Advertisement

युद्ध या प्रेम: हम किस चीज से प्यार करें?

मास्को की मुलाकात कोई औपचारिक इंटरव्यू नहीं थी। न ही यह लुक-छिपकर की गई कोई भेंट थी। बढ़िया बात यह थी कि हमारा मिलना किसी सतर्क, कूटनीतिक, औपचारिक एडवर्ड स्नोडेन से नहीं हुआ। अफसोस की बात यह है कि कमरा नंबर 1001 में हुए मजाकों, हास्य और मसखरेपन को उसी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता।
युद्ध या प्रेम: हम किस चीज से प्यार करें?

उस मुलाकात को उस तरह विस्तार से नहीं लिखा जा सकता, जितना लिखा जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि उसके बारे में लिखा ही नहीं जा सकता। आखिर यह मुलाकात तो हुई ही थी। चूंकि यह दुनिया एक गोजर है जो लाखों वास्तविक संवादों के आधार पर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, और यह मुलाकात भी यकीनन उन्हीं में से एक थी।

उस मुलाकात में क्‍या कहा गया उससे भी कहीं ज्यादा मायने उस कमरे का माहौल रखता था। वहां एडवर्ड स्नोडेन थे जो 9/11 के बाद, उनके अपने शब्दों में 'बुश का गुणगान कर रहे थे’ और इराक युद्ध के लिए दस्तखत कर रहे थे। और, दूसरी तरफ हम लोग थे जो 9/11 के बाद ठीक इसका उलट कर रहे थे। इस लिहाज से देखा जाए तो यह मुलाकात बड़ी देर से हो रही थी। इराक को अब नष्ट किया जा चुका है। और, जिसे बड़े उत्साहजनक अंदाज में 'मध्यपूर्व’ कहकर संबोधित किया जाता है, उसका नक्‍शा भी बड़ी बेदर्दी के साथ (एक बार फिर से) बदला जा रहा है। लेकिन फिर भी, हम सब वहां थे—रूस के उस अजीबोगरीब होटल में एक-दूसरे के साथ बतियाते हुए।

वह होटल वाकई अजीबोगरीब था। मास्को रिट्ज-कार्लटन की वैभवशाली लॉबी नशे में चूर नव-धनाढ्यों और खुशामदी आदमियों की बांहों में लिपटकर ऊंचाइयां चढ़तीं आधी देहाती-आधी सुपरमॉडल सरीखी खूबसूरत युवा महिलाओं से लबरेज थी, जो धन व ख्याति की राह पर हिरणियों की तरह कुलांचें भरते हुए उन्हें वहां का रास्ता दिखाने वाले लंपटों को उसकी कीमत अदा कर रही थीं। होटल के गलियारों में बड़ी संजीदा किस्म की लड़ाइयां, जोर का गाना-बजाना और बर्तनों व खानों से लदी ट्रॉलियां कमरों के भीतर-बाहर ले जाते वर्दीधारी बैरे - सबकुछ था। होटल के कमरा नंबर 1001 में हम क्रेमलिन के इतना नजदीक थे कि अगर आप खिड़की से हाथ बाहर निकालें तो उसे लगभग छू सकते थे। बाहर बर्फ गिर रही थी। हम कड़ाके की रूसी सर्दी के दरम्‍ियान थे - जिसे कभी दूसरे विश्व युद्ध में उसके योगदान के लिए उतनी अहमियत नहीं मिली।

एडवर्ड स्नोडेन मेरे अनुमान से कहीं ज्यादा छोटे थे। छोटे, नर्म और निपुण -किसी घरेलू बिल्ली की तरह। वह डेन (एल्सबर्ग) से बड़े उल्लास के साथ मिले और हम दोनों (मेरे व जॉन क्यूसेक) के साथ बड़ी गर्मजोशी से।

उन्होंने हंसते हुए मुझसे कहा, 'मुझे पता था कि आप यहां हैं।’

'क्यों?’

'मुझे अतिवादी बनाने के लिए।’

मैं हंसी। फिर हम सब स्टूल, कुर्सी, जॉन के बिस्तर आदि पर अलग-अलग जम गए।

डेन व एडवर्ड एक-दूसरे से मिलकर बेहद खुश थे और दोनों को एक-दूसरे से इतनी सारी बातें कहनी थीं कि हमें उनकी बातों में दखल देना बड़ा अशालीन जैसा लग रहा था। बीच-बीच में वे दोनों एक किस्म की कोड भाषा में बात करने लगते थे: 'मैं उछलकर गली में कूदा, सीधा टीएसएससीआई की तरफ।’ 'नहीं, क्योंकि यह आखिर डीएस तो था नहीं, यह एनएसए है। सीआईए में इसे कोमो कहा जाता है।’ 'यह भूमिका तो एक जैसी है, लेकिन क्या उसे मदद मिलती है?’ 'प्रिसेक या प्राइवेक?’ 'उन लोगों ने शुरुआत टेलेंट की होल जैसी चीज से की। हर कोई फिर टीएस, एसआई, टीके और गामा- जी क्लीयरेंस के बारे में जानने की कोशिश करने लगा। किसी को पता नहीं था कि आखिर वो है क्या।’

कुछ समय बाद मुझे लगा कि उनकी बातों में दखल दिया जा सकता है। अमेरिकी झंडे को गोद में लेकर खींची गई उनकी फोटो के बारे में मेरे सवाल पर स्नोडेन ने आंखें घुमाते हुए बड़ा शांत सा जवाब दिया: 'मुझे नहीं पता। किसी ने मेरे हाथ में झंडा पकड़ा दिया और उन लोगों ने फोटो खींच ली।’ फिर जब मैंने पूछा कि उन्होंने इराक के युद्ध के पक्ष में दस्तखत क्यों किए जबकि दुनियाभर में लाखों लोग उसके खिलाफ मार्च कर रहे थे तो उस पर भी उनका जवाब उतना ही शांत था: 'मैं प्रचार के बहकावे में आ गया था।’

डेन ने थोड़े विस्तार से इस बारे में बताया कि क्यों पेंटागन या एनएसए में शामिल होने वाले अमेरिकी नागरिकों के लिए अमेरिकी वैशिष्ट्य या उसकी युद्धकला के इतिहास के बारे में किसी साहित्य का पढ़ना असामान्य सी बात है (और जब वे एक बार शामिल हो जाते हैं तो इन विषयों में उनकी कोई रुचि जागने की गुंजाइश ही नहीं रहती)। उन्होंने व एडवर्ड ने इसे अपने समय में हकीकत में घटते देखा था और जब उन्होंने व्हिसलब्लोअर बनने का फैसला किया तो वे उससे इतने भयातुर थे कि वे अपनी जिंदगियों और आजादी को दांव पर लगाने को तैयार हो गए। इन दोनों में साफ तौर पर एक साझी बात यह थी कि उनमें नैतिक पवित्रता का - सही व गलत का - एक मजबूत भाव था। नैतिक पवित्रता का यह भाव केवल उस समय काम नहीं कर रहा था जब उन्होंने उस बात के खिलाफ बोलने का फैसला किया जो उनके लिहाज से नैतिक रूप से अस्वीकार्य थी बल्कि उन कारणों में भी काम कर रहा था जिसके लिए उन्होंने अपनी-अपनी नौकरियों में शामिल होने का फैसला किया था - डेन ने अपने देश को साम्यवाद से बचाने के लिए और एडवर्ड ने उसे इस्लामी आतंकवाद से। फिर जब उनका मोहभंग हुआ तो उन्होंने जो किया वह इतना चमत्कारिक और नाटकीय था कि वे अपने नैतिक साहस के उस अकेले कारनामे के कारण ही पहचाने जाने लगे।

मैंने एडवर्ड स्नोडेन से पूछा कि वह अमेरिका की बाकी देशों को नष्ट करने की काबिलियत और (व्यापक जन निगरानी) के बावजूद युद्ध जीतने में उसकी नाकाबिलियत के बारे में क्या सोचते हैं। मुझे लग रहा था कि मेरा सवाल थोड़ा उजड्ड किस्म का था—कुछ इसी तरह का, 'अमेरिका ने आखिरी बार कोई लड़ाई कब जीती थी?’ हमने इस बारे में भी बात की कि क्या इराक पर आर्थिक पाबंदियों और उसके बाद किए हमले को नरसंहार की संज्ञा दी जा सकती है। हम इस बात पर भी चर्चा करते रहे कि कैसे सीआईए को इस बात का अहसास था और वह इस हकीकत की तैयारी भी कर रहा था कि दुनिया न केवल देशों के बीच बल्कि देशों के भीतर भी युद्ध छिड़ने की दिशा में बढ़ रही है, जिसमें आबादियों को नियंत्रण में रखने के लिए व्यापक जन निगरानी की जरूरत रहेगी। और कैसे सेनाओं को उन देशों को प्रशासित करने के लिए पुलिस बल में तब्दील कर दिया जा रहा था जहां वे हमला करके उनपर कब्जा कर लेती थीं और दूसरी तरफ भारत व पाकिस्तान और अमेरिका के फर्गुसन तक में पुलिस बलों को आंतरिक बगावत से पार पाने के लिए सेना की तरह बरताव करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था।

एडवर्ड ने इस बारे में भी विस्तार से कहा कि कैसे वह यकायक एक निगरानी राज्य में पहुंच जा रहे हैं। यहां मैं उनको उद्धृत कर रही हूं, क्योंकि उन्होंने इस बात को पहले भी अक्सर कहा है: 'अगर हम कुछ नहीं करेंगे तो हम मानो यकायक एक निगरानी राज्य में पहुंच जाएंगे जहां दोनों ही होंगे - एक सुपर-राज्य के पास जानने की असीमित क्षमता (उन लोगों के बारे में जिन्हें उसे निशाना बनाना है) और उन पर वार करने की भी असीमित क्षमता - और यह एक बेहद घातक मिश्रण है। यह अंधकारमय भविष्य है। यह हकीकत कि वे हमारे बारे में सबकुछ जानते हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते —क्योंकि वे गुप्त हैं, वे सुविधासंपन्न हैं और वे एक अलग वर्ग हैं, कुलीन वर्ग, राजनीतिक वर्ग, साधन संपन्न वर्ग - हमें नहीं पता कि वे कहां रहते हैं, हमें नहीं पता कि वे क्या करते हैं और हमें नहीं पता कि उनके दोस्त कौन हैं। उनके पास हमारे बारे में सब कुछ जानने की क्षमता है। यही भविष्य की दिशा है, लेकिन मुझे लगता है कि इसमें भी बदलती संभावनाएं हैं।’

मैंने एडवर्ड से पूछा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि एनएसए उनके किए रहस्योद्घाटनों पर जानबूझकर अनभिज्ञता जता रहा हो लेकिन असलियत में भीतर ही भीतर इस बात से खुश हो कि उसकी पहचान सबकुछ देखने वाली, सब कुछ जानने वाली एजेंसी के तौर पर बन रही है – क्योंकि इससे लोग हमेशा भयभीत रहेंगे, असंतुलित और हमेशा सशंकित और लिहाजा उन्हें नियंत्रित करना आसान रहेगा।

डेन ने इस बारे में बताया कि कैसे अमेरिका में भी एक पुलिस राज्य की हकीकत महज 9/11 सरीखी एक अन्य घटना से दूरी पर है: 'हम इस समय पुलिस राज्य में नहीं हैं, अभी तक नहीं। लेकिन मैं उस बारे में बात कर रहा हूं, जो हो सकता है। मुझे अहसास है कि मुझे इस तरह नहीं रखना चाहिए। मेरे सरीखे श्वेेत, मध्यवर्गीय शिक्षित लोग अभी पुलिस राज्य में नहीं रह रहे हैं। अश्वेेत गरीब तबके के लोग पुलिस राज्य में रह रहे हैं। उत्पीड़न अर्ध-श्वेत, मध्य-पूर्व निवासियों और उनके साथ हमदर्दी रखने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ शुरू होगा और वहां से आगे बढ़ेगा। अभी हम पुलिस राज्य में नहीं हैं। लेकिन 9/11 सरीखी एक और घटना होती है तो मेरा मानना है हजारों लोगों की धरपकड़ शुरू हो जाएगी। मध्य-पूर्व के लोगों और मुसलमानों को हिरासत में लिया जाएगा या फिर उन्हें निर्वासित कर दिया जाएगा। 9/11 की घटना के बाद हजारों लोगों को बिना किसी अभियोग के पकड़ लिया गया था। लेकिन मैं भविष्य की बात कर रहा हूं। मैं दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों के स्तर की बात कर रहा हूं। मैं लाखों लोगों के कैंपों में रखे जाने या निर्वासित किए जाने की बात कर रहा हूं। मैं समझता हूं कि निगरानी इस बारे में काफी प्रासंगिक है। उन्हें पता होगा कि किसके साथ क्या करना है- डाटा पहले ही एकत्र किया जा रहा है’ (जब वह यह कह रहे थे तो मैं यह सोच रही थी, हालांकि मैंने पूछा नहीं कि अगर स्नोडेन श्वेत न होते तो स्थितियां कितनी अलग होतीं?)।

हमने युद्ध और लालच के बारे में, आतंकवाद के बारे में बात की और यह कि उसकी एक सही-सही परिभाषा क्‍या होगी। हमने देशों, झंडों और देशभक्ति के अर्थ के बारे में बात की। हमने जनमत और सार्वजनिक नैतिकता की अवधारणा के बारे में चर्चा की और यह कि वह कितनी ढुलमुल होती है और उसमें कितनी आसानी से हेरफेर किया जा सकता है। 

यह सारा संवाद सवाल-जवाब के रूप में नहीं था। यह एक बेमेल जमावड़ा था - मैं और तीन मुश्किल में फंसे अमेरिकी। इसका खयाल रचने वाले और इसे मुमकिन बनाने वाले जॉन क्यूसेक खुद संगीतकारों, लेखकों, अभिनेताओं, एथलीटों की एक शानदार परंपरा से आते हैं जिन्होंने उस गंदगी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था भले ही उसे किसी भी मुलम्मे में लपेटकर पेश किया जा रहा हो।

अब एडवर्ड स्नोडेन का क्या होगा? क्या वह कभी अमेरिका लौट पाएंगे? इस बात की संभावना तो अच्छी नहीं लगती। अमेरिकी सरकार - गहरी राज्य व्यवस्था और दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल अपनी धारणा के अनुसार सुरक्षा प्रतिष्ठान को उनके द्वारा पहुंचाई गई गंभीर चोट के लिए दंड देना चाहते हैं (आखिरकार वे चेलसिया मैनिंग और अन्य व्हिसलब्लोअर्स को वहां पहुंचा ही चुके हैं, जहां वे चाहते थे।) अगर वह स्नोडेन को मारने या जेल भेजने में कामयाब नहीं हो पाती है तो वह अपने बूते वो हर कदम उठाएगी ताकि वह स्नोडेन द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को काबू में रख सके और वह यही कर रही है। इसका एक तरीका तो यह भी है कि इस मसले पर चल रही बहस को काबू में रख सके, हजम कर सके या वह दिशा दे सके जो उसे माफिक बैठती हो। कुछ हद तक वह इस बात में कामयाब भी रही है। सरकारी पश्चिमी मीडिया में सार्वजनिक सुरक्षा बनाम जन निगरानी की जो बहस चल रही है, उसमें प्रेम की वस्तु अमेरिका है। अमेरिका और उसके कारनामे। वे नैतिक हैं या अनैतिक? वे सही हैं या गलत? खुलासे करने वाले अमेरिकी नागरिक देशभक्त हैं या देश के गद्दार? नैतिकता के इस संकीर्ण मकड़जाल में अन्य देश, अन्य सभ्यताएं और अन्य संवाद—भले ही वे अमेरिकी युद्ध के पीडि़त ही क्याें न हो, वे मुख्य सुनवाई में केवल गवाह के तौर पर ही नजर आते हैं। वे या तो अभियोजन के गुस्से को बढ़ाते हैं या फिर बचाव पक्ष की दलीलों को मजबूत करते हैं। जब यह बहस इस दायरे में ही की जाती रहती है तो वह इस धारणा को ही मजबूती देती रहती है कि एक उदार, नैतिक सुपरपावर हो सकता है। क्या हम इसे हकीकत में देख नहीं रहे हैं? उसके दिल की तकलीफें? उसकी ग्लानि? उसकी आत्म-सुधारात्मक प्रणालियां? उसका निगहबान मीडिया? उसके एक्टीविस्ट जो अपनी ही सरकार द्वारा जासूसी का शिकार हो रहे (मासूम) अमेरिकी नागरिकों के पक्ष में कभी खड़े नहीं होंगे? बड़ी ही तगड़ी और बौद्धिक किस्म की नजर आने वाली बहसों में अक्सर सार्वजनिक और सुरक्षा और आतंकवाद जैसे जुमले उछाले जाएंगे लेकिन वे हमेशा की तरह बड़े अस्पष्ट रूप से परिभाषित होंगे और अक्सर उन्हें उसी तरह इस्तेमाल किया जाएगा जिस तरह अमेरिकी राज्य चाहता है।

यह बेहद हैरान देने वाली बात थी कि बराक ओबामा ने एक 'हत्या सूची’ को मंजूरी दी थी जिसमें बीस नाम शामिल थे।

लेकिन क्या वह वाकई हैरानी की बात थी?

फिर भला वे लाखों लोग किस सूची में शामिल थे जो अमेरिका द्वारा छेड़े गए सारे युद्धों में मारे गए हैं? वह क्या 'हत्या सूची’ नहीं थी?

इन सब बहसों के बीच अपने निर्वासन में भी स्नोडेन को रणनीतिक निपुणता दिखानी होती है। वह एक ऐसी मुश्किल स्थिति में हैं जहां उन्हें अपनी माफी/सुनवाई की शर्तों के लिए अमेरिका की उन्हीं संस्थाओं से बातचीत करनी पड़ रही है जो ये मानती हैं कि स्नोडेन ने उन्हें धोखा दिया। वहीं उन्हें रूस में अपने रुकने की शर्तों पर उस महान मानवीय व्लादिमीर पुतिन से बात करनी होती है। इस तरह दोनों महाशक्तियों के बीच सच्चाई बयान करने वाला यह व्यक्ति इस स्थिति में है कि उसे इस मसले पर बड़ी सावधानी बरतनी होती है कि वह इस लोकप्रियता का इस्तेमाल कैसे करता है और सार्वजनिक रूप से खुद को कैसे जाहिर करता है।

फिर भी, अगर वह सब छोड़ भी दिया जाए जो नहीं कहा जा सकता तो भी व्हिसलब्लोइंग के इर्द-गिर्द की बहस काफी रोमांचक है - उसमें व्यावहारिक राजनीति हैै- व्यस्त, महत्वपूर्ण और कानूनी पेचीदगियों से भरपूर। उसमें जासूस हैं, जासूसों को पकड़ने वाले हैं, दुस्साहस हैं, गोपनीयता है और गोपनीयता को बेनकाब करने वाले भी हैं। इसकी एक अपनी बड़ी परिपक्व और दिलचस्प दुनिया है। लेकिन यह संवाद तभी थोड़ा असहज हो पाता है जब यह दुनिया एक ज्यादा वृहद और ज्यादा अतिवादी राजनीतिक सोच के विकल्प के रूप में उभरने का खतरा पैदा करती है, जैसा कि कवि व युद्ध विरोधी पादरी डेनियल बेरिगन (डेनियल एल्सबर्ग के समकालीन) अपने इस कथन से कहना चाहते थे कि 'मूल बिंदु यह है कि हर राष्ट्र-राज्य का झुकाव अंतत: साम्राज्यवादी हो जाता है।’

मुझे यह देखकर खुशी हुई थी कि जब स्नोडेन ने ट्विटर की दुनिया में प्रवेश किया (और आधे पल में उनके पांच लाख फॉलोअर हो गए) तो उन्होंने यह कहा, 'पहले मैं सरकार के लिए काम करता था। अब मैं लोगों के लिए काम करता हूं।’ इस वाक्य में यह धारणा अंतर्निहित है कि सरकार लोगों के लिए काम नहीं करती है। यह एक क्रांतिकारी और असहज संवाद की शुरुआत है। 'सरकार’ से उनका आशय यकीनन अमेरिकी सरकार से है जो उनकी नियोक्ता रह चुकी है। लेकिन 'लोगों’ से उनका क्या आशय है? अमेरिकी जनता? अमेरिकी जनता का कौन सा हिस्सा? यह उन्हें आगे बढ़ते हुए तय करना होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनी गई सरकार और 'लोगों’ के बीच की रेखा कभी उतनी स्पष्ट नहीं होती है। आम तौर पर कुलीन वर्ग बड़ी सहजता के साथ सरकार के साथ घुलमिलकर जुड़ जाता है। अंतरराष्ट्रीय अवधारणा से देखा जाए तो अगर 'अमेरिकी जनता’ जैसी कोई चीज है भी तो वह यकीनन कोई बेहत सुविधासंपन्न जनता होगी। मैं तो जिस 'जनता’ को जानती हूं वह पागल बनाने की हद तक एक भूल-भुलैया सरीखी है।

अजीब बात है कि जब मैं मास्को रिट्ज की मुलाकात को याद करती हूं तो सबसे पहले जो याद जेहन में उभरकर आती है, वह डेनियल एल्सबर्ग की है। कई घंटों की उस बातचीत के बाद जॉन के बिस्तर में पड़े हुए, ईसा मसीह की तरह दोनों हाथ फैलाए डेन इस बात पर रो रहे थे कि अमेरिका किसमें तब्दील हो गया है - एक ऐसे देश में जिसके 'सबसे बेहतरीन लोगों’ को या तो जेल में जाना होता है या फिर निर्वासन में। मैं उनके आंसू देखकर बेहद भावुक हो गई और काफी विचलित भी क्याेंकि ये आंसू उस व्यक्ति के थे जो उस व्यवस्था को बेहद नजदीक से देख चुका था। वह व्यक्ति जो उन लोगों के बेहद नजदीक था जो चीजों को नियंत्रित करते थे और बेहद निष्ठुरता के साथ इस दुनिया से लोगों की जिंदगियों को खत्म करने की योजना बनाते थे। वह व्यक्ति जिसने उन लोगों को बेनकाब करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। डेन को सारी दलीलें पता थीं, पक्ष की भी और विरोध की भी। वह अमेरिकी इतिहास और विदेश नीति का जिक्र करते समय अक्सर साम्राज्यवाद शब्द का इस्तेमाल करते हैं। पेंटागन के दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के चालीस साल बाद भी वह जानते हैं कि भले ही तब के लोग चले गए हों लेकिन व्यवस्था उसी तरह चल रही है।

डेनियल एल्सबर्ग के आंसुओं ने मुझे प्रेम के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया, विछोह के बारे में, सपनों के बारे में - और, सबसे ज्यादा नाकामी के बारे में।

यह कैसा प्रेम है जो हमें अपने देशों से है? वह कौन सा देश है जो कभी जाकर हमारे सपनों पर खरा उतरेगा? वो कौन से सपने हैं जो अक्‍सर टूट जाया करते हैं? क्या महान देशों की महानता सीधे तौर पर उनकी निष्ठुरता या लोगों का संहार करने की उनकी क्षमता से नहीं जुड़ी है? क्या किसी देश की 'कामयाबी’ की ऊंचाई आम तौर पर उसकी नैतिक नाकामी की गहराई को भी इंगित नहीं करती है?

फिर हम लोगों की नाकामी का क्या होगा? लेखकों, कलाकारों, अतिवादियों, राष्ट्र-विरोधियों, खुले विचारों वालों, असंतुष्टों - हमारी कल्पनाओं की नाकामियों का क्या हुआ? झंडों व देशों की धारणा की जगह कम विध्वंसकारी प्रेम के खयाल को सामने रखने की हमारी नाकामी क्या हुई? ऐसा लगता है कि इनसान युद्ध के बिना नहीं रह सकते लेकिन वे प्रेम के बिना भी तो नहीं रह सकते। इसलिए सवाल यह है कि हमें किससे प्यार करना चाहिए?

यह मैं उस समय लिख रही हूं जब शरणार्थी यूरोप में घुसे जा रहे हैं। यह 'मध्य पूर्व’ में अमेरिका और यूरोप की दशकों की विदेश नीति की परिणति है। मुझे हैरानी होती है—आखिर कौन शरणार्थी है? क्या एडवर्ड स्नोडेन एक शरणार्थी है? यकीनन है, क्योंकि जो कुछ उन्होंने किया है उसकी बदौलत वह उस जगह पर अब नहीं लौट सकते जिसे वह अपना देश मानते हैं (हालांकि वह उस जगह पर बने रह सकते हैं जहां वे सबसे ज्यादा सहज हैं- इंटरनेट पर)। अफगानिस्तान, इराक व सीरिया से युद्ध के कारण यूरोप भाग रहे शरणार्थी दरअसल जीवनशैली की लड़ाई के शरणार्थी हैं। लेकिन जीवनशैली की उसी लड़ाई के कारण भारत जैसे देश में जो हजारों लोग मार डाले जा रहे हैं या जेल में ठूंस दिए जा रहे हैं, लाखों जो अपनी जमीन व खेतों से वंचित कर दिए जा रहे हैं और उन्हें बनाने वाली हर चीज - उनकी भाषा, उनका इतिहास, उनका भूभाग - से निर्वासित कर दिए जा रहे हैं, वे शरणार्थी नहीं हैं। जब तक उनकी दुर्गति मनमाने तरीके से बनाई गई उनके 'अपने’ देश के सीमा के भीतर है, वे शरणार्थी नहीं माने जाएंगे। और यकीनन, संख्या के आधार पर देखा जाए तो पूरी दुनिया में आज ऐसे लोग ज्यादा संख्या में हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि देशों व सीमाओं के मकडज़ाल में कैद कल्पनाओं और झंडों में लिपटे दिमागों के लिए वे उस दायरे में नहीं आते।

जीवनशैली की इस लड़ाई के सबसे सुपरिचित शरणार्थी विकिलीक्स के संस्थापक और संपादक जूलियन असांजे हैं जो इस समय लंदन में इक्वाडोर के दूतावास के एक कमरे में भगोड़े मेहमान के रूप में अपना चौथा साल बिता रहे हैं। मुख्य द्वार के ठीक बाहर एक छोटी सी लॉबी में ब्रिटिश पुलिस तैनात है। छत पर बंदूकधारी हैं जिन्हें यह आदेश हैं कि वह दरवाजे के बाहर अपने पांव का पंजा भी निकालें तो उन्हें बाहर घसीट लिया जाए, पकड़ लिया जाए या उन्हें गोली मार दी जाए। इक्वाडोर का दूतावास लंदन में दुनिया के सबसे लोकप्रिय डिपार्टमेंटल स्टोर हैरोड्स के ठीक सामने सड़क के उस पार है। जिस दिन हम जूलियन से मिले उस दिन सैकड़ों, या शायद हजारों की तादाद में लोग क्रिसमस की खरीदारी के लिए हैरोड्स के भीतर व बाहर जा रहे थे। लंदन की उसी सड़क के बीचोबीच विलासिता और ऐशो-आराम की गंध उस पार से आ रही कैद और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को लेकर आजाद दुनिया के भय की गंध से आ मिलती है (वे हाथ मिलाकर कभी दोस्ती न करने की रजामंदी जाहिर करती हैं।)।

जिस दिन (दरअसल रात) हम जूलियन से मिले, हमें सुरक्षा बलों द्वारा फोन, कैमरा या अन्य कोई भी रिकॉर्डिंग उपकरण कमरे में ले जाने की इजाजत नहीं दी गई। लिहाजा वह संवाद भी पूरी तरह ऑफ रिकॉर्ड रहा। सामने मेज के उस पार बैठे पीले पड़ चुके थके हुए जूलियन असांजे को अपने शरीर पर नौ सौ दिनों में पांच मिनट की भी धूप डालने की मोहलत नहीं मिली है। लेकिन वह उस तरह झुकने को कतई तैयार नहीं हैं, जैसा कि उनके दुश्मन चाहते हैं। उनको देखते हुए इस खयाल से मैं मुस्कराए बिना नहीं रह सकी कि कोई उन्हें आस्ट्रेलियाई नायक या आस्ट्रेलियाई गद्दार के रूप में नहीं देखता। उनके दुश्मनों के लिए तो असांजे ने किसी एक देश से कहीं आगे छल किया है। उन्होंने सत्तारूढ़ ताकतों की विचारधारा को ही धोखा दिया है। इस वजह से वे एडवर्ड स्नोडेन से कहीं ज्यादा असांजे से नफरत करते हैं। यह बात बहुत कुछ कह देती है।

 

(अरुंधति रॉय के OUTLOOK पत्रिका में प्रकाशित लेख का अनुवाद। मूल लेख यहां पढ़ा जा सकता है। http://www.outlookindia.com/article/what-shall-we-love/295799

 

 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad