इस अनोखी रेसिपी के आवश्यक तत्व हैं समान अनुपात में अहंकार, ढिठाई और संस्थाओं की कार्यपद्धति का असम्मान। साथ में घटिया सलाह का बड़ा टुकड़ा और स्वाद के लिए नमक-मिर्च लगाने वाला मीडिया। इस रेसिपी को बनाने का तरीका बेहद आसान है। चर्चा और बहस के लिए उपलब्ध सार्वजनिक जगहों को कम कर दीजिए, 100 मीटर की दूरी की एक अदृश्य परिसीमा बनाइए, संस्थान के प्रमुख की तरफ जाने वाली सीढ़ियों पर बड़ा सा फूल दान रखिए, जिसमें चारों तरफ फैलता बोगनविलिया (एक तरह का फूल) हो। इसे कुछ समय तक पकने दीजिये।
रेसिपी का अगला कदम है चर्चा की सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करना, एक के बाद एक शासनादेश भेजना, स्पष्टीकरण और सूचनाएं मांगना। व्यक्तिगत रूप से मौजूद होकर मौखिक (वाइवा) परीक्षा की परंपरा को तोड़ते हुए स्काइप के जरिए वाइवा करके रिसर्च प्रोग्राम का मजाक उड़ाना। इसके लिए संसाधन नहीं होने का बहाना करना। एमफिल में वाइवा परीक्षा खत्म करने का सुझाव नहीं मानना और पीएचडी में व्यक्तिगत रूप से मौजूद होकर वाइवा को जारी रख इसे धीरे-धीरे पकाना, ताकि इस प्रथा पर अभिमान करने वाली दूसरी यूनिवर्सिटी में उबाल न आ जाए। स्काइप के जरिए वाइवा परीक्षा में कनेक्टिविटी की दिक्कतों की अनदेखी कीजिए, क्योंकि आप पहले ही कह चुके हैं यह सब प्रारंभिक कठिनाइयां हैं। जहां तक संसाधनों की कमी की बात है तो इस समस्या को फील्ड वर्क, गेस्ट लेक्चर और विजिटिंग स्कॉलर का बजट कम करके सुलझाया जा सकता है। अकादमिक बिल्डिंग, आवासीय इकाइयों, हॉस्टल, पानी की सप्लाई, बिजली की फिटिंग्स, दीवारों पर सीलन, दीमक- इन सब समस्याओं को आगे के लिए टाला जा सकता है। यदि हॉस्टल और अकादमिक सेंटर के टॉयलेट गंदे होने की शिकायत आती है तो उसका दोष संसाधनों की कमी पर डालिए। सफाई कर्मी अगर अपना वाजिब पैसा मांगें तो उनके वेतन घटा दीजिए। इस बात की परवाह मत कीजिए कि ‘गुलाबी महल’ में स्थित रेस्ट रूम की सफाई और उनमें रूम फ्रेशनर, तौलिया, पेपर नैपकिन, टिशू रोल, सुगंधित लिक्विड साबुन यह सब वे उन इमारतों की कीमत पर करते हैं जिनमें टिशू पेपर के होल्डर टूटे हुए हैं, जिन होल्डरों में कभी टिशू पेपर रखा ही नहीं गया, जहां सोप डिस्पेंसर हमेशा खाली रहते हैं और जहां के सिस्टर्न अक्सर काम ही नहीं करते। न कोई मीटिंग कीजिए, न ही चर्चा की कोई गुंजाइश रखिए। फैसले लादने के लिए नियमित रूप से शासनादेश जारी करते रहिए। यह सुनिश्चित कीजिए कि उच्च शिक्षा की अवधारणा तहस-नहस हो जाए। यह भी सुनिश्चित कीजिए कि यूजीसी के नियमों के मुताबिक शिक्षण वर्ष 2012-13 से पहले जिन छात्रों ने डॉक्टोरल प्रोग्राम से अपना नाम वापस लिया है ताकि वे बाद में अपनी सुविधा के अनुसार थीसिस जमा कर सकें, उन्हें जुलाई 2020 तक थीसिस जमा करने के लिए कहा जाए। भले ही इससे मौजूदा नियमों का उल्लंघन होता हो। इसके लिए आपको क्लॉज 9बी की अनदेखी करने और बाद में इसे खत्म करने की सलाह दी जाती है। इससे कुचक्र तब तक धीमा-धीमा पकता रहेगा जब तक शोरबा उबलने के करीब नहीं पहुंच जाता। इसके बाद जिन विषयों में पहले से स्थापित संस्थान हैं, उनमें नए स्कूल शुरू कीजिए। इन विषयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों के रहने के लिए शादीशुदा स्कॉलर का हॉस्टल खाली करवाइए और इंजीनियरिंग एवं मैनेजमेंट डिग्री के नए छात्रों से ऊंचा शुल्क लेकर उन्हें इन हॉस्टल में रहने दीजिए, भले ही इससे यूनिवर्सिटी के विजन का उल्लंघन होता हो।
लाइब्रेरी फंड में कटौती कीजिए, सुरक्षा पर खर्च तीन गुना बढ़ाइए, कुछ युवा सपनों को रौंद डालिए, कुछ आकांक्षाओं को निचोड़ डालिए और इन सबको एक ब्लेंडर में डालिए ताकि नया आईएचए नियम लागू किया जा सके। यह सुनिश्चित कीजिए कि इस पर कोई चर्चा ना हो सके।
इसके बाद स्वच्छ भारत मिशन के नाम पर एक आदेश को अविवेकपूर्ण तरीके से लागू कीजिए- कैंपस की दीवारों को साफ करवाइए। गुलाबी महल को छोड़कर हॉस्टल समेत सभी बिल्डिंगों के सभी फ्लोर के गंदे पड़े मूत्रालयों को भूल जाइए। इस आदेश पर तत्काल अमल हो, इस बात पर विचार किए बिना कि यह काम करने वालों के पास जरूरी सामान हैं या नहीं। यह भी सुनिश्चित कीजिए कि वे ठेका मजदूर हों जिन्हें कम से कम दो महीने से वेतन न मिला हो। दीवारों पर लगे खूबसूरत पोस्टर को हटाने के लिए अगर आपने एक कमजोर सीढ़ी दे दी तो वही काफी है। आपको हल्के नीले रंग की चेक कमीज पहने उस युवा कर्मचारी पर ध्यान देने की जरूरत नहीं जो अपने साथी कर्मचारी के साथ ऐसे ही एक पोस्टर को उतारने से पहले उसके सामने खड़ा होकर सेल्फी लेता है। ये दोनों ठेका मजदूर अवचेतन रूप से जो शक्तिशाली संदेश दे रहे हैं आपको उसे समझने की जरूरत नहीं है।
जब भारत और दूसरे देशों के अनेक शहरों में स्ट्रीट आर्ट को बढ़ावा दिया जा रहा हो, वॉल पेंटिंग प्रोत्साहित की जा रही हो, तब आपको इन सबको हटा देना चाहिए ताकि स्वच्छता की धीमी आंच पर पक कर ‘देवभक्ति’ का लजीज शोरबा तैयार हो सके। दूसरे शहरों और वहां स्थित संस्थानों के नाम एक सॉसपैन में डालकर उछालिए, उन्हें बर्तन से बाहर गिरने दीजिए और फिर सावधानी से उन सबको कचरे के डिब्बे में फेंक दीजिए। आपको इन सब बातों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं कि कुछ ही दूरी पर स्थित वसंत कुंज और लोधी कॉलोनी के निवासियों ने अपने घरों के बाहर की दीवार पर ऐसी ही कला का प्रदर्शन किया है। उज्जैन, इंदौर, पटना, जयपुर, कोच्चि, अहमदाबाद, लखनऊ जैसे दूसरे शहरों की भी फिक्र मत कीजिए जहां रंग न सिर्फ साफ-सफाई बढ़ा रहे हैं बल्कि इन शहरों में सुरक्षित और खूबसूरत सार्वजनिक स्थल भी मुहैया करवा रहे हैं। सबवे, अंडर पास, मेट्रो रेल और बस अड्डे तरह-तरह की कला प्रदर्शित करने की जगह दे रहे हैं। देवभक्ति के शोरबे को थोड़ा और पकने दीजिये।
किसी बात की चिंता किए बिना श्लोकों और मंत्रोच्चार के बीच कचरे के डिब्बे का ढक्कन बंद कर दीजिए। इसके बाद यह सुनिश्चित कीजिए कि अब कोई नया कचरा ना पैदा हो। तब भी नहीं, जब एक छात्र अचानक गायब हो जाए और आज तक उसका पता ना चले। इसके लिए अपने जेहन से भावनाओं और संवेदनशीलता को निकाल बाहर कीजिए। कुछ अध्यादेशों में संशोधन करके उन्हें बारीक पीस लीजिए और सुनिश्चित कीजिए कि आप किसी संस्थागत कार्य पद्धति का पालन न करें ताकि बहस और चर्चा के लिए कम होती जगह का माहौल बरकरार रहे। आलीशान इमारतों के सामने वास्तुशिल्प के नजरिए से खूबसूरत सीढ़ियां सार्वजनिक बहस और चर्चा के लिए आदर्श स्थान हैं। वर्ष 2016 इसका गवाह है। वसंत ऋतु में खूबसूरत बोगनविलिया के फूल पूरे कैंपस में छा जाते हैं। इनका इस्तेमाल अधिकारों तक पहुंचने से रोकने में कीजिए। अब इसमें एक जरूरी चीज मिलाइए- बेहतरीन स्लाइस किया गया जेएनयू एक्ट, जिसके आधार पर यह संस्थान अस्तित्व में आया। इसके टुकड़े कीजिए और मोटा पीसे गए यूजीसी नियमों के साथ अच्छी तरह मिला दीजिए। तीखी गंध के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कुछ दिशानिर्देश छिड़क दीजिए। इससे आपको एक ऐसे टाइम टेबल का कुचक्र मिलेगा जिसमें सभी प्रोग्राम और स्कूल के लिए कम से कम 55 मिनट का क्लास अनिवार्य किया गया हो, पढ़ाई के लिए समय कम हो और सिविल सर्विस के नियम लागू किए गए हों। इसके साथ कर्फ्यू का समय और ड्रेस कोड भी जोड़िए।
सजावट के लिए मल्टीपल चॉइस क्वेश्चन पर आधारित प्रवेश परीक्षा शुरू कीजिए, जिसका आयोजन नेशनल टेस्टिंग एजेंसी करे। इस विषय पर अकादमिक समुदाय की तरफ से आने वाले किसी भी सुझाव पर ध्यान मत दीजिए। इससे एजेंसी के साथ बनाई गई व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। इसके बजाय यह देखिए कि अनेक स्कूलों और सेंटरों से आने वाले प्रश्न पत्रों से निपटने में एजेंसी की कैसे मदद की जाए। प्रश्न पत्रों की संख्या कम करने के लिए कुछ नए शासनादेश लाइए, उन्हें साफ कीजिए और मोड़ कर निचोड़िए ताकि उसका सार निकल सके। इस सार से हर स्कूल के लिए एक कॉमन प्रश्न पत्र बनाइए। एजेंसी की मदद करना निहायत जरूरी है, भले ही इस बात की परवाह न करनी पड़े कि यूनिवर्सिटी में इतने सेंटर और स्कूल क्यों बनाए गए हैं और इनके लिए अलग-अलग प्रश्न पत्रों की जरूरत क्यों है।
इन सबके ऊपर आंदोलनकारी छात्रों की तुलना में दोगुनी संख्या में पुलिस तैनात कीजिए, उन पर डंडे बरसाइए और अगर वे प्रक्रिया संबंधी अनियमितताओं पर सवाल उठाएं तो उनके खिलाफ उपद्रव तथा दंगे करने का केस दर्ज कीजिए। विकलांग छात्रों और छात्राओं के साथ मारपीट का विशेष ध्यान रखें। संसद में अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से मिलने के लिए मार्च निकालने का लोकतांत्रिक अधिकार उन्हें न दें। आम लोगों के दिमाग में यह बात बैठाइए कि ये छात्र-छात्राएं पढ़ाई करने के बजाए असहज सवाल पूछ कर करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग कर रहे हैं। इस बात की परवाह न करें कि ये छात्र अपनी पढ़ाई को प्रभावित किए बिना आंदोलन कर रहे हैं। क्लास करने के बाद ही वे आंदोलन में शरीक होते हैं। उच्च शिक्षा तक पहुंच और फीस बढ़ाने से किस तरह आधे छात्र बाहर हो जाएंगे, ऐसे प्रासंगिक सवालों से आम लोगों का ध्यान भटकाइए। इस तरह के प्रस्ताव सेमिस्टर के मध्य में बिना किसी चर्चा के लाइए और उन्हें आईएचए के तानाशाही नियमों के तहत लागू कीजिए।
धीमी आंच पर इस शोरबे को करीब चार हफ्ते तक पकने दीजिये। ध्यान रखिए कि प्रेशर कुकर का सेफ्टी वाल्व ठीक से लगा रहे, वरना भाप से कुकर आपके चेहरे पर ही फट जाएगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय छात्रों और उनके मेंटर के साथ बातचीत करेगा और आप ‘इस काम के लिए मुफीद नहीं’ पाए जाएंगे।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में प्रोफेसर और चेयरपर्सन हैं)