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घुसपैठ बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए सीमा सुरक्षा कोई साधारण कार्य नहीं है। पाकिस्तान,...
घुसपैठ बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए सीमा सुरक्षा कोई साधारण कार्य नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल जैसे देशों से सटी सीमाएँ ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत जटिल रही हैं। विगत कुछ वर्षों में भारत ने सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए व्यापक प्रयास किए हैं, फिर भी घुसपैठ की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। हाल ही में, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की हत्या ने इस संकट की भयावहता को फिर से सामने ला दिया है। ‘कश्मीर रेसिस्टेंस’ नामक संगठन द्वारा इस हमले की जिम्मेदारी लेना, और इसके पीछे पाकिस्तान समर्थित तंत्र की भूमिका, यह दर्शाता है कि घुसपैठ अब सिर्फ आर्थिक शरणार्थियों तक सीमित नहीं, बल्कि संगठित आतंकवाद का भी मुख्य साधन बन चुकी है। सीमाओं पर होने वाली हर घुसपैठ न केवल ज़मीन का अतिक्रमण है, बल्कि राष्ट्र की संप्रभुता पर भी गहरा प्रहार है। इसके चलते भारत के सामने एक बहुआयामी संकट खड़ा है, जिसमें सुरक्षा, सामाजिक संतुलन और आर्थिक दबाव जैसे प्रश्न शामिल हैं।

भारत में घुसपैठ के प्रमुख स्रोतों पर दृष्टि डालें तो सबसे बड़ा खतरा बांग्लादेश से आता है। अनुमानतः लगभग 2-3 मिलियन बांग्लादेशी नागरिक अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं, जिनमें से अधिकतर असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बिहार में बसे हैं। नेपाल की खुली सीमा का लाभ उठाकर आर्थिक घुसपैठ भी बड़ी संख्या में होती रही है। हाल के वर्षों में म्यांमार से रोहिंग्या और चिन समुदाय के हजारों शरणार्थी भारत के मणिपुर और मिजोरम राज्यों में आ बसे हैं। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, बांग्लादेश से भारत में होने वाले अवैध आव्रजन ने कुछ सीमावर्ती जिलों में जनसंख्या संरचना को पूरी तरह बदल दिया है, जिससे स्थानीय निवासियों में असंतोष और असुरक्षा की भावना बढ़ी है। बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा रोजगार बाजार में सस्ती मजदूरी की प्रतिस्पर्धा से भी भारतीय नागरिकों को गंभीर आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं म्यांमार से आने वाले कुछ तत्वों के हथियारबंद समूहों से संबंध होने के भी प्रमाण मिले हैं, जिससे पूर्वोत्तर भारत में जातीय संघर्ष और हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिए से घुसपैठ एक अत्यंत गंभीर संकट बन चुका है। रिपोर्ट्स के अनुसार, पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित और भेजे गए आतंकवादियों के लिए भारतीय सीमाओं की कमजोरियाँ एक आसान रास्ता बन गई हैं। बांग्लादेश से घुसपैठ के माध्यम से न केवल अवैध नागरिक प्रवेश कर रहे हैं, बल्कि नकली भारतीय मुद्रा और मादक पदार्थों की तस्करी भी बड़े पैमाने पर हो रही है। एक विश्लेषण के मुताबिक, सीमा पार अपराधों में हर वर्ष 10% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है। पूर्वोत्तर भारत में म्यांमार से आए घुसपैठियों के कारण जातीय संतुलन बिगड़ा है और कई स्थानों पर स्थानीय बनाम बाहरी संघर्ष गहरे हुए हैं। इससे न केवल आंतरिक अस्थिरता पैदा होती है, बल्कि भारत के भीतर अलगाववादी भावनाओं को भी बल मिलता है। जब अवैध प्रवासी स्थानीय नागरिकों के संसाधनों, नौकरियों और ज़मीनों पर कब्जा जमाते हैं, तो समाज में अविश्वास, हिंसा और ध्रुवीकरण की स्थिति निर्मित होती है। यह स्थिति लंबे समय में राष्ट्र की एकता और अखंडता को कमजोर करती है।

सरकार ने घुसपैठ की समस्या से निपटने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा पर बाड़बंदी की प्रक्रिया काफी हद तक पूरी की जा चुकी है और अब स्मार्ट फेंसिंग प्रोजेक्ट के तहत इलेक्ट्रॉनिक निगरानी को भी शामिल किया गया है। भारत-म्यांमार सीमा पर 1,643 किलोमीटर लंबी फेंसिंग का काम शुरू किया गया है, ताकि म्यांमार से आने वाले अवैध प्रवासियों को रोका जा सके। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) जैसी पहलों के माध्यम से असम में अवैध नागरिकों की पहचान का प्रयास किया गया है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद, सीमा सुरक्षा बल और सेना की तैनाती को और मजबूत किया गया है। हाल ही में भारत ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि को भी आंशिक रूप से निलंबित किया है, ताकि सीमा पार आतंकवाद पर दबाव डाला जा सके। हालांकि, इन सभी प्रयासों के बावजूद, एक समन्वित और राष्ट्रीय स्तर पर सुसंगत नीति की कमी अभी भी महसूस की जा रही है।

घुसपैठ रोकने के मार्ग में कई बड़ी चुनौतियाँ भी हैं। सीमाओं का जटिल भौगोलिक स्वरूप, जैसे नदी, दलदल, घने जंगल और बर्फीले क्षेत्र, निगरानी को कठिन बनाते हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों के कुछ स्थानीय लोगों द्वारा आर्थिक लाभ के लिए घुसपैठियों को सहायता देना भी एक गंभीर समस्या है। इसके अलावा, मानवाधिकार संगठनों और न्यायालयों द्वारा समय-समय पर हस्तक्षेप के कारण कई बार कठोर कार्रवाई बाधित होती है। राजनीतिक दल भी अक्सर वोट बैंक की राजनीति के चलते घुसपैठियों के प्रति नरम रुख अपना लेते हैं। इस संकट से निपटने के लिए भारत को अत्याधुनिक तकनीक (जैसे ड्रोन निगरानी, सेंसर आधारित अलर्ट सिस्टम) का व्यापक उपयोग करना होगा। सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों को जागरूक और सशक्त बनाना होगा, ताकि वे घुसपैठ की सूचना समय पर दे सकें। राष्ट्रीय पहचान प्रणाली को भी मजबूत किया जाना चाहिए ताकि अवैध नागरिकों की पहचान शीघ्र और सटीक तरीके से हो सके। सबसे बढ़कर, राजनीतिक इच्छाशक्ति को मजबूत करना अनिवार्य है।

घुसपैठ की समस्या केवल एक भूगोलिक या प्रशासनिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भविष्य से जुड़ा हुआ संकट है। यदि समय रहते इस पर निर्णायक और व्यापक कार्रवाई नहीं हुई, तो आने वाले वर्षों में भारत को आंतरिक अस्थिरता, आर्थिक दबाव और सामाजिक विघटन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। घुसपैठ को केवल सुरक्षा के चश्मे से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व के प्रश्न के रूप में देखा जाना चाहिए। आज आवश्यकता है कि भारत एक समग्र दृष्टिकोण अपनाए — जिसमें सीमा प्रबंधन, नागरिकता नीति, आर्थिक विकास, और सामाजिक एकीकरण को एकसाथ लेकर चला जाए। भारत की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा केवल सीमाओं पर सैनिकों की उपस्थिति से नहीं होगी, बल्कि राष्ट्र के भीतर मजबूत सामाजिक ताने-बाने और एक समान नागरिक पहचान से होगी। इसलिए अब समय आ गया है कि घुसपैठ के मुद्दे को राष्ट्रीय प्राथमिकता में शीर्ष स्थान दिया जाए और पूरी शक्ति से इसका समाधान किया जाए।

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