हां, कंपनी साम्राज्य की तरह राष्ट्रपति बनने का इरादा अवश्य दो दशक पहले बनाया था। हाल के राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रतिपक्ष की डेमोक्रेटिक पार्टी ने ही नहीं उनकी रिपब्लिकन पार्टी के एक राजनीतिक वर्ग ने ट्रंप की उम्मीदवारी रोकने के हर संभव प्रयास किए थे। लेकिन यह मानना होगा कि आर्थिक समस्याओं से त्रस्त एवं बड़े बदलाव की इच्छुक जनता के प्रतिनिधियों ने ट्रंप को राष्ट्रपति बनवा दिया। इसलिए ट्रंप साहब को ह्वाइट हाउस और कैपिटल हिल्स में उठते-बैठते धीरे-धीरे नई चुनौतियों का अहसास होगा। वैसे उन्हें किसी सलाहकार ने यह क्यों नहीं बताया कि 'अब्राहम लिंकन से बराक ओबामा तक’ हर राष्ट्रपति ने अमेरिका को 'महान’ और 'फर्स्ट’ बनाने की इच्छा के साथ हर संभव अच्छी-बुरी कोशिश की थी। ट्रंप ने शपथ के बाद पहले भाषण में अमेरिका की खराब आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी, ड्रग्स से पीड़ित समाज और अंतरराष्ट्रीय कमजोरियों को इतने जोर-शोर से उठाया, जितना शायद अमेरिका की 'पूंजीवादी-साम्राज्यवादी’ नीतियों के आरोप लगाने वाले अन्य देशों के आलोचक भी नहीं उठाते। चीन तो 1990 के बाद पिछले 25 वर्षों में आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरा है, उससे पहले और बाद में भी अमेरिका की गिनती 'फिसड्डी’ राष्ट्र के रूप में नहीं होती है। उन्हें धीरे-धीरे यह बात समझ में आएगी कि ‘ग्रेट’ और 'फर्स्ट’ रहने के लिए प्रतियोगी ही सही एक से दस-बीस तक को साथ में रखकर दौड़ाना पड़ता है।
रोजगार देना, गरीबी दूर करना, आतंकवाद से लड़ना हर देश के राजनेता का संकल्प होना ही चाहिए। चीन, रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन ही नहीं भारत, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, यूनान, ब्राजील, अर्जेंटीना, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका जैसे देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी ऐसे वायदे अपनी जनता के समक्ष रखते हैं। इसलिए ट्रंप के संकल्प को उचित ठहराते हुए उनसे क्रांतिकारी आर्थिक कदमों की प्रतीक्षा करनी होगी। उनके चाहने वाले अमेरिकियों को यह अवश्य समझ में आ गया होगा कि बड़बोले ट्रंप के महिलाओं संबंधी अथवा परमाणु बम के इस्मेमाल के आपत्तिजनक वक्तव्यों से अमेरिका की प्रतिष्ठा ही गिरती है। अब राष्ट्रपति बन जाने के बाद उन्हें अपनी जुबान पर नियंत्रण के साथ 'तुगलकी’ अंदाज में आदेश जारी नहीं करना है।
डोनाल्ड ट्रंप 'मेक इन अमेरिका’, 'वर्क फार अमेरिकी फर्स्ट’, 'कट टू हेल्प अदर्स’ की नीतियों को अपनाना चाहते हैं। वहीं पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के जनहितकारी 'हेल्थ प्लान’ सहित कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नीतियों को ही बदलना चाहते हैं। लेकिन सर्व शक्तिमान कहे जाने वाले हर अमेरिकी राष्ट्रपति को संसद, सुप्रीम कोर्ट और अभिव्यक्ति-अहसहमति के लिए स्वतंत्र जनता के 'ब्रेक’ का सामना भी करना होता है। ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के समय कुछ डेमोक्रेट सांसदों की अनुपस्थिति के प्रतीकात्मक विरोध से अधिक महत्व ढाई लाख लोगों का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का भी है। समारोह में करीब दस लाख लोग उपस्थित थे, लेकिन पूर्व राष्ट्रपतियों के शपथ गहण की तरह हर्ष उल्लास और तालियों की गड़गड़ाहट नहीं थी। हां, जनता को उनसे बड़ी आशाएं हैं। अत्यधिक उम्मीदें जगाना और अति आत्मविश्वास-अहंकार दुधारी तलवार की तरह है। पर्याप्त सफलता नहीं मिलने पर कड़ा विरोध-विद्रोह की तरह फटने लगता है। इसलिए आर्थिक उत्थान के लिए भी ट्रंप को पड़ोसी लातीनी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और एशिया के साथ अच्छे आर्थिक व्यापारिक-कूटनीतिक संबंध रखने होंगे। लीक से हटकर रूस के साथ संबंधों को अधिक अच्छे बनाने की पहल ठीक है। अमेरिका-रूस (पूर्व सोवियत संघ) के शीत युद्ध काल में दुनिया को बहुत नुकसान ही हुआ था। लेकिन रूस से मित्रता का नकारात्मक लाभ चीन या अन्य देशों के साथ कटुता और दुश्मनी के लिए करना बेहद खतरनाक होगा। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से लड़ने में अग्रणी रहने की इच्छा भी ठीक है, लेकिन उन्हें भारत की इस परिभाषा को याद रखना होगा कि 'आतंक का कोई धर्म नहीं होता’। उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट शब्दों में 'इस्लामिक आतंकवाद’ से निपटने का दावा किया, लेकिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान-इराक, सीरिया तो इस्लामिक देश ही हैं और वे भी आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। इसलिए आतंकवाद को संपूर्ण विश्व से खत्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक-सामरिक कदमों की जरूरत होगी। इस काम में चीन का सहयोग भी जरूरी होगा। सीरिया की संघर्ष और युद्ध की परिस्थिति बदलने के लिए रूस का सहयोग लेना उचित है। इसी तरह अफगानिस्तान जैसे क्षेत्रों से अमेरिकी सेना हटाकर खर्च बचाना ठीक है, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान को कठपुतली बनाकर चीन का अजगरी पंजा वहां न जम जाए। जरूरत होगी कि भारत सहित कुछ देशों का सहयोग लेकर दक्षिण एशिया में आतंकवाद की समाप्ति एवं आर्थिक विकास के लिए प्रयास हों। भारत को चीन के खिलाफ खड़े करने की चालाकी भी देर-सबेर नुकसानदेह साबित होगी। भारत को अपने सामरिक हितों की रक्षा अवश्य करनी है, लेकिन आर्थिक विकास के लिए चीन सहित पड़ोसी देशों से संबंध अच्छे रखने हैं। अमेरिका के साथ फिलहाल एक सौ अरब डॉलर के आर्थिक-व्यापारिक संबंधों को पांच सौ अरब डॉलर तक बढ़ाने का लक्ष्य है। वहीं 'मेक इन इंडिया’ को सफल बनाने के लिए अमेरिकी, चीन, यूरोप ही नहीं खाड़ी के इस्लामिक देशों से पूंजी निवेश एवं निर्यात संबंध की जरूरत भी होगी। ट्रंप ने परमाणु हथियारों की धमकी पद संभालने से पहले दे दी, लेकिन अमेरिका उस अंतरराष्ट्रीय समझौते और संकल्प का हिस्सेदार है, जिसके तहत परमाणु हथियारों में निरंतर कटौती एवं अंततोगत्वा परमाणु बमों से मुक्त विश्व बनाना तय हुआ है। आतंकवाद और परमाणु हथियारों के उन्मूलन के लिए हमारे 'महान भारत’ की भूमिका पहले भी रही है और भविष्य में भी रहेगी। ट्रंप साहब को भारतीय मूल के सलाहकार याद दिला सकते हैं कि भारत तो सैकड़ों वर्ष पहले भी 'महान’ रहा है। राम कृष्ण ही नहीं सम्राट अशोक, विक्रमादित्य, अकबर, जहांगीर की महान परंपराओं के बाद महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की महानता दुनिया ने स्वीकारी है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मैदान में अमेरिका सबको साथ रखकर ही महान राष्ट्र कहला सकेगा। कैनेडी से बराक ओबामा तक असाधारण आतिथ्य सत्कार करने वाला भारत डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में शांतिपूर्ण और पारस्परिक आर्थिक रिश्तों के लिए नए राष्ट्रपति का स्वागत करेगा।