धार्मिक ट्रस्ट हो या सामाजिक ट्रस्ट, करों से राहत लेने में आगे होते हैं। लेकिन एन.जी.ओ. को तो सरकारों, पब्लिक सेक्टर संस्थानों, निजी कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से भी अनुदान मिलता है। कई स्वयंसेवी संस्थाएं सचमुच सेवा भाव से काम करती हैं और हिसाब-किताब सार्वजनिक करने से नहीं हिचकिचातीं। अधिक संख्या उन संस्थानों की है, जिनके पदाधिकारी ‘सेवा’ के नाम पर स्वयं मेवा-मलाई की व्यवस्था करते हैं। संस्था की तिजोरी से देश-विदेश की यात्रा, पांच सितारा होटलों में मस्ती और सुविधानुसार आलीशान दफ्तर का खर्च निकालते हैं। नौकरीपेशा व्यक्ति तो आय के स्रोत पर ही कर दे देता है। यहां एन.जी.ओ. के पदाधिकारी आय और खर्च के बाद टैक्स देना तो दूर उसका अधिकृत हिसाब भी नहीं दे रहे हैं।
इसलिए अब गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर आदेश दिया है कि लगातार दो वर्ष तक सालाना आय-खर्च का ब्योरा नहीं देने वाली संस्थाओं को दंड के रूप में जुर्माना भरना होगा। विदेश से मिले दान का दस प्रतिशत या न्यूनतम दस लाख रुपये जुर्माने के रूप में देने होंगे। सरकार की यह पहल बेलगाम संस्थाओं को सही रास्ते पर लाएगी। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि एन.जी.ओ. को देशी या विदेशी धन मिलने के संबंध में राजनीतिक प्रश्रय भी नहीं मिलना चाहिए। सत्ता बदलने के साथ कुछ एन.जी.ओ. अनावश्यक लाभ उठाने लगते हैं और कुछ राजनीतिक पूर्वाग्रह का आरोप लगाकर अपना दामन बचाने की कोशिश करते हैं। इसी तरह धर्म के नाम पर ट्रस्ट के रूप में अरबों रुपयों की संपत्ति बचाने वालों से भी किसी तरह कर वसूलने के उपाय खोजे जाने चाहिए। सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की आमदनी सही मायने में जन-कल्याण के कार्यों पर खर्च होनी चाहिए।