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देसी पान की आखिरी सांसें

देसी पान का पेशा धीरे-धीरे ख़त्म होने की कगार पर है। पान की खेती के लिए मशहूर मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में देसी पान की खेती आखिरी सांसे गिन रही है। पच्चीस वर्ष पहले की तुलना में आज महज पांच फीसदी लोग ही पान की खेती कर रहे हैं।
देसी पान की आखिरी सांसें

पान की खेती इतनी घाटे का सौदा हो गई है कि थोड़ा-बहुत शिक्षित व्यक्ति और खासकर नई पीढ़ी पलायन कर रही है। रोजगार के स्थानीय मौके न होने की वजह से इलाके से अस्सी फीसदी लोग रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं। शिक्षा का नारा यहां के लिए बेमानी है। स्कूल जाने की उम्र में बच्चे जंगल से लकड़ी काट कर ला रहे हैं।

 छतरपुर के गांव पीपट की मीरा चौरसिया बताती हैं कि ‘मैंने अपने बेटों को बाहर भेज दिया है। लेकिन बेटियों की शादी करनी है। पैसे की तंगी है। जब तक हम पान के पत्ते बाजार में सीधे बेचते थे तब तक ठीक था लेकिन अब पत्ते दलालों के जरिये बेचे जाते हैं। पत्ता जरा सा छोटा निकल आए तो उसकी कीमत घट जाती है।’

मीरा चौरसिया का कहना है कि पान की खेती मंहगी भी हो चुकी है। यह तकनीकी रूप से भी जटिल है । विकास संवाद के सहायक समन्वयक सौमित्र रॉय बताते हैं कि हर तीन माह में फसल होती है और एक एकड़ में पान की फसल लेने के लिए एक लाख रुपए तक खर्च करना पड़ता है। इसके लिए ढाल वाली जमीन चाहिए। जानवरों से फसल बचाने के लिए खेत की घेराबंदी की जाती है। बांस के पतले बांस से बेलों को ऊपर चढ़ाया जाता है। गरमी-सरदी बचाने के लिए तारों के ताने-बाने पर घास-फूस का छप्पर बनाया जाता है। जैविक खाद के साथ रासायनिक कीटनाशक दिए जाते हैं। पत्ते की खेती की लागत बहुत बढ़ चुकी है।

पान की खेती के लिए सम जलवायु चाहिए। न गरमी न सर्दी। बदलता तापमान पान की खेती को नेस्तेनाबूद करने पर है। जैविक खेती करने वाले बालेंदु शुक्ल कहते हैं पिछली एक सदी से बुंदेलखंड के तापमान में डेढ़ डिग्री का फर्क आया है। अब इलाके में या तो बहुत ज्यादा गरमी पड़ती है या बहुत सरदी। ऐसे में पान को बचाने के लिए जैसा भी शैड लगाया जाए पत्ते गल ही जाते हैं। करोड़ों की फसल बरबाद हो जाती है।

शिक्षित लोग लगातार पलायन कर रहे हैं। बालेंदु का कहना है कि पान की खेती के लायक ढालदार जमीन नहीं मिल रही हैं। इस खेती की तकनीक को युवा सीख नहीं रहे हैं। खेती मंहगी हो गई है, दलालों और मौसम की मार से अब देसी पान की खेती खत्म होने के कगार पर है।

सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि रोजाना 5-6- बसें भरकर दिल्ली जाती हैं। दिल्ली के कुछ इलाकों में तो बुंदेलखंड के बाशिंदों की बस्तियां हैं। लगातार सूखे की चपेट में आने की से यहां के कुंए और तालाब सूख गए हैं। सुदीप का कहना है कि पान पर गुटके की मार भी पड़ी है। गुटके को लोग पान मसाला समझकर खाते हैं जबकि वह सिर्फ गुटका है।

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