यूं कहा गया है कि केंद्र की प्रतियोगिता में 23 शहरों की दावेदारी आई, लेकिन दस मात खा गए। इससे पहले सरकार ने 20 शहर चुनकर स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा की थी, जिन पर करीब 50 हजार करोड़ रुपये लगाए जाने का वायदा किया गया था। नए 13 शहरों के लिए 30,329 करोड़ रुपये लगाने का प्रस्ताव है। सरकार अगले लोकसभा चुनाव से पहले यानी 2019-20 तक देश के एक सौ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का फैसला कर रही है। इसके तहत बेहतर सार्वजनिक परिवहन, बिजली-पानी की लगातार आपूर्ति, साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन व्यवस्था, आई.टी. कनेक्टिविटी, श्रेष्ठ ई गवर्नेंस व्यवस्था जैसे प्रावधान हैं। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद अब तक पहले से घोषित स्मार्ट सिटी पूरी तरह ‘गंदगी मुक्त’ तथा स्वच्छ सिटी क्यों नहीं बनाई जा सकी हैं? स्मार्ट सिटी के लिए पूंजी निवेश भी अकेले सरकार नहीं करने वाली है। राज्य सरकारें और निजी कंपनियां भी खर्च का इंतजाम करेंगी। स्मार्ट सिटी में कम से कम समान श्रेष्ठतम शैक्षणिक और स्वास्थ्य सुविधाओं की प्राथमिकता नहीं दिखाई दे रही है। यह काम कठिन है, लेकिन जब तक शहर के लड़के-लड़कियों को अच्छी शिक्षा-व्यवस्था और सभी नागरिकों को चिकित्सा और अच्छे स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलेंगी, वे शहर को आदर्श बनाने में कैसे योगदान कर सकेंगे? सिटीजन को स्मार्ट बनाने के लिए सरकार, प्रशासन, पार्टी, सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। केवल बड़े नारे, लुभावने वायदे और कागजी कार्रवाई एवं कुछ शाइनिंग इमारतों से क्या कोई शहर अधिक सफल और स्मार्ट कहला सकेगा? फिर स्मार्ट शहर से पहले चुनिंदा 10 स्मार्ट गांव के लिए सरकार समयबद्ध कार्यक्रम क्यों नहीं बनाती? आलम तो यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा के अधिकांश सांसद दो वर्षों में एक-एक गांव गोद लेकर विकास का काम शुरू नहीं करवा सके हैं। चुनाव जितवाने वाले सैकड़ों गांवों में माननीय सांसदों ने एक बार भी झांककर नहीं देखा है। इसलिए पहले ‘स्मार्ट लीडर’ और ‘स्मार्ट सिटीजन’ का फार्मूला लागू होना बेहतर होगा।
चर्चाः स्मार्ट सिटी जरूरी या सिटीजन?
मेहरबान केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने 13 और शहरों के नामों की घोषणा कर दी, जिन्हें स्मार्ट सिटी मिशन के तहत विकसित किया जाएगा। इनमें अगले चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ शामिल है।
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