तीन दिनों से घर का माहौल खुशनुमा था। पत्नी का चेहरा तो मानों जैसे पूर्णिमा के चांद सा दमक रहा था। आवाज में बीते कुछ दिनों से ऐसी मिश्री घुली थी कि पूछो मत। आख़िरकार उसकी मां जो आ रही थी। शादी के बाद पहली दफा, उसके घर रहने के लिए। अतः उसने अपने प्यार की दबिश बनाकर मुझे पहले ही अपने काबू में कर लिया था। वह काबू न भी करती तो भी मैं उनका स्वागत करता, क्योंकि मैंने कभी ‘मां’ शब्द में फर्क महसूस ही नहीं किया। फिर वह किसी कि भी क्यों न हो। अंततः वह दिन आ ही गया।
सासू मां घर में लैंड कर चुकि थीं। गंभीर अस्थमा से ग्रसित थीं। सासूमां ने जब कुर्सी पर बैठ अपनी दौड़ती सांसों की मैराथन रोकी, तब मैंने उनसे पूछा- ‘कैसी हैं सासूमां?’
मेरा सवाल सुनते ही उन्होंने अपनी बुजुर्ग आंखों से प्रेम निचोड़ा। अपने टूटते अल्फाज़ों को कंपकंपाते हाथों से संबल दिया और बोली- ‘मुझे सासू मां कहकर क्यों बुलाते हो? मैं तो तुम्हारी मां हूं।’
सुनते ही मैंने तुरंत उनका हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, ‘हां मां! वो तो आप हैं ही। लेकिन आपको सासूमां कहना मुझे ज्यादा रोचक लगता है।’
सुनते ही एक अनमोल स्मित उनके चेहरे पर लहराई। मानों जैसे वे इन्हीं शब्दों से अपने स्वागत की प्रतीक्षा कर रहीं हों। उनकी वह मुस्कान थमती इससे पहले ही मैंने अपने उन्हीं छूटे शब्दों की माला पकड़ी और कुछ जोड़ते हुए कहा, ‘...और जिन संबंधों में रोचकता नहीं होती वे मुझे निर्जीव से लगते हैं।’
वे एक बार फिर वही अन्दाज ले मुस्कुराईं। मेरे हाथों के बीच से हौले से अपना हाथ निकाला और उसे पुनः मेरे हाथों पर रखकर बोली, ’बेटा! संबंधों की रोचकता नाम में नहीं बल्कि उन्हें निभाने में है।’
वे अपने जीवन में एक बेहतरीन शिक्षिका थीं। कम शब्दों में अपनी बात कह देना उन्हें बखूबी आता था। शायद इसलिए ही इतना कहकर वह एक टक मुझे देखती रहीं। मानों जैसे वे मेरे पूर्ण आश्वस्त होने तक मेरे साथ रहना चाहती थीं। जब वे उस मुकाम पर पहुंचीं तो एकाएक उन्होंने अपने हाथों से मेरे हाथों पर थप्पी दी। साथ ही अपनी वृद्ध पलकों को धीमें से झपका पूर्ण आश्वस्ति की पावती भी दे डाली। हलांकि अब उनके हाथों से हाथ निकालकर, फिर ऊपर हाथ रखने की बारी मेरी थी। लेकिन न जानें कैसे उनके प्रभावी शब्दों ने मुझे रोक लिया था। मैं अपना हाथ उनके हाथों से निकालने का साहस न कर सका। मुझे रुका देख वे स्वयं आगे बढ़ी। उन्होंने एक बार फिर मेरे हाथों को थपथपाया और अपनी निर्णायक टिप्पणी देते हुए बोली, ‘...खैर! तुम्हें जो कहना हो कहो। लेकिन हमेशा संबंधों में रोचकता बनाए रखना।’
कहते ही उन्होंने अपने दोनों हाथ मुझसे विलग किये। फिर आराम से कुर्सी पर जा टिकीं। मैं वहीं बैठा रहा। उसी जगह। पत्थर सा। एकदम शांत। उनके स्पर्श को याद करता हुआ मन ही मन कह बैठा, ‘संबंधों में रोचकता हमेशा रखूंगा मां, आप बस ऐसा ही स्नेह मुझसे करती रहें।’ सोचते ही मैंने एक लंबी, गहरी सांस ली और कहा, ‘हां तो सासू मां...सॉरी-सॉरी..मां।’
सुनते ही वे ज़ोरों से हंस पड़ीं। उनका यूं हंसना, मुस्कुराना मुझे बेहद अच्छा लगा था। इससे पहले मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं देखा था। वे शादी के बाद पहली बार हमारे साथ रहने आयीं थीं। शादी और उससे पहले की दो-चार मुलाकातों में वे बेहद गंभीरसी, शांतमना व अपनी बेटी के भविष्य को लेकर चिंतित नज़र आती थीं। तब वे हंसती भी थी तो बेहद संकोच के साथ। मुझे नहीं याद कि वे कभी मेरी ओर देख कर हंसी भी हों। वे जब भी हंसतीं तो हंसते ही अपनी बेटी कि ओर अपनी निगाह फेर लेती थीं।
...लेकिन इस बार ज़ोरों से हंसी लेकिन कुछ बोलीं नहीं।
समय का एक अंश रुककर, मैंने ही पुनः उस अधूरे संवाद को पकड़ा और पूछा, ‘क्या आप चाय पीना चाहेंगी..?’
‘पी लूंगी, अब मैं अपने जमाई को पहली बार मना भी तो नहीं कर सकती।’
‘ये क्या बात हुई, कि मैं आपको मां कहूं और आप मुझे जमाई कहें? बेटा हूं न मैं आपका फिर आप मुझे जमाई कैसे कह सकती हैं..?’
मेरा सवाल सुनते ही वह कुछ असहज हुईं। फिर बोली, ‘सॉरी! सॉरी! मुझे भी तुम्हारी तरह बुरी आदत है।’
कहते ही हम दोनों एक साथ हंस पड़े। लेकिन जल्द ही मैंने फिर उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा, ‘ बेटा कहने से जमाई कहना ज्यादा रोचक लगता है न..? क्यों मां..?’
‘हा...हा..हा..!’ वह कक्ष, हम दोनों के ठहाकों से एक बार फिर गूंज उठा।
‘ये क्या चल रहा है, दोनों के बीच ?’ तभी मेरी पत्नी एक सवाल लेकर कक्ष में दाखिल हुई।
‘आपको इससे क्या लेना-देना है मैडम? आप जाइये, और दो कप गरमागरम चाय बनाकर लाइये। ..और हां यदि आप भी इस महफिल में शरीक होना चाहती हैं, तो अपना भी एक कप ट्रे में रखकर लाइयेगा।’ मैंने कहा।
‘अरे! यह क्या बात हुई। पहले बताओ तो कि तुम दोनों क्यों हंस रहे थे ?’
‘ये हमारा निजी मामला है।’
‘निजी मामला...?’ अचंभित स्वरों में वह बोली।
‘हां क्यों नहीं हो सकता क्या...?’
‘अरे..! ये तो अजीब बात हुई। ऐसी क्या बात है जो तुम लोग मुझे नहीं बताना चाहते?’
‘कहा न हमारा निजी मामला है...’
‘निजी मामला, पति-पत्नी के बीच होता है। सास और दामाद के बीच नहीं।’
‘हां तो हम ‘सास’ और ‘दामाद’ हैं कहां हम तो ‘मां-बेटे’ हैं...’ कहते ही हम दोनों एक बार फिर हंस पड़े।
मामला गंभीर हो चुका था। इन ठहाकों ने तो जैसे मेरी पत्नी को वजह जानने के लिए बेसब्र कर दिया था। अतः उसकी बेसब्री देख सासूमां ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘निजी मामला तो किसी के बीच भी हो सकता है।’
‘मां...तुम बीच में मत बोलो।’ सुनते ही मेरी पत्नी तपाक से बोली।
‘क्यों न बोले बीच में..? आख़िर ये हमारा निजि मामला है।’ कहकर हम एक बार फिर ज़ोर का ठहाका लगाते इससे पूर्व ही पत्नी सख्त हो बोली, ‘...नहीं कहा न, मुझे छोड़कर इस घर में किसी का कोई निजी मामला न होगा।‘
‘..लेकिन...!’
‘लेकिन, वेकिन कुछ नहीं। …मैंने कह दिया, दैट्स फाईनल।’
(सुनते ही मैं और मेरी सासू मां एक दूसरे की शक्ल देखते रहे।)
‘अच्छा! अब बताओ..? किस बात पर हंस रहे थे आप लोग ?’
‘तुम फिर शुरु हो गई।’
‘अब बताओ भी...।’
‘अरे..! पहले तुम चाय तो बनाकर लाओ।’
‘..नहीं! पहले बताओ, किस बात पर हंस रहे थे।’
‘अरे..! कुछ नहीं, बस यूं ही। मां कोई चुटकुला सुना रही थी।’
मेरा जवाब सुनते से ही उसने पहले तो मुंह बिचकाया। फिर बोली,‘मुझे उल्लू मत बनाओ! नहीं बताना हो तो मत बताओ।’
फिर जाती हुई एकाएक रुककर बोली, ‘मेरी मां कभी चुटकुले नहीं सुनाती, समझे।’ कहा और कहकर चाय बनाने चल दी।
उसके जाते ही सासू मां ने एक नज़र मेरी ओर देखा। अपनी आंखों पर लगा चश्मा निकालकर अपने पल्लू से साफ किया और पहनते हुए बोली, ‘मुझे थोड़ा पानी मिलेगा..?‘
शायद, इसे ही अनुभव कहते हैं। वे जानती थीं, इस वक्त मेरी जरूरत उनकी बेटी को ज्यादा थी। हो न हो, मेरे दिल में भी यही चल रहा था। खैर, जो मैंने चाहा, वह मुझे मिला।
तकरीबन पंद्रह मिनट बीते होंगे। जब हम साथ चाय लेकर लौटे। तब, सासू मां देखते ही मुस्कुराई और बोलीं, ’बन गई चाय..?’
उनका ताना मैं तो समझ गया लेकिन मेरी पत्नी अब भी उस हास्य का सुख लेने से वंचित थी। शायद इसलिए ही वह हम दोनों के एक बार फिर हंसते चेहरे देख चाय के कप मेज़ पर रख वहां से रवाना हो गई।
उसके जाने पर भी हम दोनों कुछ पल हंसते रहे। फिर सासू मां पूछ बैठी, ’मेरा पानी..?’
‘अरे! यह क्या, मैं आपके लिए पानी लाना तो भूल ही गया।’ सुनते ही मैंने कहा।
‘इसलिए ही तो कह रही हूं, जाकर पानी ले आओ।’ वे कहती रहीं और मुस्कुराती रहीं।
भीतर दृश्य बदला-बदला सा था। मेरी पत्नी मेरे होते हुए भी चाय के प्याले को अपना हमसफ़र समझ बैठी थी। शायद इसलिए ही मेरी एंट्री उस वक्त एक ‘विलेन’ अर्थात ‘खलनायक’ के तौर पर थी।
‘अ...! क्या हुआ..? तुम वहां से यहां क्यों आ गई ?’
‘यूं ही सोचा किसी के निजी मामलों में अपन क्यों दखल दें।’
‘निजी मामला..! कौन सा निजी मामला..?’ मैंने अनजान बनते पूछा।
‘बनों मत। मैं जानती हूं, अक्सर निजी मामले इसी तरह छिपाए जाते हैं।’ वह बोली।
‘लेकिन मैंने तो कुछ नहीं छिपाया।’
सुनते ही वह बोली, ‘ओ..! शट अप..!’
उसका ‘शट अप’ सुनते ही मैंने एक लंबी सांस ली और उसके साथ वाली कुर्सी पर बैठ गया। फिर कुछ देर शांत बैठ धीमे से बोला, ‘अब तुमसे क्या छिपाना। तुम तो जानती हो कि तुम्हारी अंग्रेजी के आगे मैं हमेशा ही नत्मस्तक हो जाता हूं।‘
आख़िरकार मेरे शब्दों की चिकोटी उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लेकर लौटी। उसकी यही मुस्कान मेरा हौसला बढ़ाने के लिए काफी थी।
‘बोलो क्या जानना चाहती हो। वही बात जिस पर हम दोनों हंस रहे थे?’
‘अब...रहने दो...! मेरे पास टाईम नहीं है।’ कहकर वह वहां से चली गई।
मैं उसी जगह खड़ा, बीते पलों को याद कर मुस्कुराता रहा, हंसता रहा।
आज उनके देहांत के चार साल बाद जब मैंने वही निजि बात अपनी पत्नी को बतायी तो वह भी मन ही मन मुस्कुराई, एक टुकड़ा हंसी भी लेकिन जल्द ही उसकी आंखे भर आयीं। मैं उससे कुछ कहता इससे पहले ही अपने आंसू पोंछते हुए वह भीतर चली गई। मैं एक बार फिर अकेला खड़ा सासू मां की उन्हीं खट्टी-मीठी यादों में खो गया, एक पल तो लगा जैसे वे अब भी मुझे भीतर से पुकार रहीं हों ‘अरे! मेरे एक गिलास पानी का क्या हुआ..?’