“आज अमेरिका, न्यूजीलैंड, कनाडा, पुर्तगाल, सिंगापुर और आयरलैंड जैसे देशों में भारतीय मूल के कई नेता वहां की सरकारों में महत्वपूर्ण मंत्री पदों पर आसीन हैं। ऋषि सुनक अगर 10, डाउनिंग स्ट्रीट में पहुंचते हैं तो यह वाकई खास होगा”
'बिदेसिया’ भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की अमर कृति है, जो आजीविका की तलाश में परिवार पीछे छोड़कर महानगर की ओर पलायन करने वाले एक ग्रामीण नौजवान की कहानी है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में लिखे गए इस कालजयी नाटक में उन हजारों प्रवासियों की व्यथा-कथा का मार्मिक चित्रण है, जिन्हें अंग्रेजों के शासन काल में रोजी-रोटी के लिए अपने प्रियजनों से बिछड़ना पड़ा। ‘बिदेसिया’ का नायक तो अंत में अपने गांव लौट आता है, लेकिन उस दौर में हजारों गरीब, अकुशल और अशिक्षित मेहनतकश ऐसे थे, जिन्हें फिर घर-वापसी नसीब नहीं हुई। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ‘गिरमिटिया’ मजदूर के रूप में उन्हें अलग-अलग जत्थों में बड़े जहाजों से सुदूर देशों में भेजा गया, जहां वे तमाम मुश्किल हालात के बावजूद स्थानीय संस्कृति में रच-बस गए। ये उन जीवट वाले लोगों की दास्तान है, जो महीनों की जानलेवा समुद्री यात्रा के बाद वहां पहुंचे और अपना नया जीवन प्रारंभ किया। घर-परिवार से बिछड़ने का गम उनको जीवनपर्यंत सालता रहा लेकिन हर उस पलायन की कहानी महज त्रासदी बयां नहीं करती। दशकों के संघर्ष के बाद उनकी सफलता मिलने की स्मृति आज किसी प्रेरक दस्तावेज से कम नहीं हैं। उन्हीं गिरमिटिया प्रवासियों के कई वंशजों ने न सिर्फ उन देशों को दिल से अपनाया, बल्कि वहां के समाज में अपनी प्रतिभा और कौशल का परचम लहराया। कुछ तो कालांतर में कैरिबियाई और मॉरीशस जैसे देशों में राष्ट्राध्यक्ष भी बने। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बड़े पैमाने पर ये प्रवासी तब बने, जब अंग्रेज हुक्मरान व्यापार विस्तार करने के लिए भारतीय मजदूरों को अपने दूसरे उपनिवेशों में भेजा करते थे। जाहिर है, यह सिलसिला देश की आजादी के बाद समाप्त हो गया।
भारतीय नौजवानों का सुदूर देशों के लिए पलायन का अगला दौर स्वतंत्रता के बाद साठ के दशक में हुआ, जब यहां से सैकड़ों डॉक्टर और इंजिनियरों ने पाश्चात्य देशों की ओर रुख किया। नेहरू सरकार द्वारा स्थापित आइआइटी जैसे शिक्षण संस्थानों में पढ़े उन टेक्नोक्रैट की अमेरिका जैसे विकसित देशों में भारी मांग रही। नए दौर में यह ब्रेन-ड्रेन का सबब बना, जिसने हजारों प्रतिभाशाली युवाओं को बेहतर पगार, सुविधाजनक परिस्थितियां और आरामदायक जीवनशैली के लिए पाश्चात्य देशों में पलायन करने को प्रेरित किया। पेट्रो-डॉलर की बदौलत सत्तर के दशक में समृद्ध हुए पश्चिम एशिया के कई देशों में भी भारतीयों कामगारों के पलायन में अभूतपूर्व तेजी आई, जिनमें कुशल और अकुशल दोनों तरह के कामगार थे। उनके द्वारा भेजे गए पैसों ने देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में उस समय से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अस्सी और नब्बे के दशक में कंप्यूटर और इंटरनेट क्रांति ने भारतीय प्रतिभाओं के लिए दुनिया भर में जमीन तैयार की। वैश्विक स्तर पर उदारीकरण के कारण अमेरिका जैसे देशों में उनके जाने का रास्ता सुगम हो गया और सिलिकॉन वैली में भारतीय प्रतिभाओं का ऐसा दबदबा हो गया कि कई जगहों पर उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए कि वे स्थानीय नौकरियां छीन रहे हैं। नई सदी में तो गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी दुनिया की शीर्ष कंपनियों के सर्वेसर्वा भारतीय बन बैठे। निःसंदेह यह सब सिर्फ मेधा के ही बदौलत संभव हो सका।
इन सब के बावजूद, वैश्विक स्तर पर, खासकर पाश्चात्य देशों में भारतीय मूल के लोगों की सियासत में भागीदारी सीमित ही रही। मॉरीशस और कुछ कैरिबियाई देशों को अपवाद मान लें, तो भारतवंशियों की राजनीति में हिस्सादारी नगण्य रही। लेकिन, अब परिस्थितियां बदल रही हैं। ब्रिटेन में ऋषि सुनक जैसे भारतीय मूल के युवा नेता न सिर्फ बोरिस जॉनसन कैबिनेट के मंत्री रहे बल्कि अब वे अगले प्रधानमंत्री बनने की रेस में सबसे आगे दिख रहे हैं। हालांकि अमेरिका जैसे देश में कमला हैरिस और ब्रिटेन की सियासत में सुनक के राजनीति में इस मुकाम तक पहुंचने का श्रेय जितना भारतवंशियों की प्रतिभा को देना होगा, उतना ही वहां के लोकतांत्रिक, समावेशी समाज को भी देना होगा, जहां किसी अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बिना किसी पूर्वाग्रह और लिंग भेद, नस्ल के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना किसी नेता को आगे बढ़ने दिया जा सकता है।
जाहिर है, उन मुल्कों की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियां बदली हैं और वहां ऐतिहासिक भूलों से मिले सबक का असर स्पष्ट दिखता है। दरअसल, कई विकसित देशों में भारतवंशी नेताओं की धमक सुनाई दे रही है। आज न्यूजीलैंड, कनाडा, पुर्तगाल, सिंगापुर और आयरलैंड जैसे देशों में भारतीय मूल के कई नेता महत्वपूर्ण मंत्री पदों पर हैं। अमेरिका में जो बाइडन प्रशासन में भी अनेक भारतीय शीर्ष पदों पर हैं। यह न सिर्फ भारतीयों की राजनैतिक क्षमता और महत्वाकांक्षाओं को रेखांकित करता है बल्कि डिजिटल युग में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के पौराणिक फलसफे को साकार करता है। ब्रिटेन में आगामी चुनाव के बाद ऋषि सुनक 10, डाउनिंग स्ट्रीट में दिखते हैं या नहीं, इसे गिरमिटिया प्रवासियों की सफलता की अगली कड़ी के रूप में देखना बिलकुल बेमानी न होगा।