जिले की चाह लिए एक कस्बा
गांवों से घिरा झंझारपुर एक कस्बा है, जो शहर होना चाहता है। बिहार के मधुबनी जिले के इस सब-डिवीजन के अंदर जिला बनने की ख्वाहिश कई दशक से है। जैसा कि छोटे कस्बों में रहने वालों की चाह होती है, स्कूल से पढ़-लिखकर हर कोई दरभंगा-दिल्ली की रेलगाड़ी पकड़ना चाहता है। अब तो दरभंगा में हवाईअड्डा भी है! क्या यह शहर है? यह सवाल बहुत बाद में हमारे मन में आया, जब हमने शहरों को देखा और वहीं के होकर रह गए। लेकिन हमारे बचपन का तो यही पहला शहर है। यहां थाना है, बाजार है, कोर्ट, कॉलेज है, स्टेडियम भी है। हां, यहां के ‘बांस टॉकीज’ में ही हमने पहली फिल्म देखी। मां भी कहती हैं कि मैथिली की पहली प्रदर्शित फिल्म कन्यादान उन्होंने 1972-73 में ‘बांस टॉकीज’ में ही देखी थी।
जिसके आंगन बहती है नदी
झंझारपुर के आंगन में नदी बहती है। असल में कमला और बलान नदियों के तट पर बसा यह शहर राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण रहा है। यह लोकसभा क्षेत्र भी है जहां से चुनकर देवेंद्र यादव केंद्र सरकार में मंत्री बने। लेकिन बिहार के राजनीतिक इतिहास में यह पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की वजह से जाना जाता है, जो झंझारपुर विधानसभा से चुनकर बिहार के मुख्यमंत्री बनते रहे। लंगड़ा चौक पर बैठकर राष्ट्रीय जनता दल के नेता, प्रोफेसर रामदेव भंडारी को अखबार बांचते हमने देखा और बाद में राज्यसभा में भी। यहीं हमने राजीव गांधी, चंद्रशेखर, वी.पी. सिंह और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता को देखा-सुना। दादी के मुंह से लाट साहबों के किस्से सुने। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 में झंझारपुर स्थित थाने को घेरने-जलाने की बात भी मैंने स्वतंत्रता सेनानियों के मुंह से सुनी है। किसी इतिहासकार को इस शहर के राजनीतिक इतिहास को कलमबद्ध करना चाहिए।
सांस्कृतिक एकता का पुल
बीसवीं सदी की शुरुआत में कमला-बलान नदी पर करीब दो सौ बीस फुट लंबा रेल बिज्र बनाकर अंग्रेजों ने झंझारपुर को अन्य शहरों से जोड़ा था। 1970 के दशक की शुरुआत में इस पुल को रेल-सह-सड़क में तब्दील कर दिया गया, जो दशकों तक लोगों के लिए कौतुक का केंद्र बना रहा। ट्रैफिक के कारण और बाढ़ के दिनों में यह अक्सर परेशानी का सबब भी रहा। अब यह पुल इतिहास के पन्नों में है। पिछले दिनों इसी पुल के समांतर रेलवे ने एक ब्रिज तैयार कर दिया। वैसे दस-बारह साल पहले ही राष्ट्रीय राजमार्ग 57 ने इस ‘अजीबोगरीब पुल’ की अहमियत कम कर दी थी। कोसी के किनारे बसे शहर अब कमला-बलान के करीब आ गए हैं। रेलमार्ग और राजमार्ग मिथिला की सांस्कृतिक एकता के पुल हैं, जो शहर के कारोबारियों के लिए भी नए अवसर लेकर आए हैं।
कला पारखी की तलाश में
मधुबनी मिथिला पेंटिंग का दूसरा नाम है, हालांकि यह नाम मिथिला पेंटिंग के साथ न्याय नहीं करता। झंझारपुर के आस-पड़ोस के लगभग हर गांव में मिथिला पेंटिंग होती है। दरभंगा-मधुबनी से दूरी की वजह से कलाकारों की पहुंच सत्ता केंद्रों तक नहीं हो पाती। मधुबनी जिले के ‘रांटी’ और ‘जितवारपुर’ गांव जैसे राष्ट्रीय पटल पर छा गए, झंझारपुर के गांव उसी तरह कला पारखियों के इंतजार में हैं। क्या पता यहां भी कोई सीता देवी, गंगा देवी, दुलारी देवी भविष्य के गर्भ में छिपी हो? मिथिला के इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने लिखा है कि झंझारपुर के बने कांस्य-पीतल के बर्तनों की मांग दक्षिणी राज्यों में थी। आज भी यहां कुशल कारीगर हैं, लेकिन वस्तुओं की मांग नहीं है। बाजार में गहमागहमी है, पर रौनक नहीं जो तीन दशक पहले तक थी। कई मारवाड़ी उद्यमी शहर छोड़कर दिल्ली, सूरत, मुंबई जा बसे हैं।
बेलारही का पुस्तकालय
शहरी क्षेत्र से सटे गांव बेलारही में 85 साल पुराना एक पुस्तकालय है, मिथिला मातृ-मंदिर। पिछले दिनों इसे सांसद-विधायक विकास निधि से किताबों की आमद हुई है। शहर में एक भी पुस्तकालय न होना अखरता है, जबकि ललित नारायण जनता कॉलेज करीब साठ साल पुराना है। केजरीवाल और टेवरीवाल हाइस्कूल से निकले पुराने छात्र पूरे देश में मौजूद हैं, लेकिन अपनी मातृ संस्था की सुध किसे है! कहते हैं प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर डी.एन. झा ने नौकरी की शुरुआत झंझारपुर से ही की थी। यशवंत सिन्हा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के दौरान पहला प्रशिक्षण नजदीक के सिमरा गांव के निवासी आइएएस भागीरथ लाल दास के साथ किया था। शांति स्वरूप भटनागर सम्मान से सम्मानित गणितज्ञ अमलेंदु कृष्ण भी यहीं से ताल्लुक रखते हैं।
कोई भी बन जाए भोजन भट्ट
मिथिला अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता की वजह से पूरी दुनिया में जाना जाता है। शहर में ‘पग-पग पोखर माछ मखान’ है। तरह-तरह की मछली, किस्म-किस्म के चावल, चूड़ा, साग-सब्जी, आम के विभिन्न प्रकार किसी को भी ‘भोजन भट्ट’ बनाने के लिए पर्याप्त है। अब स्ट्रीट फूड- मुरही, चूड़ा, कचरी, चप के साथ-साथ चाउमीन और चाट भी नुक्कड़-चौराहे पर मिलने लगे हैं। आस-पड़ोस के लोग शहर छोड़कर महानगरों में जा बसे हैं, लेकिन वे शादी-ब्याह, छठ आदि में ‘गामक घर’ देखने जरूर आते हैं। यहां स्वास्थ्य सुविधा बहाल हो जाए तो आने वाले वर्षों में लोग वापस अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपने अनुभव से इस शहर को समृद्ध करेंगे। यूं एक मेडिकल कॉलेज का निर्माण कार्य जोरशोर से चल रहा है।
(लेखक-पत्रकार)