फिर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बीसीसीआई को मैदान में जमे रहकर क्रिकेट की राजनीति करने वाले मंत्री, अधिकारी और बुढ़ा गए कप्तान नेता आउट हो जाएंगे। बहुत कम लोगों को याद होगा कि क्रिकेट राजनीति के सबसे पुराने नेता शरद पवार मूलतः कबड्डी के मंजे हुए खिलाड़ी थे। कबड्डी से उन्होंने अपने-पराये पाले को बार-बार लांघने और दूसरों को आउट करने की कला सीखी थी। इसका फायदा उन्हें सत्ता की राजनीति में लगभग नंबर टू के राष्ट्रीय नेता बनने में भी मिला। 1993 में मैंने जब ‘राव के बाद कौन’ पुस्तक लिखी, तो पांच-सात अन्य विकल्पों के साथ शरद पवार को भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते हुए उनकी संभावना और रुकावटों का विस्तृत जिक्र किया था। 1996 में शरद पवार ने लोकसभा चुनाव के प्रारंभिक दौर में विभिन्न राज्यों के नेताओं से बात की और कुछ कदम आगे बढ़ाए। लेकिन सत्ता के उस पाले की गंभीर कठिनाइयां देखते हुए पीछे हट गए। बीसीसीआई में भी इसी तरह फुर्ती से आगे-पीछे दौड़कर मैदान में अपना वर्चस्व उन्होंने अब तक बनाए रखा। लेकिन अब उन्हें और श्रीनिवासन को भी मैदान से हटना पड़ेगा। इसी तरह प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर दलाली और जोड़-तोड़ करने वाले विभिन्न पार्टियों के नेताओं को नया ‘चोर दरवाजा’ ढूंढ़ना पड़ेगा। कोर्ट ने 70 साल से अधिक उम्र वाले अथवा एक व्यक्ति एक पद के नियम और पद की समयावधि पर स्पष्ट शब्दों में व्यवस्था दी है। हां, इस ‘स्वच्छ क्रिकेट अभियान’ के लिए कोर्ट ने कृपापूर्वक 6 महीने दे दिए हैं। कानून और न्यायिक प्रक्रिया के कारण अब भी बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने और सट्टेबाजी को वैध/अवैध रखने का मामला संसद पर छोड़ दिया है। नेताओं को अपनी पोलपट्टी बचाने की एक छूट बची रह गई है। अरबों रुपयों के धंधे और जन-धन के हिसाब-किताब को पारदर्शी बनाने के लिए शायद ‘अण्णा आंदोलन’ जैसे किसी राष्ट्रव्यापी अभियान की जरूरत होगी। फिलहाल भारतीय न्याय व्यवस्था का अभिनंदन।
क्रिकेट के धंधेबाज नेता संकट में
आखिरकार क्रिकेट के धंधे से चांदी कूटने और नेतागिरी चमकाने वाले नेता लंबी कानूनी लड़ाई के बाद असली संकट में फंसे हैं। यूं पुराने खिलाड़ी होने की वह से वे वर्चस्व के लिए ‘बेनामी’ यानी कठपुतलियों को आगे बढ़ाने का फार्मूला बढ़ा सकते हैं।
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