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अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा: डिजिटल युग की दोधारी तलवार

डिजिटल युग ने जहां एक ओर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की अभूतपूर्व स्वतंत्रता दी है, वहीं दूसरी ओर इसने...
अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा: डिजिटल युग की दोधारी तलवार

डिजिटल युग ने जहां एक ओर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की अभूतपूर्व स्वतंत्रता दी है, वहीं दूसरी ओर इसने राष्ट्र की सुरक्षा को नए और जटिल खतरों के सामने खड़ा कर दिया है। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र में सोशल मीडिया का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, और इसी के समानांतर यह सवाल भी बार-बार उठ रहा है कि क्या विचारों की अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता कभी-कभी राष्ट्रहित के विरुद्ध तो नहीं चली जाती? हाल ही में हरियाणा की एक महिला यूट्यूबर की गिरफ्तारी ने इसी सवाल को फिर से जीवित कर दिया है। उस पर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करने और सोशल मीडिया के माध्यम से संवेदनशील सूचनाएं साझा करने का आरोप लगा है। यह घटना केवल एक अपराध की कथा नहीं है, बल्कि यह उस सामाजिक और तकनीकी ताने-बाने को बेनकाब करती है, जिसमें आज का युवा इंटरनेट पर बिना मार्गदर्शन के घूम रहा है। यूट्यूब, इंस्टाग्राम, ट्विटर जैसे मंचों ने जहां क्रिएटिविटी को नये पंख दिए हैं, वहीं लोकप्रियता, पैसे और वैचारिक भ्रम की चाह ने कई बार युवाओं को उस राह पर भी धकेला है जो देशद्रोह की परछाई में खो जाती है। यह प्रश्न अब केवल कानून का नहीं, बल्कि समाज, शिक्षा और नीति का भी है, जहाँ हमें गहराई से सोचना होगा कि हम किन मूल्यों को बढ़ावा दे रहे हैं और किन्हें खो रहे हैं।

 

इस मामले की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब हम यह समझते हैं कि यह कोई एकाकी घटना नहीं है, बल्कि इसका संबंध एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से है, जिसमें कई पूर्व घटनाएँ जुड़ी हैं। बीते वर्षों में ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न केवल वैचारिक प्रचार के लिए, बल्कि जासूसी, धार्मिक कट्टरता और भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए भी किया गया। भारत में ही कई बार चीनी ऐप्स के माध्यम से डेटा चुराने की घटनाएं उजागर हुईं, जिसमें टिकटॉक, शेयरइट, और यूसी ब्राउज़र जैसे नाम प्रमुख रहे। हाल ही में इसरो से जुड़े कुछ संवेदनशील दस्तावेज़ लीक होने की आशंका, या रक्षा मंत्रालय से संबंधित सूचनाओं का ‘फिशिंग अटैक’ के ज़रिए लीक होना, यह दर्शाता है कि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर राष्ट्रीय सुरक्षा की नई चुनौती खड़ी हो रही है। आईएसआई और चीनी खुफिया एजेंसियाँ लंबे समय से सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और भारतीय युवाओं को अपने जाल में फँसाने के लिए वैचारिक हमलों, भावनात्मक कनेक्शन, फेक जॉब ऑफर्स और लव जिहाद जैसे नए हथियारों का प्रयोग कर रही हैं। यह पूरा तंत्र इस धारणा पर आधारित है कि जिस युवा को आत्म-गौरव, राष्ट्रबोध और डिजिटल साक्षरता का ज्ञान नहीं है, वह बहुत जल्दी किसी भी भ्रम का शिकार बन सकता है। ऐसे में यह घटना केवल एक गिरफ्तारी नहीं, बल्कि हमारे डिजिटल सामाजिक ताने-बाने पर एक चेतावनी है।

 

संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में स्थान दिया गया है, लेकिन यह स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है। अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिक को विचार, वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, वहीं अनुच्छेद 19(2) इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति भी देता है, विशेषतः जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या परकीय संबंधों की हो। आज सोशल मीडिया पर जो वातावरण बन चुका है, उसमें ये सीमाएँ धुँधली होती जा रही हैं। जब एक यूट्यूबर बिना किसी संपादक या नियंत्रण के लाखों लोगों तक पहुंचता है, तो यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह केवल व्यूज़ और लाइक्स के लिए देश और समाज के हितों को गिरवी न रखे। परंतु यही वह बिंदु है जहां आत्मानुशासन और नैतिक शिक्षा की कमी सामने आती है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल जब राष्ट्र की एकता, सुरक्षा और प्रतिष्ठा के विरुद्ध होने लगे, तब समाज को यह तय करना होगा कि वह इस आज़ादी को दिशा देगा या इसका दुरुपयोग होने देगा। डिजिटल मंचों पर स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता फैलाना एक तरह की वैचारिक हिंसा है, जो दिखने में शब्दों की लड़ाई लगती है, लेकिन उसका परिणाम देश की सीमाओं तक को प्रभावित कर सकता है। यह प्रश्न अब व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम सामूहिक सुरक्षा का बन गया है।

 

डिजिटल मंचों की यह अराजकता एक और कारण से चिंता का विषय बन जाती है – वह है युवाओं की मनोवैज्ञानिक स्थिति। आज का युवा ऑनलाइन मंचों पर अपनी पहचान, अपनी ‘वैल्यू’ और अपनी ‘सक्सेस’ को लाइक्स, फॉलोअर्स और कमेंट्स से आंकता है। ऐसे में अगर कोई शक्ति उसे थोड़ी सी प्रसिद्धि, थोड़े से पैसे और ‘स्पेशल मिशन’ जैसी फैंटेसी में उलझा दे, तो वह बहुत जल्दी फँस सकता है। बेरोजगारी, परिवार का दबाव, जीवन में उद्देश्य की अस्पष्टता और सही मार्गदर्शन की कमी — यह सभी कारक उसे इस तरह की डिजिटल साजिशों की तरफ ले जा सकते हैं। जिस यूट्यूबर को गिरफ्तार किया गया, उसके जीवन की पृष्ठभूमि भी शायद इसी तरह के मानसिक द्वंद्वों से भरी रही हो। किसी भी डिजिटल नागरिक के लिए यह आवश्यक है कि वह यह समझे कि उसकी हर पोस्ट, हर वीडियो और हर टिप्पणी केवल उसके लिए नहीं, बल्कि देश की छवि और सामूहिक सोच को भी प्रभावित करती है। सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा अगर यह न समझे कि आज़ादी के साथ जवाबदेही भी आती है, तो यह लहर बहुत शीघ्र ही एक सुनामी में बदल सकती है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि देशभक्ति अब केवल युद्धभूमि पर नहीं, बल्कि शब्दों, सूचनाओं और डेटा की दुनिया में भी निभाई जाती है।

 

इस समस्या का समाधान बहुआयामी होना चाहिए और केवल कड़ी सज़ा या गिरफ्तारी से यह खत्म नहीं हो सकती। सबसे पहले तो हमें डिजिटल साक्षरता को राष्ट्र निर्माण का एक अनिवार्य हिस्सा बनाना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में केवल टेक्नोलॉजी का उपयोग सिखाना पर्याप्त नहीं, बल्कि इसके नैतिक उपयोग की शिक्षा देना और भी आवश्यक है। हमें युवाओं को यह सिखाना होगा कि सोशल मीडिया पर उनकी गतिविधियाँ केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखी जाती हैं। इसके साथ ही सरकार को भी साइबर सुरक्षा से संबंधित नियमों को और अधिक कठोर तथा व्यावहारिक बनाना होगा। मौजूदा आईटी नियमों की समीक्षा कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी मंच देशविरोधी तत्वों को स्थान न दे सके। सोशल मीडिया कंपनियों को अपनी जिम्मेदारी स्पष्ट रूप से निभानी होगी – वे कंटेंट मॉडरेशन, फर्जी अकाउंट्स की निगरानी और आपत्तिजनक सामग्री पर त्वरित कार्यवाही को अपनी प्राथमिकता बनाएं। इसके साथ ही नागरिक समाज और मीडिया को भी यह दायित्व उठाना चाहिए कि वे डिजिटल नैतिकता को एक सार्वजनिक विमर्श बनाएं, ताकि यह केवल कानून की नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की भी लड़ाई बन सके।

 

अंततः यह स्वीकार करना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन ही किसी लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत होता है। अगर हम पूरी तरह से स्वतंत्रता को ही सर्वोपरि मानें, तो अराजकता जन्म लेती है, और अगर सुरक्षा के नाम पर सभी स्वर दबा दिए जाएँ, तो वह तानाशाही की ओर ले जाती है। इन दोनों ध्रुवों के बीच वह बारीक और जिम्मेदार रास्ता तलाशना होगा, जिस पर एक सजग नागरिक, एक ज़िम्मेदार सरकार और एक नैतिक समाज साथ चल सकें। हर यूट्यूबर, हर इंस्टाग्रामर और हर ट्वीटर यूज़र को यह समझना होगा कि अब उसका अस्तित्व केवल डिजिटल नहीं है – वह एक विचार का वाहक है, एक राष्ट्र की छवि का प्रतिनिधि है। अभिव्यक्ति की मशाल केवल रोशनी देने के लिए नहीं, चेतावनी देने के लिए भी होती है। अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो यह मशाल उस घर को भी जला सकती है, जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं। इसलिए यह लेख सिर्फ एक गिरफ्तारी की कथा नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक आत्ममंथन का आग्रह है – कि क्या हम अपनी आज़ादी को संजोकर रखना जानते हैं या केवल उसका उपभोग करना?।

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