आयोग इसे उच्च-शिक्षा में सुधार की प्रक्रिया के बहाने उचित ठहरा रहा है। उसका कहना है कि इस व्यवस्था से देश के विश्वविद्यालयों में छात्रों की आवाजाही आसान हो जाएगी। घोघरढीहा के कॉलेज का छात्र वहां से क्रेडिट लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जा सकेगा। बात सुनने में लुभावनी लगती है, अगर हम भूल जाएं कि देश के अधिकतर विश्वविद्यालय, जो राज्यों में हैं, शिक्षकविहीन हैं और वहां शायद ही पठन-पाठन होता है। दूसरे, हैदराबाद या दिल्ली जैसे विश्वविद्यालयों में अभी के मौजूदा छात्रों के लिए ही पर्याप्त कमरे-शिक्षक और अन्य साधन नहीं हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में, जो देश का सबसे प्रतिष्ठित उच्च-शिक्षा संस्थान माना जाता है,कई विषयों में क्लास में खड़े होने की जगह नहीं होती है। ऐसी हालत में अगर बंगाल, ओड़िसा, बिहार, या असम से और छात्र हर सत्र में पहुंचने लगें तो कहां समाएंगे, यह सोचा ही जा सकता है! शिक्षक-छात्र अनुपात की तो तो बात करना ही बेकार है।
आयोग को लेकिन ऐसे दुनियावी सवालों से लेना देना नहीं है। आखिर यह वही आयोग है जिसने दो साल पहले शिक्षकों और छात्रों के कड़े विरोध के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय को चार-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू करने की इजाजत भर ही नहीं दी थी, उस कार्यक्रम की प्रशंसा भी की थी और कहा था कि दिल्ली के बाद इसे पूरे देश में लागू करने के बारे में सोचा जा सकता है। साल भर बाद, उसी आयोग ने फिर आदेश जारीकर दिल्ली विश्वविद्यालय को वह पाठ्यक्रम वापस लेने को मजबूर किया। इस एक कदम ने ही उसकी अकादमिक विश्वसनीयता को पूरी तरह धूल में मिला दिया। उसके पहले इसी तरह के एक आदेश के जरिए उसने पूरे देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर सेमेस्टर व्यवस्था आरोपित कर दी थी। आज भी वे उससे तालमेल नहीं बैठा सके हैं। लेकिन आयोग को इससे क्या मतलब कि असल में कॉलेजों और कक्षाओं में क्या हो रहा है। अमरीकी व्यवस्था से चकाचौंध नीति-निर्माता भूल जाते हैं कि वहां का सन्दर्भ बिलकुल अलग है और उन्होंने किसी की नक़ल नहीं की। वहां कोई सोच भी नहीं सकता कि विश्वविद्यालय के अकादमिक फैसले कहीं बाहर लिए जा सकते हैं!
आयोग के साथ-साथ मानव संसाधन मंत्रालय के आदेश भी उच्च-शिक्षा की कब्र खोदने का काम कर रहे हैं। मंत्रालय विश्वविद्यालयों के कामकाज में अपनी निर्णायक भूमिका चाहता है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के अलग-अलग कानूनों को खत्म कर वह एक केन्द्रीय कानूनों के जरिए इन्हें शासित करना चाहता है। वह इनकी केंद्रीय परिषद् बनाना चाहता है जिसकी अध्यक्षता मंत्री करे। इस क़ानून में विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की एक-से-दूसरे में तबादले का प्रावधान भी है। शिक्षकों का तबादला कौन करेगा? इसका राजनीतिक या दूसरा इस्तेमाल होने की पूरी आशंका है, अगर हम राज्यों के कॉलेजों में होने वाले तबादलों को ध्यान में रखें। भ्रष्टाचार और राजनीतिक नियंत्रण को यह सीधा न्योता है। इस प्रावधान के जरिए हर सरकार केन्द्रीय विश्वविद्यालयों पर अपना कब्जा पक्का करना चाहेगी।
अभी के प्रस्तावित परिवर्तनों के साथ केंद्र सरकार के निर्णयों को मिलाकर देखने से लगता है कि भारत से ज्ञान और विद्वत्ता को अब बोरिया-बिस्तर बांधने को कह दिया गया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के अध्यक्ष हों या राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष, हर बहाली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकटता या उसके प्रति वफादारी ही शर्त है। अनेक केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति बहाल करने में सरकार को साल भर से भी ऊपर लग गया, कई अभी तक प्रमुख-विहीन हैं। यही हाल विज्ञान और अनुसंधान से जुड़े संस्थानों का है.आई.आई.टी.को लेकर कई विवाद सामने आ चुके हैं। एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक को इस्तीफा देने को मजबूर किया गया क्योंकि वे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की समीक्षा को रोक देने के मंत्री के आदेश को चुनौती दे रही थीं।
अगर इसे ध्यान में रखें कि केंद्र के साथ कई राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो समझने में आसानी होगी कि शिक्षा के क्षेत्र में नुक्सान कितना बड़ा होने जा रहा है। हरियाणा सरकार ने दीनानाथ बत्रा को अपना शिक्षा-सलाहकार बनाया है और राजस्थान सरकार ने स्कूली किताबों पर काम करने वालों को विदाई दे दी है। वसुंधरा राजे सरकार पिछली बार जब मुख्यमंत्री थीं तो स्कूली बच्चों को ऐसी पाठ्यपुस्तकें पढ़ने को दी गयी थीं जिनमें विश्व का पहला अंग-प्रत्यारोपण का उदाहरण गणेश पर हाथी का सर लगाना बताया गया था।
इस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया है कि पिछले एक साल में शिक्षा पर सरकार की ओर से जितनी औपचारिक बातें की गई हैं, उनमें ज्ञान शब्द कहीं नहीं दिखाई देता। तो क्या हम मान लें कि शिक्षा में ज्ञान के दिन पूरे हो गए हैं?