कन्नड़ प्रदेश में पांच साल पहले जब भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ पार्टी के नाते चुनाव में उतरी थी तो पार्टी उतार पर थी, जिसे पार्टी के एक अंदरूनी सूत्र ‘आत्मघाती पल’ बताते हैं। देश भर में मोदी लहर के बावजूद पार्टी का वोट तीन हिस्से में बंट चुका था और उसकी छवि दागदार हो गई थी। बाद के वर्षों में कर्नाटक में पार्टी के सबसे जाने-पहचाने चेहरे का ग्राफ कुछ चढ़ा तो बीएस येदियुरप्पा भाजपा में दोबारा उसके प्रदेश अध्यक्ष के नाते लौटे। अब ‘विकास जोड़ी’, ‘येदियुरप्पा-मोदी’ का नारा सुनाई पड़ने लगा है।
इसकी वजह भी साफ है। 75 साल के इस लिंगायत नेता, पूर्व मुख्यमंत्री की अपने समुदाय में तगड़ी पैठ है। लिंगायतों का 17 प्रतिशत वोट है। राज्य में भाजपा के पास येदियुरप्पा इकलौते ऐसे नेता हैं जिनकी सभी समुदायों में अपील है। वे चुनाव प्रचार में जमकर मेहनत कर रहे हैं और साल भर से समूचे राज्य का कई बार दौरा कर चुके हैं। इसी वजह से भाजपा ने 75 साल की उम्र सीमा की अपनी कसौटी से उन्हें बाहर रखा है, जिसे आधार बनाकर दूसरे बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। बेशक, उनके पिछले कार्यकाल के ‘दाग’ उनका पीछा नहीं छोड़ते और इसी कारण वे मुख्य प्रतिद्वंद्वी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के तानों के लिए सबसे मुफीद हैं। लेकिन भाजपा का कहना है कि येदियुरप्पा भ्रष्टाचार के मामलों में बेदाग निकल आए हैं।
येदियुरप्पा के हाथ राज्य में भले पार्टी की कमान हो, मगर बागडोर अब केंद्रीय नेतृत्व के पास है। पार्टी की छोटी-बड़ी बात पर उसकी नजर है। जानकारों के मुताबिक, इससे कर्नाटक में भाजपा पुरानी कांग्रेस की तरह दिखने लगी है, जहां स्थानीय नेता हाथ बांधे खड़े रहते हैं। पिछले हफ्तों में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती 12 मई को होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करना रहा है। असल में पांच साल पहले तीन धड़ों में बंटी पार्टी को एकजुट करने का यह आखिरी मौका था। जानकारों के मुताबिक, भाजपा राज्य नेतृत्व में अंर्तकलह दूर करने में कभी कामयाब नहीं हो पाई। दिल्ली में पार्टी के आला नेता इस पर परदा डालने की ही कोशिश करते रहे हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण येदियुरप्पा और के.एस. ईश्वरप्पा के बीच टकराव है। दोनों शिमोगा जिले से हैं।
राजनीतिक टिप्पणीकार संदीप शास्त्री कहते हैं, “जबसे येदियुरप्पा पार्टी तोड़ कर बाहर गए और फिर वापस आए तभी से पार्टी में गहरी खेमेबंदी उभरी और यही भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती है। एक मायने में टिकटों का बंटवारा पार्टी में एकजुटता की परीक्षा होगा, जिसे केंद्रीय नेतृत्व थोपना चाहता है।”
कर्नाटक में भाजपा नेताओं का नरम-गरम सहअस्तित्व का इतिहास रहा है। इसी साथ की बदौलत पार्टी 2008 के चुनाव में अपने दम पर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। भाजपा को दूसरी पार्टियों के खराब तालमेल का फायदा मिला था लेकिन सत्ता में आने के बाद सत्ता समूहों में ही संघर्ष बढ़ता चला गया। येदियुरप्पा का पांच साल का कार्यकाल उठा-पटक वाला रहा। कई मौकों पर केंद्रीय नेताओं को कलह शांत करने के लिए बीच-बचाव करना पड़ा। 2009 में ऐसे ही एक मौके पर केंद्रीय नेताओं को मुख्यमंत्री को अपने मंत्रिमंडल के उन सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखाने का निर्देश देना पड़ा, जिन्हें शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण पद दिए गए थे।
2013 के चुनाव में येदियुरप्पा ने बीएसआर-कांग्रेस और बेल्लारी के नेता वी. श्रीरामुलु ने जनता पार्टी के रूप में अपने रास्ते अलग कर लिए। इससे भाजपा सिमट कर 40 सीटों पर आ गई। इन दोनों बड़े नेताओं के झगड़े से पार्टी को मध्य और खासकर उत्तरी कर्नाटक में 30 सीटों का नुकसान हुआ।
पार्टी प्रवक्ता वामन आचार्य कहते हैं, “यदि आप इन तीनों पार्टियों के वोट जोड़ लें तो इस बार हम 100 से ज्यादा सीटों से जीत सकते हैं। लेकिन जब हम सचमुच साथ आ जाएंगे तो महसूस होगा कि ताकत वापस आ गई है।” वैसे, अभी भी असहमति जारी है। आचार्य कहते हैं, “शुरू में इसे सहन किया गया लेकिन जैसे-जैसे चुनाव पास आ रहे हैं, कड़ा संदेश दे दिया गया है, “या तो येदियुरप्पा के साथ जाओ, या रास्ता नापो।”
भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में चल रहे चुनाव अभियान का फायदा-नुकसान दोनों है। कांग्रेस नेता सिद्धरमैया पर व्यंग्य करते हुए वह कहते हैं, “कांग्रेस ने सिद्धरमैया के सान्निध्य में स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा कर लिया है।” आचार्य कहते हैं, “चूंकि ये लोग सत्ता में हैं इसलिए इनके पास संसाधन और सहयोग है। जबकि हमारा नकारात्मक पक्ष यह है कि सभी निर्णय वहां लिए जा रहे हैं, यहां नहीं।”
शास्त्री कहते हैं, “कर्नाटक में भाजपा कम से कम स्थानीय इकाइयों और केंद्रीय नेतृत्व के बीच समन्वय के मामले में तो मध्य प्रदेश, राजस्थान या गुजरात की राह पर चल पड़ी है। वह कहते हैं, “उनके पास चिंता के लिए अतीत नहीं था, लेकिन कर्नाटक में ऐसा नहीं है।”
कर्नाटक में भाजपा के प्रचार का पूरा फोकस सिद्धरमैया के अल्पसंख्यकों के प्रति नरमी के विचार के इर्द-गिर्द कट्टर हिंदुत्व पर है। आचार्य कर्नाटक में अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और दलितों के लिए प्रयुक्त संक्षिप्त शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं, “कांग्रेस ने जो ‘अहिंदा’ राजनीति करने की कोशिश की अब वह मुस्लिम राजनीति ज्यादा हो गई है और यह मुख्यमंत्री के राजनीतिक मुद्दे को बेहतर दर्शाती है।” हालांकि, भाजपा कांग्रेस के उस रूप के विरोध में है जो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर मुख्य प्रतिद्वंद्वी येदियुरप्पा को रोकने के लिए लिंगायत समूह को अल्पसंख्यक का दर्जा देने को तैयार है। आचार्य कहते हैं, “जब लिंगायतों को पृथक धर्म देने की बहस शुरू हुई तो हमने कुछ महीनों के लिए चुप्पी साध ली। सभी को लग रहा था, हम असमंजस में हैं, लेकिन ऐसा नहीं था। हम चाहते थे लोग समझें कि यही प्रस्ताव सैकड़ों बार केंद्र तक गया और लौट आया। यह प्रस्ताव अमल के योग्य नहीं है।”
पार्टी ने हिंदुत्व एजेंडे को खासतौर पर कर्नाटक के तटीय क्षेत्रों में उठाया है। यहां पार्टी की स्थिति मजबूत है पर 2013 के चुनावों में यहां से खास नतीजे नहीं मिले थे। उडुपी और दक्षिण कर्नाटक के सभी जिलों में सिर्फ एक विधायक को छोड़ कर सभी ने भाजपा का साथ छोड़ दिया था। उत्तरी कर्नाटक में भी स्थिति इससे अच्छी नहीं थी। नेता मानते हैं कि पार्टी ने पहले गलतियां की हैं, क्षेत्र के निष्ठावान कार्यकर्ताओं के साथ नेताओं का संपर्क नहीं रहा और अनदेखी हुई। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहते हैं, “दुर्भाग्य से उनके पास इस क्षेत्र में स्थानीय नेतृत्व की कमी है।” राज्य में भाजपा संगठन के वरिष्ठ नेता कहते हैं, “हम संख्या में ज्यादा हैं और संगठित भी हैं। हम 45 विधानसभा क्षेत्रों में नहीं थे जबकि कांग्रेस सभी 224 सीटों पर मौजूद थी। पिछले पांच सालों में यह स्थिति बदली है।” वह आगे कहते हैं, “अब सिर्फ 10 से 15 सीटें ऐसी हैं जहां भाजपा की उपस्थिति कम है।” वह ‘आखिरी झुकाव’ के गणित की क्षमता की ओर इशारा करते हैं, जो आम तौर पर कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनावों के वक्त होता था। वह जोड़ते हैं, “अब हमने भी इससे तार जोड़ लिए हैं।”