राजकोषीय असंतुलन दूर करने का सुनहरा मौका लुभावना है लेकिन यह ग्रामीण क्षेत्र को गंभीर संकट में डालकर हो रहा है
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार का पहला पूर्ण बजट तीन महत्वपूर्ण तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। पहला तथ्य यह कि जुलाई 2014 के बाद से सौभाज्यवश अंतरराष्ट्रीय पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में 50 प्रतिशत तक गिरावट आ चुकी है। यह स्थिति निश्चित रूप से वित्त मंत्री को वित्तीय घाटा कम करने का लक्ष्य पूरा करने में मदद करेगी जबकि इस वजह से महंगाई दर में भी आंशिक कमी आई है जिस पर नियंत्रण पाने में विîा मंत्री और भारतीय रिजर्व बैंक विफल रहे थे। लेकिन बजट के सदंर्भ में इसका सबसे बड़ा असर पेट्रोलियम सद्ब्रिसडी और अप्रत्यक्ष कर संग्रह में आई गिरावट पर भी पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप पेट्रोलियम उत्पादों पर मूल्यवद्र्धित कर में वृद्धि हुई है।
यदि उनकी खुशी के लिए यह नाकाफी रहा हो तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हाल की वृद्धि ने इसे पूरा कर दिया। अर्थव्यवस्था में सुधार के कुछ संकेतों को देखते हुए विîा मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल की तुलना में चालू वर्ष की वृद्धि दर अधिक रखी। इनमें से कुछ आंकड़े विनिर्माण क्षेत्र में उच्च वृद्धि दर के बावजूद औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक और बिक्री के अन्य आंकड़ों पर सवालिया निशान लगाते हैं। इनमें सबसे खराब स्थिति कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन की रही। यह दूसरा तथ्य वह है जिसका जिक्र वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था के समक्ष आने वाली पहली बड़ी चुनौती के रूप में अपने भाषण में करना चाहिए। जीडीपी के संशोधित आंकड़े बताते हैं कि सन 2014-15 के दौरान कृषि, वन्य और मत्स्य क्षेत्र का सकल मूल्यवद्र्धन (जीवीए) वर्ष 2013-14 के दौरान 3.7 प्रतिशत की तुलना में संभवत: 1.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। वर्ष 2013-14 की तुलना में अनाज उत्पादन वर्ष 2014-15 के दौरान 2.9 प्रतिशत की दर से गिरा है। दलहनों और तिलहनों का उत्पादन भी वर्ष 2014-15 के दौरान क्रमश: 3.4 और 9.6 प्रतिशत कम हुआ है जबकि 2013-14 के दौरान इसमें क्रमश: पांच और 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी। कृषि क्षेत्र में बागवानी को छोडक़र पिछले एक दशक के दौरान सबसे ज्यादा गिरावट आई है। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि किसानों की आय दयनीय बनी हुई है। कुछ हद तक इसकी वजह यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों में आई गिरावट के साथ-साथ ज्यादातर कृषि उत्पादों की कीमतों में भी आई कमी है।
इसके कुछ-कुछ संकेत अगस्त 2014 से ही स्पष्ट होने लगे थे जब पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों के साथ-साथ अन्य कृषि उत्पादों की कीमतें भी गिरने लगी। ज्यादातर कृषि उत्पादों का अब भी यही हाल है लेकिन अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुके अनाजों की कीमत में इससे भी तेज गिरावट आई है। थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े बताते हैं कि अगस्त 2014 के बाद खाद्य मूल्यों में 5 प्रतिशत की गिरावट आई है। जनवरी 2014 के बाद से कपास की कीमत 27 प्रतिशत कम हुई है। सरकार ने न्यूनतम खरीद को भी समर्थन नहीं दिया और किसानों को न्यूनतम सुरक्षा से महरूम होना पड़ा।
खाद्य मूल्य में गिरावट जैसे बाहरी कारकों के अलावा कृषि क्षेत्र की कुछ समस्याएं इस साल के कमजोर मॉनसून से भी बढ़ी हैं। यह भी एक तत्व है कि पूर्ववर्ती सरकार की गलत नीतियों के कारण कृषि क्षेत्र की दुर्दशा हुई है। सन 2014 में पोषक तथ्व आधारित सद्ब्रिसडी (एनबीएस) शुरू होने से न सिर्फ उर्वरक मूल्य में वृद्धि हुई बल्कि मिश्रित उर्वरक के इस्तेमाल में असंतुलन भी पैदा हुआ। नतीजतन कृषि में मुनाफा कम हो गया और ग्रामीण अर्थव्यवस्था बदतर हो गई। इस वर्ष के उतराद्र्ध से ग्रामीण मजदूरी की रक्रतार सुस्त पड़ी है और इसलिए उनका नकारात्मक रुख उनकी हताशा का कारण बना है।
ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक खर्च में गिरावट भी ग्रामीण क्षेत्रों में मांग में मंदी की वजहों में एक है जो अन्य कई गुणात्मक प्रभावों के साथ मिलकर श्रम की मांग को कम कर रहा है। एक ओर जहां वर्ष 2010 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के खर्च में कमी (वास्तविक संदर्भ में) आती गई है वहीं हालिया वर्षों में ग्रामीण सडक़ कार्यक्रम जैसी सार्वजनिक योजनाओं के खर्च में भी गिरावट आई है। तीसरा महत्वपूर्ण कारक चौदहवें विîा आयोग की हाल ही में स्वीकार की गई सिफारिशें हैं जिसने केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा 32 फीसदी से बढ़ाकर 42 फीसदी करने का सुझाव दिया है। राज्यों को देखते हुए यह फैसला अपने आप में बहुप्रतीक्षित और स्वागतयोग्य है ञ्चयोंकि हालिया वर्षों में राज्यों ने न सिर्फ ज्यादा बेहतर अवसर पैदा किए हैं बल्कि सार्वजनिक सेवा वितरण के कई सफल अभिनव डिजाइन सामने रखे हैं। लेकिन इस फैसले से खर्च करने की केंद्र सरकार की क्षमता कम हो जाती है। विîा आयोग की सिफारिशों को अगर केंद्रीय सरकार के व्यय में कमी के रूप में आंकें तो यह मोटे तौर पर सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी बैठता है।
विîा मंत्री को इसलिए अपने विकल्पों का आकलन सतर्कता से करना था। राजकोषीय असंतुलन दूर करने का सुनहरा मौका लुभावना है लेकिन यह ग्रामीण क्षेत्र को गंभीर संकट में डालकर हो रहा है जो न सिर्फ कम उत्पादन वृद्धि दर बल्कि अनाजों की गिरती कीमतों के कारण पहले से ही कम कीमत के अहसास से जूझ रहा है। इसका कुछ परिलक्षण प्रमुख नकदी फसलों की किसानों द्वारा औने-पौने भाव पर जल्दबाजी में बिक्री और ग्रामीण वेतन की कम वृद्धि दर में होता है, किसानों की छिटपुट आत्महत्याओं का तो कोई जिक्र ही नहीं है। विîा मंत्री ने जब अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद चुनौतियों का जिक्र किया तब दरअसल उन्होंने इसमें से कुछ पृष्ठभूमि का अपने बजट भाषण में उल्लेख भी किया। यह देखना खुशी की बात थी कि कृषि संकट का जिक्र पहली चुनौती के रूप में किया गया, दूसरे स्थान पर निवेश और तीसरे नंबर पर विनिर्माण वृद्धि दर को बढ़ाने की चुनौती का जिक्र किया गया जो कि जीडीपी के नए अनुमान के अनुसार 18 फीसदी से गिरकर 17 फीसदी रह गई है। हालांकि, बजट पर पहली नजर डालने से यही लगता है कि बाद की दोनों चुनौतियां विîा आयोग की सिफारिशों का नतीजा हैं और राजकोषीय घाटे को लक्ष्य के अंदर रखने का प्रयास कृषि, निवेश और विनिर्माण के असली मुद्दों पर भारी पड़ा है।
कृषि के कुल बजट में पिछले साल की तुलना में 5000 करोड़ रुपये से अधिक की गिरावट आई है। इनमें से कुछ की वजह जहां केंद्र की हिस्सेदारी में कमी आना है वहीं कृषि क्षेत्र में निवेश के लिए कोई योजना सहित कृषि क्षेत्र में किसी भी नए व्यय का प्रावधान नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) के लिए बजट पूर्ववत है सिर्फ बंटवारे का पैटर्न बदला गया है। यही बात त्वरित सिंचाई लाभ योजना (एआईबीएस) और एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम (आईडद्ब्रल्यूएमपी) पर भी लागू होती है। आईडद्ब्रल्यूएमपी, आरकेवीवाई, एनएफएसएम और एआईबीएस पर खर्च में कुल गिरावट 7,563 करोड़ रुपए है। बहुप्रचारित मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के लिए इस बजट में महज 200 करोड़ रुपये का प्रावधान है जो पिछले साल के 138 करोड़ रुपए से कुछ ही अधिक है। जाहिर है, संसद में प्रधानमंत्री द्वारा किया जाने वाला उत्साही बचाव बजट के आंकड़ों की कसौटी पर बेहद हल्का साबित होता है। लेकिन एक कहीं अधिक गंभीर चिंता का विषय है आवंटन की प्रकृति जिसमें अमीर राज्यों की तुलना में गरीब राज्यों को घाटा उठाना पड़ता है। यह देखते हुए कि पिछले दशक में कृषि क्षेत्र ने 3.5 फीसदी की अच्छी दर से विकास किया और इसमें भी मुक्चय भूमिका बिहार, ओडिशा और छîाीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों के कृषि विकास ने निभाई, बजट का असर कृषि के क्षेत्रीय संतुलन पर भी पडऩे की आशंका है।
अनाजों की कीमतों और किसानों की आय में गिरावट को स्वीकार करने के बावजूद, खाद्य सद्ब्रिसडी बिल में केवल 2000 करोड़ रुपये की मामूली वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को कम करने की सरकार की मंशा और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए बोनस देने को लेकर राज्यों पर रोक लगाने के उसके निर्देश को देखते हुए यह मामूली वृद्धि चकित नहीं करती बल्कि कुछ आवश्यक सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में सीधे नकद सद्ब्रिसडी भुगतान पर आर्थिक सर्वे की मुहर लगने के बाद इसी की उक्वमीद भी थी। लेकिन यह सरकार इन जरूरी योजनाओं के बारे में ञ्चया सोचती है, इसका संकेत तो संसद में प्रधानमंत्री द्वारा महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के बारे में दिए गए बयान से ही मिल गया था। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री को शायद यह पता नहीं है कि देश के ग्रामीण गरीबों का एक बड़ा हिस्सा आज भी गड्ढïे खोद कर अपना पेट भरता है मगर इस बजट ने तो इन गरीबों का अपमान ही किया है।
पिछले चार वर्षों की तरह न केवल इस बार भी मनरेगा का बजट नहीं बढ़ा है बल्कि उस मद में लेकिन 5 हजार करोड़ रुपये के अतिरिञ्चत फंड के वादे को पूरा करने के लिए अमीरों के समय पर कर जमा करने का इंतजार करना पड़ेगा। इसी तरह समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के लिए धन मुहैया कराने भी केंद्र ने पल्ला झाड़ते हुए राज्यों पर जिक्वमेेदारी डाल दी है। इस बजट में आईसीडीएस के लिए केंद्र का आवंटन 16316 करोड़ रुपये से घटकर आधे से भी कम 8 हजार करोड़ रुपये रह गया है। पंद्रह सौ करोड़ रुपये की जिस बढ़ोतरी का दावा किया गया है वह भी धनी लोगों के कर अदा करने पर निर्भर है। प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन का भार भी विîा मंत्री ने गेंद राज्यों के पाले में डालते हुए बजट 11938 करोड़ रुपये से घटाकर 6000 करोड़ रुपये कर दिया है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां केंद्र सरकार ने सहयोगी संघवाद के नाम पर न सिर्फ अपनी जिक्वमेदारी से मुंह मोड़ा बल्कि सरकारी खर्च ही घटा दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 6287 करोड़ रुपये के पिछड़ा क्षेत्र अनुदाय कोष में कटौती है। यह फंड न सिर्फ देश के सबसे गरीब राज्यों को सबसे गरीब जिलों में जाता है बल्कि इन राज्यों में बुनियादी ढांचे के निर्माण में इसकी अहम भूमिका रही है।
कुल मिलाकर सहयोगी संघवाद का वादा केंद्र के बजट में हुई कटौती की राज्य सरकारों द्वारा भरपाई की जिक्वमेददारी साथ लेकर आया है। केंद्र के खर्च में हुई कटौती की भरपाई अब राज्य सरकारों को करनी पड़ेगी। लेकिन राज्यों की चरमराई विîाीय स्थिति को देखते हुए यह उक्वमीद करना सहयोगी संघवाद के मानकों के हिसाब से भी ज्यादा ही है। सार्वजनिक निवेश और विनिर्माण को बढ़ावा देने के मामले में भी यही स्थिति है। आर्थिक सर्वेक्षण में नकारात्मक संरक्षणवाद पर जताई चिंता और छोटे और मझोले उद्योगों की बदहाली को देखते हुए अधोसंरचना पर खर्च बढ़ाने और नकारात्मक संरक्षण को खत्म करने के उपायों की उक्वमीद की जा रही थी। लेकिन असल में नकारात्मक संरक्षणवाद को खत्म करने के लिए शायद ही कोई कदम उठाया गया है और न ही अधोसंरचना या विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए कोई रोडमैप है। सार्वजनिक-निजी भागीदारी पर निर्भरता इस वादे के साथ बढ़ रही है कि जोखिम ज्यादा से ज्यादा सरकार के हिस्से में आए और पूरा मुनाफा कॉर्पोरेट कमाएं। फिर भी सार्वजनिक व्यय का कोई स्पष्ट रोडमैप दिखाई नहीं पड़ता। एकमात्र एलान 20 हजार करोड़ रुपये से सूक्ष्म इकाई विकास पुनर्विîा एजेंसी (डीआरए) बनाने का है। लेकिन उद्योगों को मिले कुल कर्ज में छोटे और मझौले उद्योगों की आधे से भी कम हिस्सेदारी को देखते हुए यह मुद्दा है। लेकिन इस मसले पर भी समग्रता का अभाव है। छोटे उद्योगों के लिए आवश्यक मदद के उपाय पूरे बजट से नदारद हैं।
सरकार ने अपने कुछ वादों को पूरा करने के लिए ठोस कदम जरूर उठाए हैं। कॉर्पोरेट कर दर को 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी करने से एक बार फिर सरकार ने कारपोरेट हितैषी की छवि पञ्चकी की है। यहां यह अहम है कि प्रस्तावित कॉर्पोरेट कर न केवल यूरोपीय संघ, लैटिन अमेरिकी देशों में सबसे कम है, बल्कि पूर्वी एशियाई देशों से भी कम है। हालांकि यह बात भी सही है कि धन कमाना व्यञ्चितगत मामला है, इस बजट में एक संपîिा कर को भी खत्म किया गया है, जिसका कोई खास प्रभाव नहीं था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अर्थव्यवस्था के अगले साल 8 फीसदी से ज्यादा ग्रोथ हासिल करने के लिए बजट में केवल 15 हजार करोड़ रुपये अतिरिञ्चत कमाई का प्रावधान किया गया है जो हाल के साल में सबसे ज्यादा कम बढ़ोतरी है, जबकि इससे घाटा बढऩे की भी आशंका है। यह सरकार के लिए सुनहरा मौका था कि पेट्रोलियम कीमतों में कमी का फायदा ग्रामीण क्षेत्रों को दिया जाता। लेकिन न केवल सरकार इस दिशा में असफल हुई है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों और किसानों को भी निराश किया है। जबकि कॉरपोरेट को केवल फायदा पहुंचाया है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)