इसके विपरीत, मौजूदा राजनीति के एक बड़े वर्ग में मुख्य लक्ष्य के तौर पर समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से हटकर हिंदू राष्ट्र के गठन के प्रति झुकाव अब भी बना हुआ है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना को कमजोर करने के प्रयासों में बाधक हैं, क्योंकि यह बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है और जब तक सर्वोच्च न्यायालय की और बड़ी पीठें ये फैसले बदल नहीं देतीं, तब तक संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप संशोधित नहीं हो सकता इसलिए समाजवादी संवैधानिक जरूरतों की बाधा के बगैर धर्म आधारित राष्ट्र बनाने का ज्यादा बड़ा एजेंडा बिना न्यायपालिका पर नियंत्रण के पूरा नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर सर्वोच्च अदालत में अभी चल रही बहस का इस संदर्भ में भी खास महत्व है जिसमें कार्यपालिका उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर नियंत्रण रखने का प्रयास कर रही है।
जब धार्मिक चोले में सबसे जघन्य अपराध किए जाते हैं, तब भी संवैधानिक भावना की स्पष्टता के बावजूद अदालती फैसलों में दंड के सख्त प्रावधानों का अक्सर अभाव रहा है। कई सारे निराशाजनक फैसले संदेह पैदा करते हैं कि न्यायपालिका नरसंहार और दंगे, सामाजिक बहिष्कार, अल्पसंख्यकों का बहिष्कार और उनका तंग बस्तियों में इकट्ठे और बाकी समुदायों से अलग-थलग रहना रोक पाई है। उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च अदालत का शायद ही कोई ऐसा फैसला होगा जिसमें सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले लोगों तथा पार्टियों को कड़ी सजा सुनाई गई हो। आम तौर पर ये फैसले धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत होते हैं और इनमें धर्मनिरपेक्षता के ऊंचे आदर्श की बात होती है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर धार्मिक कट्टरपंथियों को दंड दिलाने का इनमें अभाव रहता है। सर्वोच्च अदालत की अगंभीरता के कारण सांप्रदायिक हिंसा के षडयंत्रकर्ताओं को दंडित करने में शायद ही सफलता मिल पाई है- यहां तक कि बड़े पैमाने पर 1984 के सिख विरोधी दंगे, मुंबई में मुस्लिम विरोधी दंगों (1992-93) तथा गुजरात दंगों (2002) में मारे गए लोगों को भी इंसाफ नहीं मिल पाया। सर्वोच्च अदालत छोटे-छोटे मसलों पर संज्ञान लेने में नहीं हिचकती लेकिन अल्पसंख्यकों के बार-बार होते नरसंहार के मामलों पर उसकी चुप्पी संदेह पैदा करती है कि न्यायपालिका के सर्वोच्च संस्थानों में धर्मनिरपेक्षता को दरकिनार किया जा रहा है।
धर्मांतरण
हालांकि अनुच्छेद 25 के तहत स्वैच्छिक धर्मांतरण को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है लेकिन धर्मांतरण के कई सारे मामलों में हमले देखे गए हैं। स्टैनिसलॉस बनाम मध्य प्रदेश सरकार (1977 (1) एससीसी 677) मामले में ही मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम-1968 को चुनौती दी गई। इस अधिनियम में प्रावधान है कि धर्मांतरण से पहले व्यक्ति को प्रशासन को सूचित करना पड़ता है ताकि प्रशासन इस धर्म परिवर्तन की स्वैच्छिक प्रकृति की जांच कर मंजूरी दे सके ताकि तभी इसकी प्रक्रिया आगे बढ़े। सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया कि यह विधान ऊपरी तौर पर कानून की दृष्टि से संवैधानिक है जबकि इसके लागू होने से जुड़ी परिस्थितियों का जिक्र नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस तरह के तौर-तरीके की खामी छिप जाती है और इसमें सामाजिक संदर्भ पर विचार नहीं हो पाता है। बहिष्कृत व्यक्ति की स्थिति अपने समाज में अछूत जैसी हो जाती है और यदि ऐसा होता है तो ऐसी गतिविधियों को निष्प्रभावी घोषित करने वाले अधिनियम में सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 17 के सख्त प्रावधानों को लागू किया जाता है जिसके जरिये अस्पृश्यता मिटाई जा सकी है और किसी रूप में इसे अपनाने की मनाही है। अस्पृश्यता की वजह से किसी तरह की अक्षमता करार दिया जाना कानूनन दंडात्मक अपराध है।
तीन सकारात्मक फैसले
सन 1976 से लेकर 1986 के दौरान सर्वोच्च अदालत ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को दृढ़ता से लागू करने के लिए तीन महत्वपूर्ण निर्णय दिए। जेड. बी. बुखारी बनाम बी. आर. मेहरा (1976 (2) एससीसी 17) मामले में अदालत ने पहली बार फैसला दिया कि किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र को तटस्थ और निष्पक्ष रहना चाहिए-'इस दुनिया में धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल उन सभी चीजों का अंतर बताने के लिए किया जाता है जो दैवी शक्ति का हवाला दिए बगैर संपन्न होती हैं। धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों से पूरी तरह स्वतंत्र है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र तटस्थ या निष्पक्ष होता है।’ फिर सन 1980 में बाबू राव पटेल बनाम सरकार (1980 (2) एससीसी 402) और उसके बाद सन 1986 में बिजोय एमानुएल बनाम केरल सरकार (1986(3) एससीसी 615) के मामलों में एक विवाद खड़ा हुआ था जब ईसाइयों के एक समुदाय जेहो बाज विटनेस से जुड़े तीन स्कूली बच्चों को केरल के एक स्कूल से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने राष्ट्रगान गाने से मना कर दिया था। एस.आर. बोम्मई बनाम भारतीय संघ (1994 (3) एससीसी 1) मामले में सर्वोच्च अदालत की नौ जजों वाली संवैधानिक पीठ ने फैसला दिया, 'राष्ट्र किसी भी धर्म से खुद को अलग रखता है। विशुद्ध रूप से धार्मिक मामले व्यक्तिगत माने जाते हैं और राष्ट्र सिर्फ इनके धर्मनिरपेक्ष हिस्सों पर ही विचार कर सकता है। राष्ट्र न तो किसी खास मजहब का समर्थक है, न ही किसी खास मजहब का विरोधी। यह खुद को धर्म से अलग-थलग मानता है।’
दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने और बाबरी मस्जिद के विध्वंस की इजाजत देने का दोषी पाए जाने पर एक दिन के कैद की सांकेतिक सजा दी गई और दो हजार रुपये का जुर्माना दो महीने के अंदर भरने को कहा गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट में ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले में याचिकाकर्ता ने ऋषिकेश में अंडों की बिक्री पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के फैसले को चुनौती दी जिस पर कोर्ट ने अधिसूचना का समर्थन किया कि लोगों का कल्याण सर्वोपरि है। सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि हरिद्वार और ऋषिकेश 'तीर्थ स्थल’ हैं और इन शहरों में समाज का एक बड़ा तबका शाकाहारी है।
आवास का अधिकार और धार्मिक भेदभाव
जोरोस्ट्रियन सहकारी आवास सोसायटी बनाम जिला निबंधक (2005(5) सेक्शन 632) का मामला देखें। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी आवासीय सोसायटी की उन्नति के लिए सदस्यों में एक जैसी रुचियां और एक जैसे रिवाज का बंधन होना चाहिए जिनके जरिये उनके अंदर पड़ोस की भावना को मजबूती मिले और सोसायटी के भविष्य के लिए निष्ठा का भाव जगे। भारत में यह बंधन अक्सर एक समुदाय या एक जाति में मिलता है। सुप्रीम कोर्ट ने सोसायटी का यह तर्क मान लिया कि सदस्यों को यह अधिकार है कि वे उसी से जुड़ें जिसे वह इसके योग्य मानते हैं और उनके पास यह भी अधिकार है कि जिनके साथ वे नहीं जुडऩा चाहते, उन्हें प्रवेश देने से मना कर दें।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के प्रमुख हैं।)