौज ही उसकी राजभाषा है। चलते-फिरते थप्पड़-मुक्का जड़ देना उसका शौक है। अच्छे-बुरे सबको एक ही लाठी से हांकती रहती है। जब गरीबी बेहिसाब थी और सरकार 'माई-बाप' हुआ करती थी तो यह चल जाता था, लेकिन मध्यम वर्ग के उदय और इंटरनेट के प्रचलन ने खेल बदल दिया है। आए दिन पुलिस की बदजुबानी और मार-कुटाई के वीडियो वायरल होते रहते हैं। थोड़े दिन शोर-शराबा मचता है। कुछ दिन शांति रहती है। फिर कहीं कोई और लठैती कर देता है और वही चक्र चल पड़ता है।
दरअसल, गाली-गलौज, थप्पड़-मुक्का किसी इक्का-दुक्का सिरफिरे पुलिसकर्मी की कभी-कभार की गलती नहीं है। यह फितरत तो पुलिस तंत्र को विरासत में मिली है और काम के खुरदरे स्वभाव से फल-फूल रही है। पुलिस तंत्र का जब मकसद ही दबदबा कायम करना हो तो आंख तरेरना रणनीति का हिस्सा हो जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की एक उक्ति बड़ी चर्चित हुई थी, “शरीफों को छेड़ना नहीं, बदमाशों को छोड़ना नहीं।” होना भी यही चाहिए। सिरमौर होने के नाते ये जिम्मेदारी आइपीएस अधिकारियों की बनती है।
सर्वप्रथम, पुलिस भर्तियों में ऐप्टिट्यूड टेस्ट जरूर होने चाहिए। भाषा और संख्या ज्ञान तो ठीक है लेकिन पुलिस के काम में मानवीय संवेदना का होना बड़ा जरूरी है। वर्दी पहना देने मात्र से बात नहीं बनती है। जो दूसरों के लिए संघर्ष की अभिरुचि रखते हैं, प्रशिक्षण और विभागीय कानून-कायदा भी उन्हीं पर काम करेगा।
दूसरे, जूतम-पैजार की संस्कृति पर चोट करते सरल शब्दों के संकल्प-पत्र को आत्मसात किया जाना चाहिए। नमूने की तौर पर: (1) मैं अपने शहीदों को हृदय में रखता हूं। मैं उन आदर्शों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हूं, जिनके लिए उन्होंने प्राण दिए थे। (2) मेरा दायित्व विधि अनुसार व्यवस्था संचालन है। (3) मुझे संपन्नता की ललक नहीं है। मैं एक योद्धा हूं और मुझे ज्ञात है कि तलवारें लोहे की होती हैं। (4) मेरे बच्चे मेरे आचरण से सीखते हैं। अपने अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा, निर्भीकता और सहिष्णुता के माध्यम से मैं उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बनूंगा। (5) मैं अपराधियों के हर दुस्साहस का करारा जवाब दूंगा। (6) मुझे अपनी वफादारी पर गर्व है। मैं अपने वरिष्ठों के प्रति सम्मान, समकक्षों के प्रति सहिष्णुता और अधीनस्थों के प्रति उदारता का भाव रखूंगा। (7) मुझे ज्ञात है कि मेरा कार्य वृहद और जटिल है। मैं हमेशा धैर्य रखूंगा, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब दूसरे किसी कारणवश विचलित हों। (8) अपराध-नियंत्रण और व्यवस्था संचालन में मैं हमेशा नियमों का पालन करूंगा। विधि द्वारा स्थापित संस्थाओं के प्रति मैं हमेशा आदर का भाव रखूंगा। (9) मुझे अपने सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय, अनुशासित, निर्भीक और परोपकारी होने पर गर्व है। (10) राष्ट्रगौरव, लोकहित और पुलिस विभाग की प्रतिष्ठा मेरे लिए सर्वोपरि है। मैं हर स्थिति में इसकी रक्षा करूंगा।
तीसरे, जान हथेली पर रख-चलने वाले पुलिसकर्मियों की अच्छी देखभाल होनी चाहिए। शहीदों के आश्रितों की उचित देखभाल, कार्यरत, सेवानिवृत्त पुलिसकर्मी के कल्याण के लिए जरूरी इंतजाम और स्वास्थ्य और असमय मृत्यु पर भारी-भरकम बीमा पुलिस को हौसला देगी।
चौथे, पुलिस के मानव संसाधन प्रबंधन को दुरुस्त किया जाना चाहिए। इस सोच को छोड़ना पड़ेगा कि कोई भी पुलिस का हर काम कर सकता है। संगठित अपराधियों के खिलाफ लड़ाई लंबी और हिंसक होती है। यहां खतरे के खिलाड़ी किस्म के लोग कारगर रहेंगे। नई तकनीक के इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित दिमाग चाहिए। संकटग्रस्त और पीड़ितों के लिए संवेदनशील और व्यवहारकुशल व्यक्तित्व चाहिए। वर्षों से संघर्ष चल रहा है कि विधि-व्यवस्था और अपराध-अनुसंधान के लिए अलग-अलग शाखा बनाई जाए लेकिन हो नहीं पा रहा है। एक में कोई रहना नहीं चाहता, दूसरे से कोई जाना नहीं चाहता। आधे-अधूरे सिपाहियों को कंप्यूटर इंजीनियर बना दिया जाता है, अध-पढ़ों को क्लर्क। अफरा-तफरी मची है। राजस्व पर बोझ उतना ही पड़ रहा है। पुलिस की प्रभावशीलता कुप्रबंधन की वजह से हाशिए पर है।
पांचवें, जनसंख्या के बदलते स्वरूप को ध्यान में रखकर पुलिस को युवाओं से निरंतर संपर्क साधने की कोशिश करनी चाहिए। उसे चाहिए कि खेल, जनसंपर्क एवं सुधारात्मक कार्यक्रमों के जरिए उनसे दोस्ताना संबंध बनाए, उन्हें स्वेच्छा से कानून मानने के लिए प्रेरित करे। कोई भी अपराध नियंत्रण्ा और न्याय व्यवस्था तभी कारगर होगी, जब कानून तोड़ने वाले कम संख्या में हों और अधिकांश लोग स्वतः कानून का पालन करें। आखिर कितनों को जेल भेजा जा सकता है?
अमेरिकी लेखक स्टीवन कवी ने 1989 में एक बड़ी अच्छी किताब लिखी थी, “सेवन हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपुल।” उसकी अब तक ढाई करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। इसे हर पुलिस अधिकारी को पढ़ना चाहिए। सात आदतें जो आदमी को कारगर बनाती हैं, सीखनी चाहिए। एक, प्रोएक्टिव रहें। जो कर सकते हैं, समय रहते करें। दूसरी, जैसा आप चाहते हैं उसकी दिमाग में स्पष्ट छवि बनाएं। तीसरी, अपनी प्राथमिकता स्पष्ट करें। जो जरूरी और महत्वपूर्ण है स्वयं करें। गैर-जरूरी, लेकिन महत्वपूर्ण को किसी सक्षम से कराएं। चौथी, दूसरों के साथ काम करने की क्षमता विकसित करें। पांचवीं, अपनी सुनाने से पहले दूसरों की सुनें-समझें। ज्यादा समय बोली ही चलेगी, गोली नहीं। छठी, सकारात्मक टीमवर्क के जरिए अधीनस्थों को जोड़ें। सातवीं और सबसे जरूरी आदत यह है कि अपने को चुस्त-दुरुस्त रखें, नई चीजें सीखते रहें।
इन सुधारों के लिए किसी भारी-भरकम बजट की जरूरत नहीं है। बस थोड़ी-सी इच्छा-शक्ति चाहिए। लोगों का भला हो जाएगा।
(लेखक आइपीएस अधिकारी और हरियाणा के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं)