सात जजों वाली संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से अध्यादेश को फिर से लाने को संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य ठहराया। बेंच ने कहा कि संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपालों को अध्यादेश जारी करने की सीमित शक्ति दी गई है। कानून विदों की राय है कि सुुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का दूरगामी असर पड़ेगा।
संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अध्यादेश को विधायिका के सामने न रखना संवैधानिक 'अतिक्रमण' और प्रक्रिया का दुरुपयोग है। फैसले से असहमति जाहिर करने वाले इकलौते जज जस्टिस मदन बी. लोकुर की राय थी कि अध्यादेश को फिर से जारी करना संविधान के साथ धोखा नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी अध्यादेश को फिर से लाने की परिस्थितियां बन सकती हैं।
संविधान पीठ का ये फैसला बिहार सरकार द्वारा 429 प्राइवेट संस्कृत स्कूलों को अपने हाथ में लेने के लिए 1989 से 1992 के बीच एक के बाद एक कई अध्यादेशों को जारी करने के खिलाफ दायर याचिका पर आया है। कोर्ट ने अपने फैसले में इन सभी अध्यादेशों को संविधान के साथ धोखा करार दिया। बहुमत से दिए गए फैसले में कोर्ट ने कहा अध्यादेशों को बार-बार लाना संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में विधायिका के पास ही कानून बनाने की शक्ति होती है। कोर्ट ने कहा कि अध्यादेशों को बार-बार लाना संसद या विधानसभाओं की संप्रभुता के लिए खतरा है।
कोर्ट ने कहा कि गवर्नर किसी अध्यादेश को उसी समय जारी कर सकते हैं जब विधानसभा का सत्र न चल रहा हो। अगर विधानसभा सत्र चल रहा हो तो कोई भी कानून उसी के द्वारा बनाया जाएगा न कि राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करके। इसके अलावा अध्यादेश जारी करने से पहले राज्यपाल को उसकी जरूरत और प्रासंगिकता को लेकर संतुष्ट होना जरूरी है। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि राज्यपाल को दी गई शक्तियों का यह मतलब नहीं है कि राज्यपाल कानून बनाने वाली समानांतर अथॉरिटी बन जाएं।