लोकसभा चुनाव होने में लगभग दो वर्ष बाकी हैं, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने अभी से नए राजनैतिक समीकरणों के बारे में अनुमान लगाना शुरू कर दिया है। लालू प्रसाद की सार्वजनिक संवाद की शैली चाहे जितनी भदेस या मसखरेपन वाली हो, उनकी राजनैतिक सूझबूझ में किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। उनका कहना है कि अगर मायावती और अखिलेश यादव की पार्टियां एक साथ आ जाएं और नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, हार्दिक पटेल और ममता बनर्जी भी साथ में जुड़ जाएं तो फिर समझिए कि ''मैच ओवर’’ हो गया, यानी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता से बाहर हो गया। ध्यान देने की बात यह है कि उन्होंने इस सिलसिले में जनता दल (यू) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम नहीं लिया जबकि उनकी पार्टी नीतीश कुमार के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार चला रही है। राष्ट्रपति के चुनाव में नीतीश कुमार भाजपा के उम्मीदवार को समर्थन दे रहे हैं और उनकी आगे की रणनीति के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। हालांकि लालू यादव ने प्रियंका गांधी का नाम उन लोगों के साथ लिया, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार परेशान करके तोड़ने की कोशिश कर रही है, लेकिन मीडिया ने इसकी व्याख्या ऐसे की है मानो वे प्रियंका को विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व ही सौंप रहे हों!
लालू यादव के कथन में सच्चाई तो है, लेकिन आधी। यह सच है कि अगर मायावती और अखिलेश यादव यानी बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में हाथ मिला लें, और उनके साथ-साथ ओडिशा में नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी जुड़ जाएं, तो विपक्ष की ओर से मोदी को बहुत भारी राजनैतिक चुनौती दी जा सकती है। लेकिन यह अर्धसत्य इसलिए है क्योंकि चुनावी गणित सिर्फ जोड़ने-घटाने पर निर्भर नहीं करता। इस समय अगर विपक्ष मोदी के सामने कोई खास बड़ी चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है तो उसका एकमात्र या सबसे महत्वपूर्ण कारण उसमें एकता की कमी नहीं है।
विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास मोदी का कोई विकल्प नहीं है। न किसी नेता के रूप में और न ही वैकल्पिक राजनैतिक आख्यान के रूप में। विपक्ष की एक दूसरी बड़ी कमजोरी उसके मनोबल का टूट जाना है। जब नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए थे, तो कुछ समय के लिए लगा था कि विपक्ष के हाथ-पांव फूल गए हैं और वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा नजर आ रहा है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता गया कि उसके हाथ-पांव फूले हुए नहीं हैं, उसे तो लकवा मार गया है। देश की जनता पर मोदी लगातार निर्मम प्रहार किए जा रहे हैं। पहले नोटबंदी और अब जीएसटी के कारण बहुत बड़ा तबका तकलीफें झेलने को विवश है। लेकिन विपक्ष सड़कों पर आना तो दूर, बयानबाजी तक से इन कदमों का कारगर ढंग से विरोध नहीं कर पाया। नोटबंदी ऐसा कदम था, जो किसी भी विपक्षी पार्टी के एजेंडे पर कभी नहीं रहा। इसलिए उसके विरोध में आंदोलन करना और जनता के बीच जाकर उसके साथ फिर से जीवंत संबंध स्थापित करना विपक्षी पार्टियों के लिए अपेक्षाकृत सरल था। लेकिन वे सत्तारूढ़ दल के भ्रामक प्रचार के जवाब में अपने रुख का प्रचार नहीं कर पाईं। केवल अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने कोशिश की लेकिन अकेले उनकी कोशिश से क्या होने वाला था? जीएसटी पर तो विपक्ष खुद ही बंटा हुआ है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने ही शुरुआत में इसे प्रस्तावित किया था और उस समय भाजपा और मोदी ने उसका जबर्दस्त विरोध किया था। लेकिन जहां भाजपा पलटी खाने में असाधारण कौशल का परिचय दे रही है, वहीं कांग्रेस ऐसे पहलवान की तरह है जो अपने वजन के कारण फुर्ती नहीं दिखा पाता। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी जीएसटी पर भीतर से बंटी हुई है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता इसके भारी समर्थक हैं और इसकी रूपरेखा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष हुआ करते थे। इस समय केरल के मार्क्सवादी वित्त मंत्री थॉमस आइजक खुलकर जीएसटी का समर्थन कर रहे हैं जबकि पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व और कई राज्यों का स्थानीय नेतृत्व उसका विरोध कर रहा है। अन्य विपक्षी पार्टियों की हालत भी इस मामले में कोई बहुत अच्छी नहीं है।
जब-जब केंद्र सरकार को चुनाव में अपदस्थ किया गया, तब-तब हमेशा विपक्ष के पास एक मजबूत और कद्दावर नेता हुआ करता था। 1977 में जयप्रकाश नारायण विपक्षी एकता का प्रतीक होकर उभरे थे और 1980 में इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता ने जनता पार्टी को हरा कर सत्ता में अपनी वापसी की थी। राजीव गांधी को सत्ताच्युत करने से पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह करिश्माई नेता के रूप में उभर कर आ चुके थे और लगभग समूचा विपक्ष उनके साथ था। इसी तरह भाजपा ने पहले अटल बिहारी वाजपेयी और फिर मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्ता प्राप्त की। वाजपेयी सरकार को सत्ता से बाहर करने में सोनिया गांधी की भूमिका का केंद्रीय महत्व था। लेकिन आज स्थिति क्या है?
शायद स्वास्थ्य संबंधी कारणों से पिछले वर्षों के दौरान सोनिया गांधी की सक्रियता लगातार कम होती गई है और वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में उनकी उपस्थिति नाममात्र की रह गई है। कांग्रेसजनों ने राहुल गांधी से बहुत-सी आशाएं की थीं, लेकिन समझदारी और नेकनीयती के बावजूद वे अपना प्रभाव छोडऩे में अधिकांशत: असफल रहे हैं क्योंकि ऐसा लगता है कि उनका दिल राजनीति में नहीं है। थोड़े-थोड़े दिनों बाद उनका अचानक लंबे अरसे के लिए गायब हो जाना अब हंसी-मजाक का कारण बन गया है और किसी भी राष्ट्रीय नेता की अगंभीर छवि बनना उसके प्रभाव को कम करता है। देश की राजनीति को बदलने के लिए बहुत मेहनत और राजनैतिक दूरदर्शिता की जरूरत है। अंशकालिक नेता से राजनैतिक बदलाव का सूत्रधार बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
अभी भी दो साल का समय बाकी है। राहुल गांधी चाहें तो अब भी अपनी कार्यशैली बदल कर पार्टी को सक्षम और प्रभावी नेतृत्व दे सकते हैं। उनके पक्ष में सबसे सकारात्मक बात यह है कि जिस तरह से देश ने मोदी पर इसलिए भरोसा किया था क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं था, उसी तरह से कांग्रेस सरकारों के भ्रष्ट आचरण के बावजूद राहुल गांधी के व्यक्तित्व और निजी साख पर अभी तक कोई दाग नहीं है। लेकिन उनका एक कद्दावर नेता के रूप में उभरना अभी केवल एक संभावना ही है, और इस संभावना पर आशाएं नहीं टिकाई जा सकतीं। हालांकि प्रियंका गांधी ने हमेशा ही राजनीति में आने की संभावना से इनकार किया है, लेकिन कांग्रेसजनों को अभी भी उम्मीद है कि देर-सबेर वे सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर सकती हैं। अगर आने वाले दो वर्षों में ऐसा हुआ, तो उनके नेतृत्व में कांग्रेस संगठन में जान आ सकती है और विपक्ष को एक सक्षम नेता मिल सकता है। जिन्होंने भी उनकी चुनाव सभाएं देखी हैं, वे जानते हैं कि प्रियंका गांधी जनता के साथ तत्काल संवाद बना लेती हैं और उनकी हिंदी भी अधिक स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है। लेकिन यह भी ऐसी संभावना है जिसके पूरा होने से पहले कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वाम दलों के बीच जैसा शत्रुतापूर्ण संबंध विकसित हुआ है, वह लगभग वैसा ही है जैसा उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के बीच है। जिस गुंडागर्दी का विरोध करके ममता बनर्जी सत्ता में आई थीं, अब वही गुंडागर्दी उनकी पार्टी के लोग कर रहे हैं। लेकिन भाजपा की वहां सक्रियता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश को देखते हुए बहुत संभव है कि ममता बनर्जी पर लालू यादव की अपील का असर पड़े और वे राष्ट्रीय स्तर पर किसी महागठबंधन में शामिल होने को तैयार हो जाएं।
लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को वास्तविक चुनौती तभी मिल सकती है जब विपक्ष एकजुट होकर जनता के सामने सभी क्षेत्रों में वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत करे। समस्या यह है कि विपक्ष की अधिकांश पार्टियों का आर्थिक नजरिया लगभग वही है जो सत्तारूढ़ भाजपा का है। भले ही कांग्रेस यह कहकर कि मोदी सरकार उसी की नीतियों और कार्यक्रमों पर अपना ठप्पा लगा कर पेश कर रही है, सरकार की खिल्ली उड़ाए लेकिन इसी वजह से वह सरकार की नीतियों का विरोध नहीं कर पा रही है। उसमें मोदी और भाजपा जैसा लचीलापन भी नहीं है कि वह कल तक स्वयं जिन नीतियों को लागू कर रही थी, विपक्ष में आने के बाद उनका विरोध शुरू कर दे।
पिछले वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनैतिक गतिविधियों पर अनेक तरह की रोक लगाई गई है और सरकार के विरुद्ध किसी भी प्रकार के विरोध प्रदर्शन को राष्ट्रद्रोह बताकर उसे बदनाम किया जा रहा है। उन्मादपूर्ण सैन्यवाद को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और सेना की किसी भी प्रकार की आलोचना को भी देशद्रोह की श्रेणी में रखा जा रहा है, जबकि राज्य की अन्य सभी संस्थाओं और अंगों की तरह ही सेना भी देश के संविधान के तहत काम करती है और संसद तथा देश की जनता के प्रति उत्तरदायी है। लेकिन विपक्षी दलों ने इन मुद्दों पर भी कोई आंदोलन चलाने की कोशिश तक नहीं की है। इस तरह का लुंजपुंज विपक्ष नरेन्द्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता को गंभीर चुनौती दे पाएगा, फिलहाल तो इसकी संभावना क्षीण ही लगती है। लेकिन राजनीति को 'संभावना की कला’ कहा जाता है। अगले दो वर्षों में देश की राजनीति में भारी बदलाव भी आ सकता है और विपक्ष में जान भी पड़ सकती है। लेकिन मोदी को चुनौती देने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक आख्यान प्रस्तुत करना एक ऐसी अनिवार्यता है, जिसे विपक्ष को समझना और पूरा करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक हैं)