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राजकाज के तौर-तरीके

आज के युवाओं के बीच गवर्नेंस आकर्षक विषय के रूप में उभरा
लैम्प फेलो आद्र‌िजा दास

अब वैकल्पिक कॅरिअर के अवसर देखकर कोई अपनी भौंहें नहीं उठाता। आज का युवा अपनी अभिरुचि के मुताबिक कॅरिअर बनाने के नए रास्ते खोजने को उत्साहित है, भले ही यह काम कितना ही जोखिम भरा क्यों न हो। अच्छी बात यह है कि अभिभावकों की मानसिकता में भी बदलाव देखने में आया है। बच्चों को कुछ पिटे-पिटाए रास्ते चुनने के लिए बाध्य करने वाले माता-पिता की बात अब पुरानी हो गई है। इसके बजाय आजकल के अभिभावक अपने बच्चों को उनकी रुचि के मुताबिक रास्ते चुनने में मदद करते हैं। 

आज के युवाओं की अभिरुचि विविध है। सोशल मीडिया ने उनके सामने संभावनाओं की पूरी दुनिया खोलकर रख दी है। युवा अब परंपरागत कॅरिअर विकल्पों जैसे इंजीनियरिंग, मेडिकल या वकालत तक सीमित नहीं रह गए हैं। वे एक ऐसा नया क्षेत्र चुनते हैं जो बहुत लुभावना है। यहां तक कि चार साल की इंजीनियरिंग या वकालत की पढ़ाई करने के बाद भी युवा अब इस नए विषय के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। कई हैं जो इस नए विषय को समझना चाहते हैं। वह विषय है-गवर्नेंस यानी राजकाज या प्रशासन।

कुछ के लिए यह प्रभाव हासिल करने का जरिया हो सकता है तो कुछ के लिए सरकार को नजदीक से जानने या फिर प्रभावशाली लोगों के बीच उठने-बैठने का मौका। हालांकि पढ़ाकू किस्म के जो युवा इस विषय को कॅरिअर के रूप में चुनते हैं, यह सब बातें उनके दिमाग में नहीं होतीं। इस कॅरिअर को चुनने का मतलब है, चुनने वाले को नीतियां बनाने का अवसर मिल सकेगा। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि संसद कैसे काम करती है, किसी विधेयक को तैयार करने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, कैसे नई योजना और परियोजना लाई जाती है तथा नीतियों के क्रियान्वयन में मौजूद खामियों को दूर करने के लिए क्या किया जाना चाहिए।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए गैर लाभकारी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने लैम्प नाम की फेलोशिप शुरू की है। लैम्प का मतलब है लेजिस्लेटिव असिस्टेंस टू मेंबर्स ऑफ पार्लियामेंट यानी सांसदों के लिए विधायी सहयोग। लैम्प का वजीफा पाए करीब 44 फीसदी फेलो राजनीतिक और नीतिगत दायरे के भीतर काम करते हैं जबकि कुछ अन्य विकास के क्षेत्र में उद्यमी बन जाते हैं।

लैम्प फेलोशिप का काम देखने वाले प्रवीण चंद्रशेखरन बताते हैं कि गवर्नेंस के क्षेत्र में हमेशा से ऐसे लोगों की मांग रही है जो गुणवत्तापूर्ण शोध सहयोग मुहैया करा सकें। उनके मुताबिक, ''पहले इस किस्म की प्रक्रिया को सहज बनाने के लिए औपचारिक प्रणालियों का अभाव होता था। इसी वजह से युवा इस क्षेत्र से दूर रहते थे।’’ संस्थागत सहयोग, नीति निर्माण की प्रक्रिया के साथ जुड़ने में युवाओं को न केवल प्रोत्साहित करता है बल्कि उन्हें काम का प्रभाव छोड़ने के लिए प्रेरित भी करता है।

मसलन, राज्यसभा ने अप्रैल 2014 में जब समलैंगिकों के अधिकारों से संबंधित विधेयक पारित किया तो 1971 के बाद राज्यसभा से पारित होने वाला यह पहला प्राइवेट मेंबर विधेयक रहा। इस काम में लैम्प के एक फेलो का शोध सहयोग शामिल था। इसी तरह सैनिटरी नैपकिन पर लगे कर को हटाने के लिए चले प्रचार अभियान ''टैक्स फ्री विंग्स’’ में भी लैम्प के एक फेलो का सहयोग था। चंद्रशेखरन कहते हैं, ''नीतिगत प्रक्रिया पर प्रभाव छोड़ने का सामर्थ्य ही ज्यादातर युवाओं को इस ओर आकर्षित करता है। इसके अलावा व्यवस्था में ऐसे लोगों की अहमियत भी अब स्वीकारी जाने लगी है।’’

ये युवा किसी वजीफे या ऐसे ही कार्यक्रम के माध्यम से किसी सांसद अथवा किसी राज्य के मुख्यमंत्री कार्यालय के साथ जुड़कर काफी श्रम करते हैं। कुछ युवा राजनीतिक दलों को अलग-अलग मसलों पर सहयोग देते हैं। कई तो ऐसे हैं जो मोटे वेतन वाली निजी क्षेत्र की नौकरियां छोड़कर यहां किस्मत आजमाने आते हैं।

उदाहरण के तौर पर आद्रिजा दास (25) को लें। उन्होंने पश्चिम बंगाल नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ जुरिडिकल साइंसेज से कानून की पढ़ाई करने के बाद दो साल तक एक लॉ फर्म में काम किया। इसके बाद उन्हें अहसास हुआ कि उनकी रुचि कानून से ज्यादा सरकारी नीतियों में है। आद्रिजा ने तुरंत मोटे वेतन वाली अपनी नौकरी छोड़ दी और बीजू जनता दल के सांसद तथागत सतपथी के साथ जुड़ कर काम करने लगीं।

सतपथी के साथ कार्यकाल समाप्त होने के बाद वे एक संगठन से जुड़ गईं और सामाजिक क्षेत्र के लिए नीति निर्माण पर शोध कर रहे एक राजनीतिक दल को सहयोग देने लगीं। उन्होंने आउटलुक को बताया, ''भविष्य में भी मैं सामाजिक क्षेत्र में नीति निर्माण का काम जारी रखना चाहती हूं... जैसे निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए शिक्षा के अधिकार का क्रियान्वयन। एक विषय के रूप में कानून में बेशक मेरी दिलचस्पी रही लेकिन उससे मेरी बौद्धिक खुराक पूरी नहीं होती थी।’’

साई अनुराग लक्काराजू (24) अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं। वह अपने मूल निवास आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में हुए विकास कार्यों से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने गवर्नेंस सीखने का फैसला ले लिया। आद्रिजा वाली ही फेलोशिप के अंतर्गत उन्होंने कांग्रेसी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के सानिध्य में प्रशिक्षण लिया। अब वह पार्टी के एससी विभाग को स्वैच्छिक कायकर्ता के रूप में सहयोग देते हैं। साथ ही उन्होंने एक कानूनी सेवा भी शुरू की है जिसमें वह लोगों को कानूनी कागजात तैयार करने में मदद देते हैं। वह इसके लिए एक ऐप बनाने की कोशिश में जुटे हैं।

वह बताते हैं, ''मैं विधायी कार्य का जानकार नहीं हूं लेकिन उसमें मैंने अनुभव अर्जित किया है। अब मेरे लिए कानूनी समझौते के कागजात, ट्रेडमार्क, उपभोक्ता शिकायतें आदि ड्राफ्ट करना कठिन नहीं है और छोटे कारोबारियों के लिए इससे मुझे सही वकील खोजने में आसानी होती है। मैं स्वैच्छिक कार्यकर्ता के रूप में कांग्रेस पार्टी को मदद दे रहा हूं लेकिन मुझे पैसे भी कमाने हैं। जन प्रतिनिधियों के साथ काम करने के बाद आपको पता चलता है कि सरकार कैसे काम करती है।’’

कॅरिअर परामर्शदाता उषा अलबुकर्क का मानना है कि माता-पिता के प्रभाव में आ रहा बदलाव बच्चों को कुछ हट कर करने के लिए प्रेरित कर रहा है। पहले माता-पिता को लगता था कि नौकरी पाने के लिए उनके बच्चे के पास एक पेशेवर डिग्री होनी चाहिए। सोशल मीडिया को  धन्यवाद देना चाहिए कि आज वे भी सुरक्षित दायरे से बाहर निकलकर विभिन्न अवसरों के बारे में सीख पा रहे हैं।

वह कहती हैं, ''कई महानगरीय स्कूलों में अब केवल विज्ञान को ही तरजीह नहीं दी जाती है, जैसा कि अतीत में होता था जब सारे अव्वल विद्यार्थी विज्ञान के ही हुआ करते थे। एक बार वे मानविकी या वाणिज्य को चुन लेते हैं तो उनके सामने तमाम अवसर खुल जाते हैं। ये सारे विषय अब कॅरिअर के लिहाज से स्वीकार्य हो चले हैं।’’

दस-पंद्रह साल पहले तक माता-पिता को लगता था कि होटल प्रबंधन या एयर होस्टेस की नौकरी सम्मानजनक नहीं होती है लेकिन जब एयरलाइनों ने अच्छे वेतन पर युवाओं की भर्ती करनी शुरू की तो माता-पिता की मानसिकता में बदलाव देखने में आया। अलबुकर्क कहती हैं, ''आज हालांकि एक फर्क जो मैं देख पा रही हूं वह यह है कि युवा चाहे जो भी कॅरिअर चुनें, वह 10-15 साल से ज्यादा नहीं टिकते क्योंकि उनका कामकाजी जीवन बहुत गतिशील होता है।’’ उन्हें लगता है कि आज का युवा अवसरों को पहचानना सीख चुका है।

वह कहती हैं, ''एक बार उन्हें किसी खास लाइन में आत्मविश्वास पैदा हो जाए तो वे पूरक के तौर पर कुछ और आजमाने की चाहत रखते हैं। वे ऐसा इसलिए भी करते हैं क्योंकि तब तक उन्हें एक हद तक आर्थिक सुरक्षा हासिल हो जाती है।’’

पहले लोग अपने कॅरिअर के मध्य में या और बाद में काम बदलने का जोखिम उठाते थे। पिछले एक दशक में हमने देखा है कि अलग-अलग अकादमिक पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं ने गवर्नेंस और सार्वजनिक नीति का क्षेत्र चुना है।

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी के कार्यकारी निदेशक सुब्रत दास के अनुसार इसके पीछे युवाओं की महत्वाकांक्षा काम कर रही है। वह कहते हैं, ''इसीलिए वे कार्य संतुष्टि को बाकी चीजों पर तरजीह दे रहे हैं। पैसे के मामले में जोखिम उठाने की उनकी चाहत और तैयारी के चलते यह चलन बढ़ा है।’’ एक और कारण बेहद कामयाब ऐसे उद्यमियों का बढ़ता चलन है जो भारत और विदेश में अग्रणी समाज सेवियों की कतार में शामिल हो रहे हैं।

दास हालांकि इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि जो युवा गवर्नेंस और नीतिगत क्षेत्र को चुन रहे हैं वे कितना वक्त इसमें बने रहेंगे। वह कहते हैं, ''यह ऐसा क्षेत्र है जहां आप हताश हो सकते हैं इस बात का इंतजार करते-करते कि आपका किया काम आम लोगों की जिंदगी पर आखिर कब असर डालेगा। हम जिन सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से निपट रहे हैं वे जटिल हैं और इसलिए उन्हें प्रभावी होने में लंबा वक्त लगता है।’’

कुछ ऐसे भी युवा हैं जो इसी क्षेत्र में बने रहना चाहते हैं। उनमें एक हैं आत्रेय मुकुंदन (25) जिन्होंने बीजेडी के नेता रबिंद्र कुमार जेना के अंतर्गत प्रशिक्षण लिया है।

वह कहते हैं, ''अंत में जब साठ साल का होने पर मैं अवकाश की स्थिति में आऊंगा तब तक कम से कम 10 लोगों का जीवन मैंने बदल दिया होगा- भारी बैंक बैलेंस और जेब के मुकाबले मुझे इस बात से कहीं ज्यादा संतोष हासिल होगा।’’

 

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