सुबह जब सीमा पार की तो मैं बांग्लादेश की सीमा के पहले गांव बेनापोल में थी। बेनापोल से मुझे पूरे बांग्लादेश के हिंदूबहुल इलाके खुलना पहुंचना था। दोनों तरफ हरियाली और भरपूर पानी देखते हुए, बिलकुल घटिया बस में मैं दोपहर में अंतत: खुलना पहुंच ही गई। अगले दिन जन्माष्टमी का आयोजन होना था और खुलना का गल्लामढ़ी, सोना डांगा इलाके का इस्कॉन मंदिर इसकी तैयारी में व्यस्त है।
यहां खूब सारे युवा हैं जो अगले दिन जन्माष्टमी पर निकलने वाले जुलूस की तैयारी कर रहे हैं। जगह-जगह से जुलूस निकल कर धर्म सभा मंदिर पर इकट्ठे होंगे। ‘जुलूस निकालना ठीक है। मतलब कोई खतरा नहीं है?’ यह प्रश्न सभी के मन में है। बस मैंने पूछ लिया है। ‘यह तो कल ही पता चलेगा। आज कुछ नहीं कहा जा सकता। कल किसी का मन करेगा तो पत्थर भी मार सकता है और मांस के टुकड़े भी।’
खुलना विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले संदेश सरकार अंग्रेजी साहित्य में एमए कर रहे हैं। उन्हें साहित्य की जानकारी से ज्यादा कुरान के बारे में पता है, क्योंकि कक्षा में उनके अध्यापक अंग्रेजी साहित्य के बजाय कुरान की बात करना और पढ़ाना ज्याद पसंद करते हैं। परिशेष अपने कोर्स की जानकारी खुद इकट्ठी कर किताबें खोजते और पढ़ते हैं। वह मजाकिया लहजे में कहते हैं, ‘मुझे तो स्कूल के दिनों से इस तरह की आदत है। अब हमें कुछ भी कहा जाए बुरा नहीं लगता।’ एक छोटा सा किस्सा सुनाने हुए परिशेष कहते हैं, ‘मैं जब अपने मोहल्ले के किराने वाले से कोई भी समान खरीदने जाता हूं तो वह अपने नौकर को ‘काफिर का ब्रांड देना’ की आवाज लगाता है। काफिर का ब्रांड यानी मैं हिमालय का फेसवॉश मांगता हूं, पाकिस्तान में बने रेजर के बदले भारत में बने रेजर लेना पसंद करता हूं। ऐसा नहीं है कि मैं भेदभाव के कारण ऐसा करता हूं। लेकिन कोई सामान गुणवत्ता की कसौटी पर भी तो खरा उतरे। बांग्लादेश में तो कुछ नहीं बनता। छोटी से छोटी चीजें भी या तो पाकिस्तान से आती हैं या भारत से।’ लेकिन जब खुलना के बाजार में घूम कर एयरटेल के बोर्ड दिखे तो उत्सुकतावश पूछ ही लिया, ‘एयरटेल तो भारतीय है, फिर?’ सदानंद विश्वास हंस कर जवाब देते हैं, ‘शाहरूख खान उसका विज्ञापन करता है। सभी को लगता है एयरटेल शाहरूख खान का है।’
खुलना में ज्यादातर सुनार हिंदू हैं। बांग्लादेश के दूसरे बड़े व्यावसायिक शहर चटगांव में भी कई हिंदू परिवार व्यापारी हैं। लेकिन वही लोग व्यापार बिना किसी परेशानी के कर पाते हैं, जो मस्जिदों के लिए चंदा देते हैं और हिंदुओं के पक्ष में चल रहे आंदोलनों, बैठकों में हिस्सा नहीं लेते। खुलना के सुनार प्रबीर कुमार विश्वास कहते की सन 1890 से दुकान है। वह अपनी परेशानियां बताने में हिचकते हैं क्योंकि ‘बाद में जो परेशानियां आएंगी वह उसे ठीक करना उनके बूते का नहीं होगा।’ खुलना हिंदूबहुल होने के बाद भी मुसीबतों में कम नहीं है। खुलना में विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली रीतिका चौधरी बताती हैं, ‘बीबीए फर्स्ट इयर की वार्षिक परीक्षा के दौरान जब मौखिक होना था तब टीचर ने मेरा नाम भी पूछने से पहले मेरी धार्मिक राय जानना चाही। जब मैंने गोलमोल जवाब दिया तब उन्होंने मेरा नाम और पता पूछा। मेरा नाम और मेरे रहने की जगह पूछने के बाद संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि मैं हिंदू परिवार से ताल्लुक रखती हूं। इसके बाद कोई और सवाल नहीं पूछा गया।’
स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में खराब ग्रेड मिलना, सरकारी नौकरी में ऊंचे पदों पर न रखा जाना, नौकरी के बाद भी प्रमोशन न मिलना अल्पसंख्यकों के लिए आम बात है। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी कुछ युवा हैं जो उच्च शिक्षा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सपना देखते हैं कि बांग्लादेश में ही एक दिन सब ठीक हो जाएगा। सदानंद विश्वास, विप्लव मंडल, श्यामल मंडल जैसे लड़के हैं जो खुलना में ही रहना चाहते हैं। आखिर वह उनका देश है और वे यहां पैदा हुए हैं। आखिर अपना देश छोड़ कर वे क्यों बाहर जाएं।
भारत की तरह बांग्लादेश में भी हिंदुओं के हक के लिए लड़ने वाले कई संगठन हैं। नीरापद दास कहते हैं, ‘एकता की कमी यहां भी है। सभी एकजुट हो ही नहीं पाते। हम छोटी जगह में रहते हैं, पर ढाका में भी हालात कुछ बेहतर नहीं है।’ नीरापद दास बांग्लादेश में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए हैं। वह सार्जेंट थे। नीरापद कहते हैं, ‘मैंने अपनी नौकरी में हर दिन जिल्लत बर्दाश्त की है। मेरे सहकर्मी मुझसे इतना खराब व्यवहार करते थे कि अब मैं उन दिनों को याद भी नहीं करना चाहता।’
अगले दिन जन्माष्टमी का जुलूस देख कर मुझे ढाका के लिए रवाना हो जाना है। रात को खुलना में कई जगहों पर भजन हो रहे हैं। मंदिर के दरवाजे अंदर से बंद हैं। अचानक कुछ हो तो संभलने का मौका मिले। जन्माष्टमी का जुलूस छोटी-मोटी झड़प के साथ आखिर संपन्न हो ही गया है। मैं ढाका जाने के लिए बस स्टैंड पर पहुंच गई हूं।